महानता का भाव स्वयं एक आत्महीनता की ग्रन्थि का परिणाम है। जब किसी प्रकार के आचरण से मनुष्य को आत्मग्लानि हो जाती है तो वह उस वासना का दमन करता है, जो आत्मग्लानि का कारण बनती है। दमन होने के कारण मनुष्य में दो प्रकार का व्यक्तित्व स्थापित हो जाता है। एक तरफ वह चेतन मन में महान नैतिक व्यक्ति बन जाता है और दूसरी ओर उसके अचेतन मन में अवरोधित भावनाओं की प्रबलता हो जाती है। जितना ही अनैतिक वासना का दमन होता है वह और भी प्रबल होती है और जितना ही वह प्रबल होती है उतनी नैतिक भावना को प्रबल होना पड़ता है। इस तरह नैतिकता की असाधारण प्रबलता व्यक्ति के अचेतन मन में विरुद्ध भावना की प्रबलता दर्शाती है। जो प्राकृतिक वासना सामान्य रहती है और व्यक्ति के जीवन के विकास के लिये शक्ति प्रदान कर सकती है, वह दलित होने पर विशेष रूप से दुष्ट और हानिकारक बन जाता है। इस प्रकार महत्वाकाँक्षा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको ही अपना शत्रु बना लेता है। यदि वह अकेला छूट जाये तो वह अपना समय आत्म-भर्त्सना में ही व्यतीत करेगा। वह किसी न किसी काम के लिये अपने आपको कोसता रहेगा।
पर इस प्रकार की मनोवृत्ति अधिक स्थायी नहीं होती। इसके स्थायी होने से विक्षिप्तता आ जाती है। अतएव वह अपनी आन्तरिक स्थिति को भूला देता है और अपने शत्रुओं को अपने से बाहर खोज निकालता है, अर्थात् उसके आत्म शत्रुता के भाव बाहरी किसी व्यक्ति के ऊपर आरोपित हो जाते हैं और वह अपने शत्रुओं को अपने भीतर न देखकर अपने बाहर देखने लगता है। इस तरह मनुष्य का मन अपने आपको भुलावा देता है।
जो व्यक्ति जितना ही अपने आप से घृणा करता है, वह अपने आपका शत्रु है। वह बाहर भी घृणा करने के लिये उपयुक्त पात्र लेता है और ठीक शत्रु की खोज कर लेता है। वह उन्हीं दोषों को उनमें पाता है जो स्वयं उसके अचेतन मन में वर्तमान हैं और जिनके कारण वह अपने आप से घृणा करता है। बहुत से लोग किसी व्यक्ति से घृणा नहीं करते वरन् उनके कुछ दोषों से घृणा करते हैं। यदि इन दोषों को देखा जाय तो वे वही निकलेंगे जो स्वयं उसके मन में हैं और जिनको नष्ट करने की वह असफल चेष्टा कर चुका है। जो व्यक्ति अपने आपको जीतने में असफल रहता है वह अपने से बाहर किसी व्यक्ति को अथवा उसकी बुराइयों को जीतने का प्रयत्न करता है। उसकी असाधारणता ही उसकी असफलता का प्रमाण है। जब मनुष्य अपने आप पर विजय प्राप्त कर लेता है तो उसके जीवन में सहज भाव आ जाता है। वह बाहर से साधारण व्यक्ति हो जाता है।
जब तक मनुष्य अपने आपका शत्रु बना हुआ है, वह चाहे जितना ही सब का मित्र बनने का प्रयत्न क्यों न करे अथवा अपने शत्रुओं को विनाश करने की चेष्टा क्यों न करे, शत्रुओं को पा ही लेगा। उसकी इच्छा के प्रतिकूल संसार में लोग उसके शत्रु बन जायेंगे। उसका सारा जीवन इन्हीं शत्रुओं से लड़ने में व्यतीत होगा। उसे बाहरी चिन्ताऐं सताती रहेंगी। जब मानसिक अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति में बाहरी शत्रु नहीं भी रहता तो उसे काल्पनिक शत्रु अथवा उसके विचार से ही उसे भय होने लगता है। कोई भी अवाँछनीय विचार मन में घुस जाता है और फिर निकालने से नहीं निकलता। इतना ही नहीं जितना ही उसे निकालने का प्रयत्न किया जाता है वह और भी प्रबल हो जाता है। ये बाहरी शत्रु अथवा बाध्य-विचार आन्तरिक दलित भावनाओं के, जिन्हें व्यक्ति ने अपना शत्रु बना रखा है, प्रतीक मात्र हैं। इस प्रकार की स्थिति का अन्त करने के लिये आत्म मैत्री का भाव स्थापित करना आवश्यक है।
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 11
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