सोमवार, 21 मार्च 2016


कुछ लोग धनी बनने की वासना रूपी अग्नि में अपनी समस्त शक्ति, समय, बुद्धि, शरीर यहाँ तक कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं। यह तुमने भी देखा होगा। उन्हें खाने- पीने तक की भी फुरसत नहीं मिलती। प्रातःकाल पक्षी चहकते और मुक्त जीवन का आनन्द लेते हैं तब वे काम में लग जाते हैं। इसी प्रकार उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग काल के कराल गाल में प्रविष्ट हो जाते हैं। शेष को पैसा मिलता है पर वे उसका उपभोग नहीं कर पाते। कैसी विलक्षणता। धनवान् बनने के लिए प्रयत्न करना बुरा नहीं। इससे ज्ञात होता है कि हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा सकते हैं, जितना एक व्यक्ति धनोपार्जन के लिये।

मरने के बाद हमें सभी कुछ छोड़ जाना पड़ेगा, तिस पर भी देखो हम इनके लिए कितनी शक्ति व्यय कर देते हैं। अतः उन्हीं व्यक्तियों को, उस वस्तु की प्राप्ति के लिये जिसका कभी नाश नहीं होता, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है, क्या सहस्त्रगुनी अधिक शक्ति नहीं लगानी चाहिए? क्योंकि हमारे अपने शुभ कर्म, अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ- यही सब हमारे साथी हैं, जो हमारी देह नाश के बाद भी साथ जाते हैं। शेष सब कुछ तो यही पड़ा रह जाता है।

यह आत्म- बोध ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। जब उस अवस्था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव- देव- मानव बन जाता है और तब हम जन्म और मृत्यु की इस घाटी से उस ‘एक’ की ओर प्रयाण करते हैं जहाँ जन्म और मृत्यु- किसी का आस्तित्व नहीं है। तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं।

-स्वामी विवेकानन्द
अखण्ड ज्योति जुलाई 1968 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1968/July
धर्म अप्रभावित हैं

वास्तव में धर्म तो एक ही हैं। धर्म के लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियाँ प्रचलित हैं, वे धर्म नहीं वरन सम्प्रदाय हैं। धर्म मनो महासागर हैं और सम्प्रदाय नदियाँ हैं, जो विभिन्न स्थानों और दिशाओं से आकार इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलिन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर समझ लें व अपने सागर होने की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती। धर्मं का तो एक ही लक्ष्य हैं सत्यं, शिवं, और सुन्दरं अर्थात ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, और कल्याणकारी हों। धर्म के इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए विभिन्न मार्ग जैसे पूजा, उपासना, अनुष्ठान, अदि की व्यवस्था विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित रहती हैं। इनमें से किसी सम्प्रदाय में कोई पद्धति विशेष अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती हैं, किसी में कम। इसी से हम इन पद्धतियों के प्रभावी होने न होने को यह मैं लेते हैं मनो अमुक धर्म अमुक से श्रेष्ठ अथवा निम्नतर हैं। वास्तव में धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर, अटल, शाश्वत हैं, उस तक पहुँचने के मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक अथवा कष्टप्रद हो सकते हैं, परन्तु उनके कारण धर्म प्रभावित नहीं होता।

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्मं तत्त्व का दर्शन और मर्म (वांग्मय 53) पृष्ठ 1.4


Dharma is eternal, immutable

In reality there is just one. One Dharma, one true faith, one true religion, one truth. Though there are different prevalent ways to attain the goals of Dharma, these are not different Dharmas (Faiths) themselves, but different groups or sects. Dharma is akin to a vast ocean and the different sects are the rivers which come to it from different directions and different places. Whether seen or unseen all of them eventually lead into the ocean and become one with it. Even after mistaking a stream to be an ocean, and creating a huge hype around it, in reality the situation still remains the same. In-spite of the hype a stream cannot become an ocean. Faith has one goal that is  to be Satyam (true), Shivam (virtuous), and Sundaram (divine). A conduct which is true, virtuous and divine. To achieve this goal of Dharma, various methods have been popular in various sects, like ritualistic worship, prayer, rendering service to a particular idol or symbol. Amongst these various ways, some appear to be more effective than others. These generalized assumptions force us to assign gradation to various religions (sects). We falsely assume one to be greater than the other. In reality Dharma was, is and will be eternally steady, strong, immutable, immovable, and perpetual. The paths to reach that goal may be easy or difficult than presumed but because of the difference in paths, the destination which is Dharma is not affected.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
-Dharma ka Tattava Darshan aur Marm Vangmay 53 page 1.4

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