शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

👉 संस्कार-

🔷 बेटा तुम्हारा इन्टरव्यू लैटर आया है। मां ने लिफाफा हाथ में देते हुए कहा। यह मेरा सातवां इन्टरव्यू था। मैं जल्दी से तैयार होकर दिए गए नियत समय 9:00 बजे पहुंच गया। एक घर में ही बनाए गए ऑफिस का गेट खुला ही पड़ा था मैंने बन्द किया भीतर गया।

🔶 सामने बने कमरे में जाने से पहले ही मुझे माँ की कही बात याद आ गई बेटा भीतर आने से पहले पांव झाड़ लिया करो। फुट मैट थोड़ा आगे खिसका हुआ था मैंने सही जगह पर रखा पांव पोंछे और भीतर गया।

🔷 एक रिसेप्शनिस्ट बैठी हुई थी अपना इंटरव्यू लेटर उसे दिखाया तो उसने सामने सोफे पर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा। मैं सोफे पर बैठ गया, उसके तीनों कुशन अस्त व्यस्त पड़े थे आदत के अनुसार उन्हें ठीक किया, कमरे को सुंदर दिखाने के लिए खिड़की में कुछ गमलों में छोटे छोटे पौधे लगे हुए थे उन्हें देखने लगा एक गमला कुछ टेढ़ा रखा था, जो गिर भी सकता था माँ की व्यवस्थित रहने की आदत मुझे यहां भी आ याद आ गई, धीरे से उठा उस गमले को ठीक किया।

🔶 तभी रिसेप्शनिस्ट ने सीढ़ियों से ऊपर जाने का इशारा किया और कहा तीन नंबर कमरे में आपका इंटरव्यू है। मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा देखा दिन में भी दोनों लाइट जल रही है ऊपर चढ़कर मैंने दोनों लाइट को बंद कर दिया तीन नंबर कमरे में गया।

🔷 वहां दो लोग बैठे थे उन्होंने मुझे सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और पूछा तो आप कब ज्वाइन करेंगे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जी मैं कुछ समझा नहीं इंटरव्यू तो आप ने लिया ही नहीं।

🔶 इसमें समझने की क्या बात है हम पूछ रहे हैं कि आप कब ज्वाइन करेंगे ? वह तो आप जब कहेंगे मैं ज्वाइन कर लूंगा लेकिन आपने मेरा इंटरव्यू कब लिया वे दोनों सज्जन हंसने लगे।

🔷 उन्होंने बताया जब से तुम इस भवन में आए हो तब से तुम्हारा इंटरव्यू चल रहा है, यदि तुम दरवाजा बंद नहीं करते तो तुम्हारे 20 नंबर कम हो जाते हैं यदि तुम फुटमेट ठीक नहीं रखते और बिना पांव पौंछे आ जाते तो फिर 20 नंबर कम हो जाते, इसी तरह जब तुमने सोफे पर बैठकर उस पर रखे कुशन को व्यवस्थित किया उसके भी 20 नम्बर थे और गमले को जो तुमने ठीक किया वह भी तुम्हारे इंटरव्यू का हिस्सा था अंतिम प्रश्न के रूप में सीढ़ियों की दोनों लाइट जलाकर छोड़ी गई थी और तुमने बंद कर दी तब निश्चय हो गया कि तुम हर काम को व्यवस्थित तरीके से करते हो और इस जॉब के लिए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हो, बाहर रिसेप्शनिस्ट से अपना नियुक्ति पत्र ले लो और कल से काम पर लग जाओ।

🔶 मुझे रह रह कर माँ और बाबूजी की यह छोटी-छोटी सीखें जो उस समय बहुत बुरी लगती थी याद आ रही थी।

🔷 मैं जल्दी से घर गया मां के और बाऊजी के पांव छुए और अपने इस अनूठे इंटरव्यू का पूरा विवरण सुनाया।

🌹  इसीलिए कहते हैं कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला घर और प्रथम गुरु माता पिता है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 Nov 2017


