रविवार, 29 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Jan 2017


👉 आज का सद्चिंतन 30 Jan 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 23) 30 Jan

🌹 व्यावहारिक साधना के चार पक्ष   

🔴 प्रज्ञायोग की प्रथम साधना को आत्मबोध कहते हैं। आँख खुलते ही यह भावना करनी चाहिये कि आज अपना नया जन्म हुआ। एक दिन ही जीना है। रात्रि को मरण की गोद में चले जाना है। इस अवधि का सर्वोत्तम उपयोग करना ही जीवन साधना का महान लक्ष्य है। यही अपना परीक्षा क्रम है और उसी में भविष्य की सारी सम्भावना सन्निहित है।               

🔵 मनुष्य जन्म जीवधारी के लिये सबसे बड़ा सौभाग्य है। इसका सदुपयोग बन पड़ना ही किसी की उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता का प्रमाण-परिचय है। उठते ही यह विचार करना चाहिये कि आज के एक दिन को सम्पूर्ण जीवन माना जाये जिनके लिये इसे दिया गया है। इस आधार पर दिनभर की दिनचर्या इसी समय निर्धारित की जाये। चिन्तन, चरित्र, और व्यवहार की वह रूपरेखा विनिर्मित की जाये जिसे सतर्कतापूर्वक पूरी करने पर यह माना जा सके कि आज का दिन एक बहुमूल्य जन्म पूरी तरह सार्थक हुआ। इस चिन्तन के सभी पक्षों पर विचार करने में जितना अधिक समय लगे उतना कम है, पर इसे नित्यप्रति, नियमित रूप से करते रहने पर पन्द्रह मिनट भी पर्याप्त हो सकते हैं। एक दिन की छूटी बात को अगले दिन पूरा किया जा सकता है।  

🔴 दूसरी संध्या रात को सोते समय पूरी की जाती है, उसमें यह माना जाना चाहिये कि अब मृत्यु की गोद में जाया जा रहा है। भगवान् के दरबार में जवाब देना होगा कि आज के समय का, एक दिन के जीवन का किस प्रकार सदुपयोग बन पड़ा? इसके लिये दिनभर के समययापनपरक क्रिया-कलापों और विचारों के उतार-चढ़ावों की समीक्षा की जानी चाहिये। उसके उद्देश्य और स्तर को निष्पक्ष होकर परखना चाहिये तथा देखना चाहिये कि कितना उचित बन पड़ा और कितना उसमें भूल या विकृति होती रही।

🔵 जो सही हुआ उसके लिये अपनी प्रशंसा की जाये और जहाँ जो भूल हुई हो उसकी भरपाई अगले दिन करने की बात सोची जाये। पाप का प्रायश्चित शास्त्रकारों ने यही माना है कि उसकी क्षतिपूर्ति की जाये। आज का दिन जो गुजर गया, उसे लौटाया तो नहीं जा सकता, पर यह हो सकता है कि उसका प्रायश्चित अगले दिन किया जाये। अगले दिन के क्रिया कलाप में आज की कमी को पूरा करने की बात भी जोड़ ली जाये। इस प्रकार कुछ भार तो अवश्य बढ़ेगा, पर उसके परिमार्जन का और कोई उपाय भी तो नहीं है। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हम अभागे नहीं हैं

🔵 अपने से बढ़ी चढ़ी स्थिति के मनुष्यों को देखकर हम अपने प्रति गिरावट के-तुच्छता के भाव लावें यह उचित नहीं। क्योंकि असंख्यों ऐसे भी मनुष्य हैं जो हमारी स्थिति के लिए तरसते होंगे और अपने मन में हमें ही बहुत बड़ा भाग्यवान् मानते होंगे।

🔴 उन खानाबदोश गरीबों को देखिए जिनके पास रहने को घर नहीं, बैठने की जगह नहीं, बंधी हुई तिजारत या जीविका नहीं आज यहाँ हैं तो कल वहाँ दिखाई देंगे। रोज कुंआ खोदना रोज पानी पीना। क्या इनकी अपेक्षा हम अच्छे नहीं है?

