रविवार, 27 नवंबर 2016
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 41)
🌞 चौथा अध्याय
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत्।
'संसार में जितना भी कुछ है वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।'
🔴 पिछले अध्यायों में आत्म-स्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्न किया गया है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बताने का प्रयत्न किया जायेगा। अब तक जिज्ञासु 'अहम्' का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वह उससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत् तत्व परमेश्वर का ही अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।
🔵 तुम्हें अब इस तरह अनुभव करना चाहिए कि 'मैं' अब तक अपने को जितना समझता हूँ उससे कई गुना बड़ा हूँ। 'अहम्' की सीमा समस्त ब्रह्माण्डों के छोर तक पहुँचती है। वह परमात्म शक्ति की सत्ता में समाया हुआ है और उसी से इस प्रकार पोषण ले रहा है, जैसे गर्भस्थ बालक अपनी माता के शरीर से। वह परमात्मा का निज तत्त्व है। तुम्हें आत्मा परमात्मा की एकता का अनुभव करना होगा और क्रमशः अपनी अहन्ता को बढ़ाकर अत्यन्त महान् कर देने को अभ्यास में लाना होगा। तब उस चेतना में जग सकोगे, जहाँ पहुँच कर योग के आचार्य कहते हैं 'सोहम्'।
🔴 आइए, अब इसी अभ्यास की यात्रा आरम्भ करें। अपने चारों ओर दूर तक नजर फैलाओ और अन्तर नेत्रों से जितनी दूरी तक के पदार्थों को देख सकते हो देखो, प्रतीत होगा कि एक महान् विश्व चारों ओर बहुत दूर, बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह विश्व केवल ऐसा ही नहीं है जैसा मोटे तौर पर समझा जाता है, वरन् यह एक चेतना का समुद्र है। प्रत्येक परमाणु आकाश एवं ईथर तत्त्व में बराबर गति करता हुआ आगे को बह रहा है। शरीर के तत्त्व हर घड़ी बदल रहे हैं। आज जो रासायनिक पदार्थ एक वनस्पत्ति में है, वह कल भोजन द्वारा हमारे शरीर में पहुँचेगा और परसों मल रूप में निकलकर अन्य जीवों के शरीर का अंग बन जाएगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत्।
'संसार में जितना भी कुछ है वह सब ईश्वर से ओत-प्रोत है।'
🔴 पिछले अध्यायों में आत्म-स्वरूप और उसके आवरणों से जिज्ञासुओं को परिचित कराने का प्रयत्न किया गया है। इस अध्याय में आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बताने का प्रयत्न किया जायेगा। अब तक जिज्ञासु 'अहम्' का जो रूप समझ सके हैं, वास्तव में वह उससे कहीं अधिक है। विश्वव्यापी आत्मा परमात्मा, महत् तत्व परमेश्वर का ही अंश है। तत्त्वतः उसमें कोई भिन्नता नहीं है।
🔵 तुम्हें अब इस तरह अनुभव करना चाहिए कि 'मैं' अब तक अपने को जितना समझता हूँ उससे कई गुना बड़ा हूँ। 'अहम्' की सीमा समस्त ब्रह्माण्डों के छोर तक पहुँचती है। वह परमात्म शक्ति की सत्ता में समाया हुआ है और उसी से इस प्रकार पोषण ले रहा है, जैसे गर्भस्थ बालक अपनी माता के शरीर से। वह परमात्मा का निज तत्त्व है। तुम्हें आत्मा परमात्मा की एकता का अनुभव करना होगा और क्रमशः अपनी अहन्ता को बढ़ाकर अत्यन्त महान् कर देने को अभ्यास में लाना होगा। तब उस चेतना में जग सकोगे, जहाँ पहुँच कर योग के आचार्य कहते हैं 'सोहम्'।
🔴 आइए, अब इसी अभ्यास की यात्रा आरम्भ करें। अपने चारों ओर दूर तक नजर फैलाओ और अन्तर नेत्रों से जितनी दूरी तक के पदार्थों को देख सकते हो देखो, प्रतीत होगा कि एक महान् विश्व चारों ओर बहुत दूर, बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह विश्व केवल ऐसा ही नहीं है जैसा मोटे तौर पर समझा जाता है, वरन् यह एक चेतना का समुद्र है। प्रत्येक परमाणु आकाश एवं ईथर तत्त्व में बराबर गति करता हुआ आगे को बह रहा है। शरीर के तत्त्व हर घड़ी बदल रहे हैं। आज जो रासायनिक पदार्थ एक वनस्पत्ति में है, वह कल भोजन द्वारा हमारे शरीर में पहुँचेगा और परसों मल रूप में निकलकर अन्य जीवों के शरीर का अंग बन जाएगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 17) 28 Nov
🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*
