प्रतिदिन प्रातःकाल अथवा सांयकाल एकान्त स्थान में चले जाओ। तुम्हारा चित्त चंचल या आकर्षित करने का कोई साधन न हो। शान्तचित से नेत्र मूँद कर बैठ जाओ। क्रमशः अपने मने की क्रियाओं का निरीक्षण करो। इन सब विचारों को एक-एक करके निकाल डालो, यहाँ तक कि तुम्हारे मन में कुछ भी न रहे। वह बिल्कुल साफ हो जाये। अब दृढ़तापूर्वक निम्न विचारों की पुनरावृति करो-
‘‘मैं आज से एक नवीन र्माग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा र्सवदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’’
‘‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्र रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचना करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकारमय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नही पड़ सकता। ये अभद्र भ्रांतियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकतीं। संसार की क्षणभंगुर वासना तरंगे अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’’
‘‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मदहोश था, अपने को ही कुछ समझता था, किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यो पर हँसी आती है।’’
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 साधना से सिद्धि वाङमय क्रमांक-5 पृष्ठ-8.32
‘‘मैं आज से एक नवीन र्माग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा र्सवदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’’
‘‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्र रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचना करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकारमय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नही पड़ सकता। ये अभद्र भ्रांतियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकतीं। संसार की क्षणभंगुर वासना तरंगे अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’’
‘‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मदहोश था, अपने को ही कुछ समझता था, किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यो पर हँसी आती है।’’
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 साधना से सिद्धि वाङमय क्रमांक-5 पृष्ठ-8.32