👉 आज का सद्चिंतन 25 Nov 2017


👉 दुनिया के सारे धर्म हैं, गायत्री मंत्र में

🔶 जो धर्म प्रेम, मानवता और भाईचारे का सन्देश देने के लिए बना था, आज उसी के नाम पर हिंसा और कटुता बढ़ाई जा रही है। इसलिये आज एक ऐसे विश्व धर्म की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जो दिलों को जोडऩे वाला हो। हर धर्म में ऐसी बातें और प्रार्थनाये हैं, जो सभी धर्मों को रिप्रजेंट करती हैं। हिन्दुओं में गायत्री मन्त्र के रुप में ऐसी ही प्रार्थना है, जो हर धर्म का सार हैं।

🔷 हिन्दू – ईश्वर प्राणाधार, दु:खनाशक तथा सुख स्वरुप है । हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।

🔶 ईसाई – हे पिता! हमें परीक्षा में न डाल, परन्तु बुराई से बचा। क्योंकि राज्य, पराक्रम तथा महिमा सदा तेरी ही हैं।

🔷 इस्लाम – हे अल्लाह! हम तेरी ही वन्दना करते हैं और तुझी से सहायता चाहते हैं। हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र बने, न कि उनका, जो तेरे कोपभाजन बने तथा पथभ्रष्ट हुए।

🔶 सिख – ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है, वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, निर्वैर, जन्मरहित तथा स्वयंभू है। वह गुरु की कृपा से जाना जाता है।

🔷 यहूदी – हे जेहोवा! (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा।

🔶 शिंतो – हे परमेश्वर! हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें। परन्तु हमारे हृदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हो। हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें तो भी हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो।

🔷 पारसी – वह परम् गुरु! (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भण्डार के कारण, राजा के समान महान् है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।

🔶 दाओ! (ताओ) – "ब्रह्म" चिन्तन एवं पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही उत्तम धर्म है।

🔷 जैन – अर्हन्तों को नमस्कार! सिद्धों को नमस्कार! आचार्यों को नमस्कार! उपाध्यायों को नमस्कार! और सब साधुओं को नमस्कार!

🔶 बौद्ध धर्म – मैं बुद्ध की शरण में हूँ! मैं धर्म की शरण में हूँ! मैं संघ की शरण में हूँ!

👉 आत्मचिंतन के क्षण 25 Nov 2017

🔶 लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं, पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनाएँ हैं, उन सबकी तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरन्तर आँसुओं का अर्ध्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते उऋण होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा या नहीं, पर यदि मिला तो अपनी इस देव प्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने में कुछ उठा न रखेंगे। लोग हमें भूल सकते हैं, पर अपने किसी स्नेही को नहीं भूलेंगे।      

🔷 किसी को हमारा स्मारक बनाना हो तो वह वृक्षा लगाकर बनाया जा सकता है। वृक्षा जैसा उदार, सहिष्णु और शान्त जीवन जीने की शिक्षा हमने पाई। उन्हीं जैसा जीवनक्रम लोग अपना सकें तो बहुत है। हमारी प्रवृत्ति, जीवन विद्या और मनोभूमि का परिचय वृक्षों से अधिक और कोई नहीं दे सकता। अतएव वे ही हमोर स्मारक हो सकते हैं।

🔶 यह समय ऐसा है जैसा किसी-किसी सौभाग्यशाली के ही जीवन में आता है। कितने व्यक्ति किन्हीं महत्त्वपूर्ण अवसरों की तलाश में रहते हैं। उन्हें उच्च-स्तरीय प्रयोजनों में असाधारण भूमिका संपादित करने का सौभाग्य मिले और वे अपना जीवन धन्य बनावें। यह अवसर युग निर्माण परिवार के सदस्यों के सामने मौजूद है। उन्हें इसका समुचित सदुपयोग करना चाहिए। इस समय की उपेक्षा उन्हें चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलाती रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गुरुतत्त्व की गरिमा और महिमा (भाग 1)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! सज्जनो!!

