शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग ८

प्रेम का अमृत छिड़क कर शुष्क जीवन को सजीव बनाइये

आत्मभाव का प्रयास करिए इससे आसपास रूखी, उपेक्षणीय, अप्रिय वस्तुओं का रूप बिल्कुल बदल जाएगा। विज्ञ लोग कहते हैं कि अमृत छिडकने से मुर्दे उठते हैं। हम कहते हैं कि प्रेम की दृष्टि  से अपने चारों ओर निहारिए मुर्दे सी अस्पृश्य और अप्रिय वस्तुए सजीव और सजीव सर्वांग सुंदर बनकर आपके सामने आनंद नृत्य करने लगेंगी। ऐसा कहा गया है कि पारस को छूकर काला-कलूटा लोहा बहुमूल्य सोना हो जाता है। हम कहते हैं कि सच्चे प्रेम का अरूचिकर और उपेक्षणीय से स्पर्श कराइए वे कुंदन के समान जगमगाने लगेगी। 'दुनियाँ आपको काटने दौडती है, दुर्व्यवहार करती है, सताती है, पाप अंक में धकेलती हैं, इसका कारण एक ही है कि आपके मन मानस में प्रेम का सरोवर सूख गया है, उसमें एकांत शून्यता की सांय-सांय बीत रही है, उसका डरावना अंदर से निकल कर बाहर आ खड़ा होता है और दुनियाँ बुरी दीखने लगती है। जब कोई व्यक्ति दुनियाँ ' से बिलकुल घबराया हुआ, डरा हुआ, निराश, चिढ़ा हुआ सामने आता है और संन्यासी हो जाने का विचार प्रकट करता है तब हम उसके सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया करते हैं कि दोस्त इस दुनियाँ में कुछ भी बुरा नहीं है, आओ अपने पीलिया का इलाज करें और संसार का उसके असली आनंददायी रूप में दर्शन करके शांति लाभ करें।

कुटिलता, अनुदारता, कंजूसी और संकीर्णता को छोड़ दीजिए। इसके स्थान पर सरलता और उदारता को विराजमान कीजिए।  मुद्दतों से सूखे पडे हृदय सरोवर को प्रेम के अमृत जल से भर लीजिये। इस सरोवर ' लोगों को पानी पीकर प्यास बुझाने दीजिए,स्नान,करने, शांति लाभ करने दीजिए क्रीडा करके आनंदित होने दीजिए। अपना प्रेम उदारतापूर्वक सबके लिए खुला रखिए। आत्मीयता की शीतल छाया मे थके हुए पथिकों को विश्राम करने दीजिए। प्रेम इस भूलोक का अमृत है, आत्मभाव इसका पारस है। इस सुर दुर्लभ मानव जीवन को सफल बनाना है तो इन दोनों महातत्त्वों को उपार्जित करने से वंचित मत रहिए।

अपने प्रेम रूपी अमृत को चारों ओर छिडक दीजिए जिससे यह श्मशान सा भयंकर दिखाई पड़ने वाला जींवन देवी-देवताओं की क्रीडा भूमि बन जाए। अपने आत्मभाव रूपी पारस को कुरूप लोहा-लंगड से स्पर्श होने दीजिए जिससे स्वर्णमयी इंद्रपुरी बन कर खडी हो जाए। यह स्वर्ग सच्चे विश्ववासियों और दृढ़ निश्चय वालों के लिए बिलकुल सरल और सुसाध्य है। यह : आपके हाथ में है कि इच्छा और प्रयत्न द्वारा जीवन में स्वर्ग का प्रत्यक्ष आनंद उपलब्ध करें।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १२

👉 भक्तिगाथा (भाग ११०)

कामनाएँ, अपेक्षाएँ हों तो वहाँ प्रेम नहीं

भक्त सत्यधृति की विनम्रता ने सभी के हृदय को सुखद अनुभूति दी। इसी के साथ अब सबके नेत्र देवर्षि नारद के मुख पर जा टिके। सब को अब प्रतीक्षा थी नवीन भक्तिसूत्र की। देवर्षि को भी सबके मन की त्वरा, तीव्रता व प्रतीक्षा का अहसास था। उन्होंने नारायण नाम के स्मरण के साथ उच्चारित किया-
‘गुणरहितं कामना रहितं प्रतिक्षण
वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्’॥ ५४॥


यह प्रेम गुण रहित है, कामना रहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेद रहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभव रूप है।