🔵 अज्ञान और भ्रम के कारण कितने ही लोगों का जीवन कंटकाकीर्ण हो रहा है, कुसंस्कार, दुर्भावना, कुविचार, बुरी आदत, मूर्खता, नीचवृत्ति, पाप, वासना, तृष्णा, ईर्ष्या, घृणा, अहंकार व्यसन, क्रोध, लोभ, मोह आदि आन्तरिक शत्रुओं के आक्रमण से जिन्हें पग-पग पर परास्त एवं पीड़ित होना पड़ता है, उनकी अशान्ति की तुलना में हम अधिक अशान्त नहीं हैं।

🔴 जिन्हें हम अधिक सम्पन्न और सुखी समझते हैं वे भी हमारी ही तरह दुखी होंगे और अपने से अधिक सम्पन्नों को देखकर सोचते होंगे कि हम पिछड़े हुए, अभावग्रस्त और दुखी हैं। दूसरी ओर जो लोग हमसे पिछड़े हुए हैं वे हमारे भाग्य पर ईर्ष्या करते होंगे। सोचते होंगे अमुक व्यक्ति तो हमारी अपेक्षा बहुत अधिक सुख−साधन सम्पन्न है।

🔵 हम अपने को अभागा क्यों मानें ? दीन, दुखी, अभाव ग्रस्त या पिछड़ा हुआ क्यों समझें ? जब अनेकों से अनेक अंश में हम सुसम्पन्न और आगे बढ़े हुए हैं तो अकारण दुख न होने पर भी दुखी होने का कोई कारण नहीं। हमें तृष्णा का हड़कम्प उठा कर शान्तिमय जीवन को अशान्त बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें चाहिए कि जो प्राप्त है उसमें संतुष्ट रहें और अधिक प्राप्त करने को अपना स्वाभाविक कर्तव्य समझ कर उसके लिए प्रयत्न करें।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति-मार्च 1948 पृष्ठ 15 
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/March.15

👉 काबिलियत की पहचान

🔴 किसी जंगल में एक बहुत बड़ा तालाब था . तालाब के  पास एक बागीचा था, जिसमे अनेक प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे दूर- दूर से लोग वहाँ आते और बागीचे की तारीफ करते।

🔵 गुलाब के पेड़ पर  लगा पत्ता हर रोज लोगों को आते-जाते और फूलों की तारीफ करते देखता, उसे लगता की हो सकता है एक दिन कोई उसकी भी तारीफ करे. पर जब काफी दिन बीत जाने के बाद भी किसी ने उसकी तारीफ नहीं की तो वो काफी हीन महसूस करने लगा उसके अन्दर तरह-तरह के विचार आने लगे— सभी लोग गुलाब और अन्य फूलों की तारीफ करते नहीं थकते पर मुझे कोई देखता तक नहीं, शायद मेरा जीवन किसी काम का नहीं …कहाँ ये खूबसूरत फूल और कहाँ मैं… और ऐसे विचार सोच कर वो पत्ता काफी उदास रहने लगा।

🔴 दिन यूँ ही बीत रहे थे कि एक दिन जंगल में बड़ी जोर-जोर से हवा चलने लगी और देखते-देखते उसने आंधी का रूप ले लिया. बागीचे के पेड़-पौधे तहस-नहस होने लगे, देखते-देखते सभी फूल ज़मीन पर गिर कर निढाल हो गए, पत्ता भी अपनी शाखा से अलग हो गया और उड़ते-उड़ते तालाब में जा गिरा।

🔵 पत्ते ने देखा कि उससे कुछ ही दूर पर कहीं से एक चींटी हवा के झोंको की वजह से तालाब में आ गिरी थी और अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी।

🔴 चींटी प्रयास करते-करते काफी थक चुकी थी और उसे अपनी मृत्यु तय लग रही थी कि तभी पत्ते ने उसे आवाज़ दी, घबराओ नहीं, आओ, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ। और ऐसा कहते हुए अपनी उपर बैठा लिया. आंधी रुकते-रुकते पत्ता तालाब के एक छोर पर पहुँच गया; चींटी किनारे पर पहुँच कर बहुत खुश हो गयी और बोली,  आपने आज मेरी जान बचा कर बहुत बड़ा उपकार किया है, सचमुच आप महान हैं, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!

