🔵 जीवन का सच्चा सदुपयोग ही जीवन का महामंत्र है। जब भी मन में कोई उदात्त प्रेरणा जागे, तो उसे बलपूर्वक थाम लो। कहीं ऐसा न हो कि भूल जाने के दोष के कारण वह सदैव के लिए लुप्त हो जाए। किसी भी सिद्धांत की सार्थकता, उसकी व्यावहारिकता अनुभूति में है। आदर्श चिंतन श्रेष्ठ है, तो आदर्श कर्म श्रेष्ठतम। आध्यात्मिक सत्य की अनुभूति-तत्त्वचिंतन और धारणा की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। साधनात्मक पुरुषार्थ थोड़ा-सा ही क्यों न हो, हजार बड़ी-बड़ी बातों से ज्यादा उत्तम है। बातों से भावनाएँ जाग सकती हैं, किन्तु उस सिद्धांत की अनुभूति के लिए यदि आवश्यक पुरुषार्थ न किया गया, तो समझो समय तथा भावना बेकार नष्ट हुई। आदर्शोन्मुखी आध्यात्मिक कर्म में ही तो जीवन का सच्चा सदुपयोग है।
🔴 यह तभी संभव है, जब हृदय में कपट न हो। अपनी लालसाओं-वासनाओं पर बड़े-बड़े सिद्धांतों का आवरण डालकर उन्हें ढका न जाए। अपनी अकर्मण्यता पर सोने की चादर डालकर उसे शरणागति का नाम देना उचित नहीं। शरणागति तो निष्काम कर्म के तीव्र वेग से उपजी सात्विक भावना है, अकर्मण्यता नहीं। निश्चित जान लो कि आध्यात्मिक साधना न हो पाने का कारण शारीरिक सुख-सुविधाओं की चिंता और इंद्रियभोगों की लालसा ही है, क्योंकि जैसे ही मन में आध्यात्मिक साधना में संलग्न होने की, कठोर तप में प्रवृत्त होने की बात पैठती है, इंद्रियाँ विरोध करने लगती हैं। शरीर पूछने लगता है, ‘‘रे मन! भला क्या यह आरामदायक होगा?’’
🔵 सच तो यह है कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए जितने साहस और संघर्ष की आवश्यकता है, आध्यात्मिक जीवन के लिए उससे भी कहीं अधिक संघर्ष और साहस आवश्यक है। कृपण व्यक्ति धनसंग्रह के लिए जितना अध्यवसाय करता है, वीर सैनिक शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जितना साहस रखता है, आध्यात्मिक ऊर्जा को पाने के लिए, सदैव के लिए जीवन की समस्त दुर्बलताओं को जीत लेने के लिए उतने ही अध्यवसाय की, उतने ही महान् साहस की आवश्यकता है। किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति के पीछे रहस्य है- अदम्य साहस, सर्वथा भयहीन साहस। इस सत्य को पहचानने पर ही जीवन का सच्चा-सार्थक सदुपयोग संभव है। जीवन के सच्चे सदुपयोग अर्थात् जीवन के महामंत्र की साधना करके ही जीवन के रहस्य को जाना जा सकता है। समस्त दुर्बलताओं पर विजय पाई जा सकती है।
🔴 यह तभी संभव है, जब हृदय में कपट न हो। अपनी लालसाओं-वासनाओं पर बड़े-बड़े सिद्धांतों का आवरण डालकर उन्हें ढका न जाए। अपनी अकर्मण्यता पर सोने की चादर डालकर उसे शरणागति का नाम देना उचित नहीं। शरणागति तो निष्काम कर्म के तीव्र वेग से उपजी सात्विक भावना है, अकर्मण्यता नहीं। निश्चित जान लो कि आध्यात्मिक साधना न हो पाने का कारण शारीरिक सुख-सुविधाओं की चिंता और इंद्रियभोगों की लालसा ही है, क्योंकि जैसे ही मन में आध्यात्मिक साधना में संलग्न होने की, कठोर तप में प्रवृत्त होने की बात पैठती है, इंद्रियाँ विरोध करने लगती हैं। शरीर पूछने लगता है, ‘‘रे मन! भला क्या यह आरामदायक होगा?’’
🔵 सच तो यह है कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए जितने साहस और संघर्ष की आवश्यकता है, आध्यात्मिक जीवन के लिए उससे भी कहीं अधिक संघर्ष और साहस आवश्यक है। कृपण व्यक्ति धनसंग्रह के लिए जितना अध्यवसाय करता है, वीर सैनिक शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जितना साहस रखता है, आध्यात्मिक ऊर्जा को पाने के लिए, सदैव के लिए जीवन की समस्त दुर्बलताओं को जीत लेने के लिए उतने ही अध्यवसाय की, उतने ही महान् साहस की आवश्यकता है। किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति के पीछे रहस्य है- अदम्य साहस, सर्वथा भयहीन साहस। इस सत्य को पहचानने पर ही जीवन का सच्चा-सार्थक सदुपयोग संभव है। जीवन के सच्चे सदुपयोग अर्थात् जीवन के महामंत्र की साधना करके ही जीवन के रहस्य को जाना जा सकता है। समस्त दुर्बलताओं पर विजय पाई जा सकती है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 81