🔶 इस संसार में कुल मिलाकर तीन शक्तियाँ हैं, तीन सिद्धियाँ हैं। इन्हीं पर हमारा सारा जीवन-व्यापार चल रहा है। लाभ सुख जो भी प्राप्त करते हैं, इन्हीं तीन शक्तियों के आधार पर हमें मिलते हैं। पहली शक्ति है श्रम की शक्ति, शरीर के भीतर की शक्ति भगवान् की दी हुई शक्ति। इससे हमें धन व यश मिलता है। जमीन पहले भी थी, अभी भी है। यह मनुष्य का श्रम है। जब वह लगा तो सोना, धातुएँ, अनाज उगलने लगी। जितना भी सफलताओं का इतिहास है, वह आदमी के श्रम की उपलब्धियों का इतिहास है। यही सांसारिक उन्नति का इतिहास है।
               
🔷 जमीन कभी ब्रह्माजी ने बनाई होगी तो ऐसी ही बनाई होगी जैसा कि चन्द्रमा है। यहाँ गड्ढा, वहाँ खड्डा, सब ओर यही। श्रम ने धरती को समतल बना दिया। नदियाँ चारों ओर उत्पात मचा देती थीं। जलप्लावन से प्रलय-सी आ जाती थी। रास्ते बन्द हो जाते थे। ब्याह-शादियाँ भी बन्द हो जाती थीं, उन चार महीनों में जिन्हें चातुर्मास कहा जाता है सुना होगा आपने नाम। आदमी जहाँ थे, वहीं कैद हो जाते थे। यह आदमी का श्रम है, आदमी की मशक्कत है कि आदमी ने पुल बनाए, नाव बनाई, बाँध बनाये। अब वह बन्धन नहीं रहा। सारी मानव जाति श्रम पर टिकी है। आदमी का श्रम, जिसकी हम अवज्ञा करते हैं। दौलत हमेशा आदमी के पसीने से निकलती है। आपको सम्पदा के लिए कहीं गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने की जरूरत नहीं है। एक ही देवता है—श्रम का देवता। वही देवता आपको दौलत दिला सकता है। उसी की आपको आराधना-उपासना करनी चाहिए।
  
🔶 माना कि आपके बाप ने कमाकर रख दिया है, पर बिना श्रम के उसकी रखवाली नहीं हो सकती। श्रम कमाता भी है, दौलत की रखवाली भी कर सकता है। हम श्रम का महत्त्व समझ सकें, उसे नियोजित कर सकें तो हम निहाल हो सकते हैं। मात्र सम्पत्तिवान-समृद्ध ही नहीं, हम अन्यान्य दौलत के भी अधिकारी हो सकते हैं। सेहत, मजबूती श्रम से ही आती है। शिक्षा, कला-कौशल शालीनता, लोक-व्यवहार में पारंगतता श्रम से ही प्राप्त होती है। बेईमानी से, चालाकी से आदमी दौलत की छीन-झपट मात्र कर सकता है, पर उसे कमा नहीं सकता। आप यदि फसल बोना चाह रहे हैं तो बीज बोइए। यदि चालाकी करें, बीज खा जाएँ तो कुछ नहीं होने वाला। हर आदमी को ईमानदारी से श्रम किए जाने की, मशक्कत की कीमत समझाइए। सम्पदा अभीष्ट हो, विनिमय करना चाहते हो तो कहिए श्रमरूपी पूँजी अपने पास रखें। उसका सही नियोजन करिए। यह है दौलत नम्बर एक।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 Evolution –– The Inherent Urge of Life

🔶 Every living being has a natural urge to find its original source in a higher, evolved and enlightened state. This subliminal impulse of inner consciousness is what generates the natural cycle of progressive evolution of consciousness through ascending order of life forms. A seed grows into a tree which fructifies in the developed state and gives rise to its origin –– the seed.  A child’s inner desire is inclined towards becoming a fully grown up man.  The force of evolution in human life manifests as quest of human mind, through its curiosity to know and interact with its surroundings, with the systems, and mechanisms of his personal and social life, and its wonderstruck appreciation of the beauty and mystery of Nature.

🔷 The perception of Nature works like a mirror for the human mind. It tries to seek and visualize its evolved states in the ever-new expressions of Nature.  This is how it acquires knowledge and experience and endeavors for further progress.

🔶 Life in the unlimited expansion of the universe manifests itself in progressive and dynamic states of consciousness. Rigidity, backwardness, complacency and self-centeredness are against the laws of evolution. Evolution is a perpetually progressive manifestation of Divine Consciousness. The dimensions of the gradual evolution in human life are much wider and have their higher horizons rooted in the sublime realms of divine consciousness.  These emanate from the aspiration of the soul to awaken and unite with its Supreme Source.  Spiritual transmutation is a progressive evolution of consciousness towards this ultimate goal.   

