शुक्रवार, 18 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 28)



शिष्य संजीवनी के सेवन से शिष्यों को नवप्राण मिलते हैं। उनकी साधना में नया निखार आता है। अन्तःकरण में श्रद्धा व भक्ति की तरंगे उठती हैं। अस्तित्त्व में गुरुकृपा की अजस्र वर्षा होती है। यह ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे असंख्यों ने अनुभव किया है, और असंख्य जन अनुभव की राह पर चल रहे हैं। जिन्होंने निरन्तर अध्यात्म साधना के मान सरोवर में अवगाहन किया है, वे जानते हैं कि शिष्यत्व से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। शिष्यत्व के मंदराचल से ही अध्यात्म का महासागर मथा जाता है। प्रखरता और सजलता की बलिष्ठ भुजाएँ ही इसे संचालित करती हैं। शिष्य- साधक की जिन्दगी में यदि ऐसा सुयोग बन पाए तो फिर जैसे अध्यात्म के महारत्नों की बाढ़ आ जाती है। शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ ऐसे शिष्य- साधक की चरण- चेरी बनकर रहती हैं।

यह दिव्य अनुभव पाने के लिए प्रत्येक साधक को अपने अन्तःकरण में मार्ग की प्राप्ति करनी होगी। यह महाकर्म आसान नहीं है। जन्म- जन्मान्तर के अनगिनत संस्कारों, प्रवृत्तियों से भरे इस भीषण अरण्य में यह महाकठिन पुरुषार्थ है। यह महापराक्रम किस तरह से किया जाय इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह आठवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें शिष्यत्व की महासाधना के परम साधक कहते हैं- ‘भयंकर आँधी के बाद जो नीरव- निस्तब्धता छाती है, उसी में फूलों के खिलने का इन्तजार करो। उससे पहले यह शुभ क्षण नहीं आएगा। क्योंकि जब तक आँधी उठ रही है, बवंडर उठ रहे हैं, महाचक्रवातों का वेग तीव्र है, तब तक तो बस महायुद्ध के प्रचण्ड क्षण हैं। ऐसे में तो केवल साधना का अंकुर फूटेगा, बढ़ेगा। उसमें शाखाएँ और कलियाँ फूटेंगी।’

लेकिन जब तक शिष्य का सम्पूर्ण देहभाव विघटित होकर घुल न जाएगा, जब तक समूची अन्तःप्रकृति आत्म सत्ता से पूर्ण हार मानकर उसके अधिकार में न आ जाएगी तब तक महासिद्धि के फूल नहीं खिल सकते। यह पुण्य क्षण तो तब आता है जब एक ऐसी शान्ति का उदय होता है, जो गर्म प्रदेश में भारी वर्षा के पश्चात छाती है। इस गहन और नीरव शान्ति में ही यह रहस्यमय घटना घटित होती है। जो सिद्ध कर देती है कि मार्ग प्राप्ति हो गयी है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/jaivic
 

निःसंदेह कर्म की बड़ी गहन है। धर्मात्माओं को दुःख, पापियों को सुख, आलसियों को सफलता, उद्योगशीलों को असफलता, विवेकवानों पर विपत्ति, मूर्खों के यहाँ सम्पत्ति, दंभियों को प्रतिष्ठा, सत्यनिष्ठों को तिरस्कार प्राप्त होने के अनेक उदाहरण इस दुनियाँ में देखे जाते हैं। कोई जन्म से ही वैभव लेकर पैदा होते हैं, किन्हीं को जीवन भर दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं। सुख और सफलता का जो नियम निर्धारित है, वे सर्वांश पूरे नहीं उतरते।

इन सब बातों को देखकर भाग्य, ईश्वर की मर्जी, कर्म की गति के सम्बन्ध में नाना प्रकार के प्रश्न और संदेहों की झड़ी लग जाती है। इन संदेहों और प्रश्नों का जो समाधान प्राचीन पुस्तकों में मिलता है, उससे आज के तर्कशील युग में ठीक प्रकार समाधान नहीं होता । फलस्वरूप नई पीढ़ी, उन पाश्चात्य सिध्दांतों की ओर झुकती जाती है, जिनके द्वारा ईश्वर और धर्म को ढोंग और मनुष्य को पंचतत्व निर्मित बताया जाता है एवं आत्मा के अस्तित्व से इंकार किया जाता है। कर्म फल देने की शक्ति राज्यशक्ति के अतिरिक्त और किसी में नहीं है। ईश्वर और भाग्य कोई वस्तु नहीं है आदि नास्तिक विचार हमारी नई पीढ़ी में घर करते जा रहे हैं।