देवर्षि के इस नवीन सूत्र ने सभी के अन्तर्मन को नवीन प्रकाश व प्रफुल्लता दी। ऋषि कहोड़ प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यधृति की ओर देखते हुए कहा- ‘‘महात्मन्! आप इस नवीन सूत्र पर कुछ कहें।’’ महर्षि कहोड़ की यह बात सभी को भायी। सबने उनका हृदय से समर्थन किया। स्वयं देवर्षि नारद के मन में भी यही भाव था कि भगवान् नारायण के अनन्य भक्त सत्यधृति इस पर कुछ कहें। सब की अनुशंसा को विनम्रता से शिरोधार्य करते हुए सत्यधृति ने कहा- ‘‘हे महनीय जनों! मेरे अनुभवों एवं उपलब्धियों में तो मुझे ऐसी कोई व्यापकता नहीं नजर आती। परन्तु हाँ! मेरे स्मृतिकोष में भक्त चोखामेला की कथा उद्भासित हो रही थी। चोखामेला था तो वनवासी किरात- अनपढ़, निरक्षर एवं द्विज जातियों के संस्कारों से वंचित लेकिन उसके आचरण में महर्षियों की सी पवित्रता थी। जिन दिनों मैं उससे मिला उन दिनों मैं धराधाम पर राज्य शासन कर रहा था।’’

परमभक्त सत्यधृति के बारे में यह सत्य भी कम लोगों को पता था कि वह अपने धरती के जीवनकाल में परम प्रतापी, तेजस्वी सम्राट थे। प्रायः समूचा भूमण्डल उनके राज्य शासन में था। अपनी प्रजा उन्हें पुत्रवत प्रिय थी। प्रजा भी अपने नरेश को सहृदय पिता के रूप में देखती थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को भक्त सत्यधृति के राज्य शासन का स्मरण था। उन्होंने कहा- ‘‘धरती के उस स्वर्णिम युग को कौन भूल सकता है महाराज।’’ ऋषि वशिष्ठ की बात को सुनकर विनय भरे स्वरों में सत्यधृति ने कहा- ‘‘भगवन्! मेरे कर्तृत्व में भला ऐसा कुछ कहाँ? मैं तो भगवान के अनुरागी भक्त चोखामेला की बात कह रहा हूँ। उससे मेरी भेंट कण्व वन में हुई थी। फूस की झोपड़ी में उसका आवास था। नारायण के नाम के सिवा उसका कोई आश्रय न था। मेरी जब उससे भेंट हुई तो उसके होठों पर नारायण का नाम था, नेत्रों में अश्रु, रोम-रोम पुलकन और प्रेम से सम्पूर्ण देह कम्पायमान।

साक्षात भगवत् प्रेम की मूर्ति लग रहा था चोखामेला। मैंने उससे जानना चाहा कि ऐसी अलौकिक भक्ति कहाँ से प्राप्त हुई तो उसने कहा प्रभुनाम के स्मरण से। जब उससे मैंने यह जानना चाहा कि आखिर वह क्या चाहता है भगवान् से? तो उत्तर में उसके आँसू छलक आये और बोला- अरे! मैं तो स्वयं को प्रभु समर्पित करना चाहता हूँ उसने भाव भीगे स्वरों में कहा- प्रेम तो गुणरहित होता है। इसमें कामना का कोई स्थान नहीं है क्योंकि कामना तो पूरी होते ही समाप्त हो जाती है। परन्तु प्रेम तो प्रतिक्षण बढ़ता है। इसमें कभी भी विघटन सम्भव नहीं है क्योंकि विघटन तो वहाँ होता है, जहाँ अपेक्षाएँ होती हैं। अपेक्षारहित, प्रेम समर्पित भक्त एवं प्रेमपूर्ण भगवान तो जब मिलते हैं तो उनमें प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है। यह अनुभव अतिव्यापक होने के कारण अति सूक्ष्म भी है। इसे कहा-सुना नहीं जा सकता, बस अनुभव किया जा सकता है। इसीलिए प्रेम अनुभवरूप है।’’ इतना कहकर भक्त सत्यधृति ने गहरी साँस लेते हुए कहा- ‘‘उस अनपढ़ भक्त चोखामेला ने मुझे पहली बार भक्ति का तत्त्वज्ञान दिया। उस प्रेमी-अनुरागी भक्त में और भी ऐसा बहुत कुछ था जो कहने-सुनने के योग्य है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २१७

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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