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 158)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 जीवन की बहुमुखी समस्याओं का समाधान, प्रगति पथ पर अग्रसर होने के रहस्य भरे तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त इसी अवधि में भाषण, कला, सुगम-संगीत, जड़ी-बूटी उपचार, पौरोहित्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, गृह-उद्योगों का सूत्र संचालन भी सम्मिलित रखा गया है ताकि उससे परोक्ष और प्रत्यक्ष लाभ अपने तथा दूसरों के लिए उपलब्ध किया जा सके।

🔶 अनुमान है कि अगले १४ वर्षों में एक लाख छात्रों के उपरोक्त प्रशिक्षण पर भारी व्यय होगा। प्रायः एक करोड़ भोजन व्यय में ही चला जाएगा। इमारत की नई रद्दोबदल, फर्नीचर, बिजली आदि के जो नए खर्च बढ़ेंगे, वे भी इससे कम न होंगे। आशा की गई है कि बिना याचना किए भारी खर्च को वहन कर अब तक निभा व्रत आगे भी निभता रहेगा और यह संकल्प भी पूरा होकर रहेगा। २५ लाख का इस उच्चस्तरीय शिक्षण में सम्मिलित होना तनिक भी कठिन नहीं, किन्तु फिर भी प्रतिभावानों को प्राथमिकता देने की जाँच-पड़ताल करनी पड़ी है और प्रवेशार्थियों से उनका सुविस्तृत परिचय पूछा गया है।

🔷 ३-एक लाख अशोक वृक्षों का वृक्षारोपणः वृक्षारोपण का महत्त्व सर्वविदित है। बादलों से वर्षा खींचना, भूमि-कटाव रोकना, भूमि की उर्वरता बढ़ाना, प्राणवायु का वितरण, प्रदूषण का अवशोषण, छाया, प्राणियों का आश्रय, इमारती लकड़ी, ईंधन आदि अनेकों लाभ वृक्षों के कारण इस धरती को प्राप्त होते हैं। धार्मिक और भौतिक दृष्टि से वृक्षारोपण को एक उच्चकोटि का पुण्य परमार्थ माना गया है।

🔶 वृक्षों में अशोक का अपना विशेष महत्त्व है, इसका गुणगान सम्राट अशोक जैसा किया जा सकता है। सीता को आश्रय अशोक वाटिका में ही मिला था। हनुमान जी ने भी उसी के पल्लवों में आश्रय लिया था। आयुर्वेद में यह महिला रोगों की अचूक औषधि कहा गया है। पुरुषों की बलिष्ठता और प्रखरता बढ़ाने की उसमें विशेष शक्ति है। साधना के लिए अशोक वन के नीचे रहा जा सकता है। शोभा तो उसकी असाधारण है ही। यदि अशोक के गुण सर्वसाधारण को समझाए जाएँ तो हर व्यक्ति का अशोक वाटिका बना सकना न सही पर घर-आँगन, अड़ोस-पड़ोस में उसके कुछ पेड़ तो लगाने और पोसने में समर्थ हो ही सकते हैं।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.181

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 अद्भुत सहनशीलता

🔷 बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान विश्वनाथ शास्त्री एक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विरोधी पक्ष उनके प्रचण्ड वर्क और प्रमाणों के सामने लड़खड़ाने लगा और उसे अपनी हार होती दिखाई देने लगी।

🔶 विरोधियों ने शास्त्री जी को क्रोध दिलाकर झगड़ा खड़ा कर देने और शास्त्रार्थ को अंगर्णित रहने देने के लिए एक चाल चली। उनने सुँघनी तमाखू की एक मुठ्ठी शास्त्री जी ने मुँह पर फेंक मारी जिससे उन्हें बहुत छींक आई और परेशानी भी हुई।

🔷 शास्त्री जी बड़े धैर्यवान थे, उनने हाथ मुँह धोया। तमाखू का असर दूर किया और शान्त भाव से मुसकराते हुए कहा- हाँ, सज्जनों यह प्रसंग से बाहर की बात बीच में आ गई थी, अब आइए मूल विषय पर आवें और आगे का विचार विनिमय जारी रखो।

🔶 शास्त्री जी की इस अद्भुत सहनशीलता को देखकर विरोधी चकित रह गये। उनने अपनी हार स्वीकार कर ली।

🔷 मनुष्य का एक बहुत ही उच्चकोटि का गुण सहनशीलता है। जो दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये जाने पर भी विक्षुब्ध नहीं होते और अपनी मनः स्थिति को संतुलित बनाये रखते हैं वस्तुतः वे ही महापुरुष है। ऐसे ही लोगों का विवेक निर्मल रहता है।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 भविष्य अज्ञात है...