🔵 विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन कहा जा सकता है। सत्य को नारायण कहा गया है, भगवान का सर्वाधिक सारगर्भित नाम सत्यनारायण है। यथार्थता के हम जितने अधिक निकट पहुंचते हैं भगवान के सान्निध्य का, उसके दर्शन का उतना ही लाभ लेते हैं। हीरा पेड़ों पर फूल की तरह लटका नहीं मिलता, वह कोयले की गहरी खदानें खोदकर निकालना पड़ता है। सत्य किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता, उसे विवेक की कुदाली से खोदकर निकालना पड़ता है।
🔴 दूध और पानी के अलग कर देने की आदत हंस में बताई जाती है। इस कथन में तो अलंकार मात्र है, पर यह सत्य है कि विवेक रूपी हंसवृत्ति उचित और अनुचित के चालू सम्मिश्रण में से यथार्थता को ढूंढ़ निकालती है और उस पर चढ़े हुए कलेवर को उतार फेंकती है।
शरीर की आंतरिक स्थिति का सामान्यतः कुछ भी पता नहीं चलता, पर रक्त ‘एक्सरे’ मल-मूत्र आदि के परीक्षण से उसे जाना जाता है। सत्य और असत्य का विश्लेषण करने के लिए विवेक ही एकमात्र परीक्षा का आधार है। मात्र मान्यताओं, परम्पराओं, शास्त्रीय आप्त वचनों से वस्तुस्थिति को जान सकना अशक्य है।
🔵 धर्मक्षेत्र का पर्यवेक्षण किया जाये तो पता चलता है कि संसार में हजारों धर्म सम्प्रदाय मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उनकी मान्यतायें एवं परम्परायें एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं, नैतिकता के थोड़े से सिद्धान्तों पर आंशिक रूप से वे जरूर सहमत होते हैं बाकी सृष्टि के इतिहास से लेकर ईश्वर की आकृति-प्रकृति अन्त उपासना तक के सभी प्रतिपादनों में घोर मतभेद है। प्रथा परम्पराओं के सम्बन्ध में कोई तालमेल नहीं, ऐसी दशा में किस शास्त्र को, किस अवतार को सही माना जाय—यह निर्णय नहीं हो सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र साधन कहा जा सकता है। सत्य को नारायण कहा गया है, भगवान का सर्वाधिक सारगर्भित नाम सत्यनारायण है। यथार्थता के हम जितने अधिक निकट पहुंचते हैं भगवान के सान्निध्य का, उसके दर्शन का उतना ही लाभ लेते हैं। हीरा पेड़ों पर फूल की तरह लटका नहीं मिलता, वह कोयले की गहरी खदानें खोदकर निकालना पड़ता है। सत्य किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता, उसे विवेक की कुदाली से खोदकर निकालना पड़ता है।
🔴 दूध और पानी के अलग कर देने की आदत हंस में बताई जाती है। इस कथन में तो अलंकार मात्र है, पर यह सत्य है कि विवेक रूपी हंसवृत्ति उचित और अनुचित के चालू सम्मिश्रण में से यथार्थता को ढूंढ़ निकालती है और उस पर चढ़े हुए कलेवर को उतार फेंकती है।
शरीर की आंतरिक स्थिति का सामान्यतः कुछ भी पता नहीं चलता, पर रक्त ‘एक्सरे’ मल-मूत्र आदि के परीक्षण से उसे जाना जाता है। सत्य और असत्य का विश्लेषण करने के लिए विवेक ही एकमात्र परीक्षा का आधार है। मात्र मान्यताओं, परम्पराओं, शास्त्रीय आप्त वचनों से वस्तुस्थिति को जान सकना अशक्य है।
🔵 धर्मक्षेत्र का पर्यवेक्षण किया जाये तो पता चलता है कि संसार में हजारों धर्म सम्प्रदाय मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उनकी मान्यतायें एवं परम्परायें एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं, नैतिकता के थोड़े से सिद्धान्तों पर आंशिक रूप से वे जरूर सहमत होते हैं बाकी सृष्टि के इतिहास से लेकर ईश्वर की आकृति-प्रकृति अन्त उपासना तक के सभी प्रतिपादनों में घोर मतभेद है। प्रथा परम्पराओं के सम्बन्ध में कोई तालमेल नहीं, ऐसी दशा में किस शास्त्र को, किस अवतार को सही माना जाय—यह निर्णय नहीं हो सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 गृहस्थ-योग (भाग 17) 28 Nov
🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*
🔵 वास्तविक बात यह है कि आत्मसाधना में जो विक्षेप पैदा होता है उसका कारण अपनी कुवासना, संकीर्णता, तुच्छता अनुदारता, और स्वार्थपरता है। यह दुर्भाव ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास जिस भी आश्रम में रहेंगे उसे ही पाप मय बना देंगे। इसके विपरीत यदि अपने मन में त्याग, सेवा, सत्यता, सृजनता, एवं उदारता की भावनाएं विद्यमान हों तो कोई भी आश्रम स्वर्ग दायक, मुक्ति प्रद, परम पद पा जाने वाला, हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को अपने मनी, वानप्र इस भ्रम को पूर्णतया बहिष्कृत कर देना चाहिए कि गृहस्थाश्रम कोई छोटा या गिराने वाला धर्म है। यदि समुचित रीति से उसका पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य या संन्यास की तरह वह भी सिद्धिदाता प्रमाणित हो सकता है।