इस पुस्तक में वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण से कर्म की गहन गति पर विचार किया गया है और बताया गया है कि जो कुछ भी फल प्राप्त होता है, वह अपने कर्म के कारण ही है। हमारा विचार है कि पुस्तक कर्मफल सम्बन्धी जिज्ञासाओं का किसी हद तक समाधान अवश्य करेगी ।

प.श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Gahana_karmo_gati

इस पुस्तक में हम लोग पढेंगे

चित्रगुप्त का परिचय
आकस्मिक सुख-दुःख
तीन दुःख और उनका कारण
कर्मों की तीन श्रेणियाँ
अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
दुःख का कारण पाप ही नहीं है



उत्साह और उल्लास बना रहने के लिए यह आवश्यक है कि अपने सामने कोई दूरगामी लक्ष्य रहे और यहाँ तक पहुँचने के लिए सोचने और करने के लिए बहुत कुछ काम सामने रहे। जीवन का आनन्द तभी तक है जब तक उसने सामने कुछ काम है। जिस दिन व्यक्ति पूर्णतया निश्चित होता है उस दिन या तो वह परमहंस होता है या जड़ मध्यवृत्ति के व्यक्ति के लिए यह स्थिति निरानन्द है और उसमें निराशा एवं निष्क्रियता मिश्रित थकान की ही अनुभूति होगी। उसे सोचना या करना भले ही कुछ न पड़े पर साथ ही आशा एवं तत्परता की ओर प्रेरित करने वाले उल्लास भरे प्रकाश से वंचित ही रहना पड़ेगा

जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालने की इच्छा इसलिए होती है कि उत्तरदायित्व का वजन उठाना कायर और कमजोरों को बहुत भारी प्रतीत होता है। वे पगडंडी ढूँढ़ते हैं और ऐसे सरल रास्ते बच निकलने की बात सोचते हैं जिसमें अपने ऊपर कुछ बोझ न पड़े पर वस्तुतः इसमें भटकाव के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। उत्थान और पतन का ही नहीं।, सुख और दुःख का उत्तरदायित्व भी हमें अपने ऊपर लेना चाहिए और सफलता असफलता की अपनी ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है। वर्तमान में जो परिस्थितियाँ सामने खड़ी है उनमें यत्किंचित् दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं पर अधिकतर अपनी ही रीति-नीति और गतिविधियों की प्रतिक्रिया सामने रहती है। भविष्य में भी जो कुछ होना या बनना है उस में भी अपने ही क्रिया-कलापों के प्रतिफल सामने होगे। दूसरों का सहयोग अवरोध एक सीमा तक ही हमारा भला बुरा कर सकता है। तथ्य यह है कि अपना व्यक्तित्व ही हर दिशा में प्रतिध्वनि की तरह गूँजता है।

किन्हीं असफलताओं के लिए दूसरों को दोष देने की अपेक्षा यह अधिक लाभदायक है कि हम अपनी उन त्रुटियों को ढूँढ़े जिनके कारण सफलता से वंचित रहना पड़ा इसी तरह प्रगति की दिशा में जितने कदम बढ़ सके उनके पीछे उस सुव्यवस्थित रीति-नीति को समझे जिसे अपना कर हम स्वयं ही नहीं और भी कितने ही लोग आगे बढ़ सकने में समर्थ हुए हैं। सद्गुण ही किसी को ऊँचा उठा सकते ओर आगे बढ़ा सकते हैं। यह रहस्य जिन्हें विदित हो सका वे अपने को परिष्कृत करने में जुटते हैं ताकि एक के बाद दूसरी उत्कर्ष की परतें खुलती चलें।

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.34

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