🔷 मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं–तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?

🔶 उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं– छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।

🔷 मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।

🔶 इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है। देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा? उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने- पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।

🔷 उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी- चिल्लायी। और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।

🔶 देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के कपड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों कश्रो,नंंक्या घट रहा है!

🔷 जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा। एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे। लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए? देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।

🔶 भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर पर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं। लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।

🔷 दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं। तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।

🔶 और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया। अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो
रहा है।

🔷 देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।

🔶 तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।


🌹  टालस्टाय 

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 Nov 2017


👉 आज का सद्चिंतन 24 Nov 2017


👉 आत्मचिंतन के क्षण 24 Nov 2017

🔶 हम अपने परिजनों से लड़ते-झगड़ते भी रहते हैं और अधिक काम करने के लिए उन्हें भला-बुरा भी कहते रहते हैं, पर यह सब इस विश्वास के कारण ही करते हैं कि उनमें पूर्वजन्मों के महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक संस्कार विद्यमान हैं, आज वे प्रसुप्त पड़े हैं, पर उन्हें झकझोरा जाय तो जगाया जा सकना असंभव नहीं। कटु प्रतीत होने वाली भाषा में और अप्रिय लगने वाले शब्दों में हम अक्सर परिजनों का अग्रगामी उद्बोधन करते रहते हैं। इस संदर्भ में रोष या तिरस्कार मन में नहीं रहता, वरन् आत्मीयता और अधिकार की भावना ही काम करती रहती है।     

🔷 आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार की दिशा में जिनकी रुचि नहीं बढ़ी और लोकमंगल के लिए त्याग, बलिदान करने के लिए जिनमें कोई उत्साह पैदा नहीं हुआ मात्र पूजा-पाठ, तिलक-छापे और कर्मकाण्ड तक सीमित रह जाये ऐसे निर्जीव आध्यात्मिकता को देखते हैं तो इतना ही सोचते हैं बेचारा कुमार्गगामी कार्यों से बचकर इस गोरखधंधे में लग गया तो कुछ अच्छा ही है। अच्छाई का नाटक भी अच्छा, पर काम तो इतने मात्र से चलता नहीं। प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता तो वह है जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।

🔶 हम चाहते हैं कि हमारे प्रत्येक परिजन के अंतःकरण में लोकसेवा को मानव जीवन का एक अनिवार्य कर्त्तव्य मानने की निष्ठा जम जाये। उनमें इतना सत्साहस जाग पड़े कि वह थोड़ा श्रम और थोड़ा धन नियमित रूप से उस प्रयोजन के लिए लगाने का निश्चय करे और उस निश्चय को दृढ़ता एवं भावनापूर्वक निबाहें। यदि इतना हो जाता तो गायत्री परिवार के गठन के पीछे हमारे श्रम, त्याग और उमड़ते हुए भावों की सार्थकता प्रमाणित हो जाती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 युग-मनीषा जागे, तो क्रान्ति हो (अन्तिम भाग)

🔶 मित्रो! मैं कह रहा था दर्शन की बात। दर्शन जिसको जन्म देती है, वह है—मनीषा। मनीषा को हम ऋतम्भरा—प्रज्ञा कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में हम इसे गायत्री कह सकते हैं। श्रेष्ठ चिन्तन करने वाले के समूह का नाम है मनीषा। इस मनीषा का हम आह्वान करते हैं, उसकी पूजा करते हैं। मनीषा माँ है। माँ क्या करती है? माँ बच्चे के लिए समय-समय पर जरूरत की चीजें बनाकर खिलाती है, उसे छाती का दूध पिलाती है? हजम कर सके, ऐसी खुराक बनाकर देती है माँ। मनीषा वह है जो युग की आवश्यकताओं, समय की आवश्यकताओं, इनसान की आवश्यकताओं की तलाशती रहती है, समझती है व वैसी ही खुराक दर्शन की देती है, जिसकी जरूरत है। युग की मनीषा ध्यान रखती है कि आज के समय की जरूरत क्या है? पुराने समय का वह ढोल नहीं बजाती।
              