🔵 यह सुनकर पत्ता भावुक हो गया और बोला, धन्यवाद तो मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम्हारी वजह से आज पहली बार मेरा सामना मेरी काबिलियत से हुआ, जिससे मैं आज तक अनजान था. आज पहली बार मैंने अपने जीवन के मकसद और अपनी ताकत को पहचान पाया हूँ…

🔴 मित्रों, ईश्वर ने हम सभी को अनोखी शक्तियां दी हैं; कई बार हम खुद अपनी काबिलियत से अनजान होते हैं और समय आने पर हमें इसका पता चलता है, हमें इस बात को समझना चाहिए कि किसी एक काम में असफल होने का मतलब हमेशा के लिए अयोग्य होना नही है. खुद की काबिलियत को पहचान कर आप वह काम  कर सकते हैं, जो आज तक किसी ने नही किया है!

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 1)

🌹 युगधर्म का परिपालन अनिवार्य
🔵 छोटे बच्चों के कपड़े किशोरों के लिए फिट नहीं बैठते और किशोरों के लिए सिलवाए गये कपड़ों से प्रौढ़ों का काम नहीं चलता। आयु वृद्धि के साथ-साथ परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। भोजन ताजा बनाने से ही काम चलता है। विद्यार्थी जैसे-तैसे कक्षा चढ़ते जाते हैं, वैसे ही वैसे उन्हें अगले पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनी पड़ती हैं। सर्दी और गर्मी के कपड़े अलग तरह के होते हैं। परिवर्तन होते चलने के साथ, तदनुकूल व्यवस्था बनाते रहना भी एक प्रकार से अनिवार्य है।

🔴 समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं। आदिम काल में मनुष्य बिना वस्त्रों के ही रहता था। मध्यकाल में धोती और दुपट्टा दो ही, बिना सिले वस्त्र काम आने लगे थे। प्रारम्भ में अनगढ़ औजारों-हथियारों से ही काम चल जाता था। मध्यकाल में भी धनुष-बाण और ढाल-तलवार ही युद्ध के प्रमुख उपकरण थे, अब आग्नेयास्त्रों के बिना काम चल ही नहीं सकता। समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं और फिर उनके समाधान खोजने पड़ते हैं।

🔵 प्राचीनकाल के वर्णाश्रम पर आधारित प्राय: सभी विभाजन बदल गये। अब उसका स्थान नई व्यवस्था ने ले लिया है। दो सौ वर्ष पुराने समय में काम आने वाली पोशाकों का अब कहीं-कहीं प्रदर्शनियों के रूप में ही अस्तित्व दीख पड़ता है। जब साइकिलें चली थीं तब अगला पहिया बहुत बड़ा और पिछला बहुत छोटा था। अब उनका दर्शन किन्हीं पुरातन प्रदर्शनियों में ही दीख पड़ता है। कुदाली से जमीन खोद कर खेती करना किसी समय खेती का प्रमुख आधार रहा होगा, पर अब तो सुधरे हुए हल ही काम आते हैं। उन्हें जानवरों या मशीनों द्वारा चलाया जाता है। लकड़ियाँ घिसकर आग पैदा करने की प्रथा मध्यकाल में थी, पर अब तो माचिस का प्रचलन हो जाने पर कोई भी उस कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाने के लिए तैयार न होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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