🔴 गृहस्थ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है। स्त्री और पुरुष के एकत्रित होने से दो अपूर्ण जीवन एक पूर्ण जीवन का रूप धारण करते हैं। पक्षी के दो पंखों की तरह, रथ के दो पहियों की तरह, स्त्री और पुरुष का मिलन एक दृढ़ता एवं स्थिरता की सृष्टि करता है। शारीरिक और मानसिक तत्व के आचार्य जानते हैं कि कुछ तत्वों की पुरुष में अधिकता और स्त्री में न्यूनता होती है इसी प्रकार कुछ तत्व स्त्री में अधिक और पुरुष में कम होते हैं। इस अभाव की पूर्ति दोनों के सहचरत्व से होती है। स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति जो असाधारण आकर्षण होता है उसका कारण वही क्षति पूर्ति है। मन की सूक्ष्म चेतना अपनी क्षति पूर्ति के उपयुक्त साधनों को प्राप्त करने के लिए विचलित होता है तब उसे संयोग की अभिलाषा कहा जाता है। अंध और पंगु मिलकर देखने और चलने के लाभों को प्राप्त कर लेते हैं ऐसे ही लाभ एक दूसरे की सहायता से दम्पत्ति को भी मिल जाते हैं।
🔵 मूलतः न तो पुरुष बुरा है न स्त्री। दोनों ही ईश्वर की पवित्र कृतियां है। दोनों में ही आत्मा का निर्मल प्रकाश जगमगाता है। पुरुष का कार्यक्षेत्र घर से बाहर रहने के कारण उसकी बाह्य योग्यतायें विकसित हो गई हैं वह बलवान, प्रभाव शाली, कमाऊ और चतुर दिखाई देता है, पर इसके साथ साथ ही आत्मिक सद्गुणों को इस बाह्य संघर्ष के कारण उसने बहुत कुछ खो दिया है। सरलता, सरसता, वफादारी, आत्म-त्याग, दयालुता, प्रेम तथा वात्सल्य की वृत्तियां आज भी स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक देखी जाती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 वास्तविक बात यह है कि आत्मसाधना में जो विक्षेप पैदा होता है उसका कारण अपनी कुवासना, संकीर्णता, तुच्छता अनुदारता, और स्वार्थपरता है। यह दुर्भाव ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यास जिस भी आश्रम में रहेंगे उसे ही पाप मय बना देंगे। इसके विपरीत यदि अपने मन में त्याग, सेवा, सत्यता, सृजनता, एवं उदारता की भावनाएं विद्यमान हों तो कोई भी आश्रम स्वर्ग दायक, मुक्ति प्रद, परम पद पा जाने वाला, हो सकता है। आध्यात्मिक साधकों को अपने मनी, वानप्र इस भ्रम को पूर्णतया बहिष्कृत कर देना चाहिए कि गृहस्थाश्रम कोई छोटा या गिराने वाला धर्म है। यदि समुचित रीति से उसका पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य या संन्यास की तरह वह भी सिद्धिदाता प्रमाणित हो सकता है।
🔴 गृहस्थ धर्म जीवन का एक पुनीत, आवश्यक एवं उपयोगी अनुष्ठान है। स्त्री और पुरुष के एकत्रित होने से दो अपूर्ण जीवन एक पूर्ण जीवन का रूप धारण करते हैं। पक्षी के दो पंखों की तरह, रथ के दो पहियों की तरह, स्त्री और पुरुष का मिलन एक दृढ़ता एवं स्थिरता की सृष्टि करता है। शारीरिक और मानसिक तत्व के आचार्य जानते हैं कि कुछ तत्वों की पुरुष में अधिकता और स्त्री में न्यूनता होती है इसी प्रकार कुछ तत्व स्त्री में अधिक और पुरुष में कम होते हैं। इस अभाव की पूर्ति दोनों के सहचरत्व से होती है। स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति जो असाधारण आकर्षण होता है उसका कारण वही क्षति पूर्ति है। मन की सूक्ष्म चेतना अपनी क्षति पूर्ति के उपयुक्त साधनों को प्राप्त करने के लिए विचलित होता है तब उसे संयोग की अभिलाषा कहा जाता है। अंध और पंगु मिलकर देखने और चलने के लाभों को प्राप्त कर लेते हैं ऐसे ही लाभ एक दूसरे की सहायता से दम्पत्ति को भी मिल जाते हैं।
🔵 मूलतः न तो पुरुष बुरा है न स्त्री। दोनों ही ईश्वर की पवित्र कृतियां है। दोनों में ही आत्मा का निर्मल प्रकाश जगमगाता है। पुरुष का कार्यक्षेत्र घर से बाहर रहने के कारण उसकी बाह्य योग्यतायें विकसित हो गई हैं वह बलवान, प्रभाव शाली, कमाऊ और चतुर दिखाई देता है, पर इसके साथ साथ ही आत्मिक सद्गुणों को इस बाह्य संघर्ष के कारण उसने बहुत कुछ खो दिया है। सरलता, सरसता, वफादारी, आत्म-त्याग, दयालुता, प्रेम तथा वात्सल्य की वृत्तियां आज भी स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक देखी जाती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 30)
🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना
🔵 38. युग निर्माण के ज्ञान मन्दिर— जगह-जगह ऐसे केन्द्र स्थापित किये जांय जिनका स्वरूप ज्ञान मन्दिर जैसा हो। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति की प्रतीक गायत्री माता का सुन्दर चित्र इन केन्द्रों में स्थापित करके, प्रातः सायं पूजा, आरती, भजन, कीर्तन की व्यवस्था करके इन केन्द्रों में मन्दिर जैसा धार्मिक वातावरण बनाया जाय। उसमें पुस्तकालय, वाचनालय रहें। सदस्यों के नित्य प्रति मिलने-जुलने, पढ़ने सीखने और विचार विनिमय करने एवं रचनात्मक कार्यों की योजनायें चलाने के लिये इसे एक क्लब या मिलन मन्दिर का रूप दिया जाय। योजना की स्थानीय प्रवृत्तियों के संचालक के लिये इस प्रकार के केन्द्र कार्यालय हर जगह होने चाहिए।
🔴 39. साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें— पंडित, पुरोहित, ग्राम गुरु, पुजारी, साधु, महात्मा, कथा वाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों की संख्या भारतवर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिये प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख सन्त-महन्तों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन दिन गिरती जा रही है, यह दुःख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुये नहीं रहने देना चाहिये। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार के उत्तरदायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें, हम में हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिये कुछ समय नियमित रूप से दिया करे।
🔵 40. वानप्रस्थ का पुनर्जीवन— जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकांश समय लोक-हित और परमार्थ के लिये लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोकसेवा में अधिक समय दिया करें तो सन्त-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तरदायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं। वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण युग-निर्माण की दृष्टि से नितांत आवश्यक है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 38. युग निर्माण के ज्ञान मन्दिर— जगह-जगह ऐसे केन्द्र स्थापित किये जांय जिनका स्वरूप ज्ञान मन्दिर जैसा हो। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति की प्रतीक गायत्री माता का सुन्दर चित्र इन केन्द्रों में स्थापित करके, प्रातः सायं पूजा, आरती, भजन, कीर्तन की व्यवस्था करके इन केन्द्रों में मन्दिर जैसा धार्मिक वातावरण बनाया जाय। उसमें पुस्तकालय, वाचनालय रहें। सदस्यों के नित्य प्रति मिलने-जुलने, पढ़ने सीखने और विचार विनिमय करने एवं रचनात्मक कार्यों की योजनायें चलाने के लिये इसे एक क्लब या मिलन मन्दिर का रूप दिया जाय। योजना की स्थानीय प्रवृत्तियों के संचालक के लिये इस प्रकार के केन्द्र कार्यालय हर जगह होने चाहिए।
🔴 39. साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें— पंडित, पुरोहित, ग्राम गुरु, पुजारी, साधु, महात्मा, कथा वाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों की संख्या भारतवर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिये प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख सन्त-महन्तों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन दिन गिरती जा रही है, यह दुःख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुये नहीं रहने देना चाहिये। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार के उत्तरदायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें, हम में हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिये कुछ समय नियमित रूप से दिया करे।
🔵 40. वानप्रस्थ का पुनर्जीवन— जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकांश समय लोक-हित और परमार्थ के लिये लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोकसेवा में अधिक समय दिया करें तो सन्त-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तरदायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं। वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण युग-निर्माण की दृष्टि से नितांत आवश्यक है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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