🔷 वह युग को समझती है, देश को समझती है और परिस्थितियों के अनुरूप युग को ढालने की कोशिश करती है, आस्थाओं से रहित हैवानी के गुलाम इनसान को आदमी बनाती है, उसे ऊँचा उठना सिखाती है व उसके घरों में स्वर्गीय परिस्थितियाँ पैदा करती हैं। ऐसी ही मनीषा का मैं आह्वान करता हूँ व कहता हूँ कि आप में से जो भी यह सेव कर सकें, वह स्वयं को धन्य बना लेगा, अपना जीवन सार्थक कर लेगा। आज बुद्धिवाद ही चारों ओर छाया है। ‘नो गॉड, नो सोल’ की बात कहता जमाना दीखता है। ये किसकी बात है? नास्तिकों की, वैज्ञानिकों की, बुद्धिवादों की। इन्होंने फिजाँ बिगाड़ी है? नहीं इनसे ज्यादा उन धार्मिकों ने, पण्डितों ने, बाबाजियों ने बिगाड़ी है जो उपदेश तो धर्म का देते हैं पर जीवनक्रम में उनके कहीं धर्म का राई-रत्ती भी नहीं है।
 
🔶 पुजारी की खुराफात देवी को सुना दें तो देवी शर्मिन्दा हो जाए। धर्म को व विज्ञान को सबको ठीक करना होगा मित्रो! और वह काम करेगी मनीषा। कुम्भ नहाइए बैकुण्ठ को जाइए, यह कौन-सा धर्म है? ऐसे धर्म को बदलना होगा व विज्ञान द्वारा दिग्भ्रान्त की जा रही पीढ़ी को भी मनीषा को ही मार्गदर्शन देना होगा। आपको युग की जरूरतें पूरी करनी चाहिए। आदमी के भीतर की आस्थाएँ कमजोर हो गई हैं, उन्हें ठीक करना चाहिए। आज की भाषा में बात कीजिए व लोगों का समाधान कीजिए। विज्ञान की भाषा में, नीति की, धर्म की, सदाचार की, आस्था की बात कीजिए व सबका मार्गदर्शन करिए। बताइए सबको कि आदर्शों ने सदैव जीवन में उतारने के बाद फायदा ही पहुँचाया है, नुकसान किसी का नहीं किया।

🔷 अब्राहम लिंकन ने बीच मेज पर खड़ा करके कहा था यह स्टो है। इसने अमेरिका के माथे पर लगा कलंक हटा दिया। आप क्या करना चाहते हैं? हम भारतीय संस्कृति को मेज पर खड़ा करके यह कहना चाहते हैं कि यह वह संस्कृति है जिसने दुनिया का कायाकल्प कर दिया। आज भी यह पूरी तरह से मार्गदर्शन देने में सक्षम है। मनीषी इसने ही पैदा किए। यदि मनीषी जाग जाएँ तो देश, समाज, संस्कृति सारे विश्व का कल्याण होगा। भगवान् करे, मनीषा जगे, जागे, जगाए व जमाना बदले। हमारा यह संकल्प है वह हम इसे करेंगे। आपको जुड़ने के लिए आमन्त्रित करते हैं। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति।

🌹  समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 Transformation of Ashok, Angulimal and Shraddhananda

🔶 The Divine blessing comes in the form of a motivation for following the noble path. The blessing manifests itself in the form of a radical transformation in a persons, nature, likings, and attitudes.

🔷 Emperor Ashok conquered the great kingdom of Kalinga at the cost of large scale violence. The success obtained through bloodshed and destruction did not give him peace of mind. Buddha's preaching transformed Ashok totally. From a blood-thirsty lusty king he became the messenger of love and peace and donated all his wealth for the mission of spreading the spiritual way of life.

🔶 Angulimal was a cruel dacoit, who used to rob people, cut off their fingers and wore garlands made of his victims' fingers. When Budha's divine love showered upon him, there was an amazing change. Angulimal became Buddha's disciple and devoted himself to the cause of spreading spirituality.

🔷 As a youth Swami Shraddhananda was following the dirty path of promiscuity. He was also addicted to gambling, alcohol and meat. He was a spoilt son of a police officer. One night he returned home very late from a prostitute and started vomiting. His wife was a very pious lady. She washed him, changed his clothes and put him to bed. When he woke up he asked her, "Did you have your dinner?" The pious wife replied, "As my husband I see the image of God in you. How can I eat without offering you dinner first?" This incident shook him from inside, that night he completely transformed and eventually became a great divine leader of the Arya Samaj.

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 157)

🌹  जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

🔷 युगसंधि सन् २००० तक है। अभी उसमें प्रायः १४ वर्ष हैं। हर साल इतने जन्मदिन भी मनाए जाते रहें तो १ लाख कार्यकर्ताओं के जन्मदिन १ लाख यज्ञों में होते रहेंगे। देखा-देखी इसका विस्तार होता चले, तो हर वर्ष कई लाख यज्ञ और कई करोड़ आहुतियाँ हो सकती हैं। इससे वायुमण्डल और वातावरण दोनों का ही संशोधन होगा, साथ ही जनमानस का परिष्कार करने वाली अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ इन अवसरों पर लिए गए अंशदान, समयदान संकल्प के आधार पर सुविकसित होती चलेंगी।

🔶 २-एक लाख को संजीवनी विद्या का प्रशिक्षणः शान्तिकुञ्ज की नई व्यवस्था इस प्रकार की जानी है कि जिसमें ५०० आसानी से और १००० ठूँस-ठूँस कर नियमित रूप से शिक्षार्थियों का प्रशिक्षण होता रह सकता है। इस प्रशिक्षण में व्यक्ति का निखार, प्रतिभा का उभार, परिवार सुसंस्कारिता, समाज में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन जैसे महत्त्वपूर्ण पाठ नियमित पढ़ाए जाएँगे। आशा की गई है कि इस स्वल्प अवधि में भी जो पाठ्यक्रम हृदयंगम कराया जाएगा, जो प्राण-प्रेरणा भरी जाएगी वह प्रायः ऐसी होगी जिसे साधना का, तत्त्वज्ञान का सार कह सकते हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस संजीवनी विद्या को जो साथ लेकर वापिस लौटेंगे, वे अपना काया-कल्प अनुभव करेंगे और साथ ही ऐसी लोक नेतृत्त्व क्षमता सम्पादित करेंगे, जो हर क्षेत्र में हर कदम पर सफलता प्रदान कर सके। यह प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में पाँच सूत्री योजना का संचालन एवं प्रशिक्षण करेंगे।

🔷 मिशन की पत्रिकाओं के पाठक तो ग्राहकों की तुलना में पाँच गुने अधिक हैं। पत्रिका न्यूनतम पाँच व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है। इसी प्रकार प्रज्ञा परिवार की संख्या प्रायः २४-२५ लाख हो जाती है। इनमें नर-नारी शिक्षित वर्ग के हैं। सभी को इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया है। २५ पीछे एक विद्यार्थी मिले तो उनकी संख्या एक लाख हो जाती है। युग संधि की अवधि में इतने शिक्षार्थी विशेष रूप से लाभ उठा चुके होंगे। इन्हें मात्र स्कूली विद्यार्थी नहीं माना जाना चाहिए, वरन् जिस उच्चस्तरीय ज्ञान को सीखकर वे लौटेंगे उससे यह आशा कि जा सकती है कि उनका व्यक्तित्व महामानव स्तर का युग नेतृत्त्व की प्रतिभा से भरा-पूरा होगा।

🔶 वह शिक्षण मई १९८६ से आरम्भ हुआ है। उसकी विशेषता यह है कि शिक्षार्थियों के लिए निवास, प्रशिक्षण की तरह भोजन भी निःशुल्क है। इस मद में स्वेच्छा से कोई कुछ दे तो अस्वीकार भी नहीं किया जाता, पर गरीब-अमीर का भेद करने वाली शुल्क परिपाटी को इस प्रशिक्षण में प्रवेश नहीं करने दिया गया है। अभिभावक और अध्यापक की दुहरी भूमिका प्राचीनकाल के विद्यालय निभाया करते थे, इस प्रयोग को भी उसी प्राचीन विद्यालय प्रणाली का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।

🌹  क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.180

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

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