शनिवार, 22 जनवरी 2022

👉 पुण्य और कर्तव्य

एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी, ज्येष्ठ का महीना था, आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था.. उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे.. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था!!

एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया.. व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो...

साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला.. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया..

जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे .. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया.. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे ... पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया ...

यही घटना बार बार हो रही थी ... और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा.... बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - "हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा.. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया..

साधू बोला - "ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया..

पुण्य आत्मा ने पूछा - "कैसे महाराज?
साधू बोला - "मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया... तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था... ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं..."  इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया...

पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय, दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये..

मित्रो - ये तत्व ज्ञान है... अगर किसी के बारे में अच्छा सोचना है तो उसे उस परमात्मा से जोड़ दो ताकि उसे हमेशा के लिए लाभ मिले!!!

👉 समय जरा भी बर्बाद न कीजिए (भाग ३)

यदि किये जाने वाले कामों की योजना पहले से ही बनी रहे, यह निश्चित रहे कि कौन-सा काम किस समय प्रारम्भ करके कब तक खत्म कर देना है तो यह दिक्कत न रहे। निश्चित समय आते ही काम में लग जाया जाए और प्रयत्नपूर्वक समय तक समाप्त कर दिया जाये। इसका सबसे सरल तथा उचित उपाय यह है कि दूसरे दिन के सारे कामों की योजना रात में ही बना ली जाये कि दिन प्रारम्भ होते ही कौन-सा काम किस समय प्रारम्भ करना है और किस समय तक उसे समाप्त कर देना है। तो कोई कारण नहीं कि हर काम अपने क्रम से अपने निर्धारित समय पर शुरू होकर ठीक समय पर समाप्त न हो जाये। बहुत से लोग काम का दिन शुरू होने पर—आज क्या-क्या करना है—यह सोचना प्रारम्भ करते हैं। न जाने कितना काम का समय इस सोच विचार में ही निकल जाता है। बहुत-सा समय पहले ही खराब करने के बाद काम शुरू किये जायें तो स्वाभाविक है आगे चलकर समय की कमी पड़ेगी और काम अधूरे पड़े रहेंगे जो दूसरे दिन के लिए और भी भारी पड़ जायेंगे। वासी काम वासी भोजन से भी अधिक अरुचिकर होता है। इसलिए बुद्धिमानी यही है कि दूसरे दिन किये जाने वाले काम रात को ही निश्चित कर लिये जायें। उनका क्रम तथा समय भी निर्धारित कर लिया जाये और दिन शुरू होते ही बिना एक क्षण खराब किये उनमें जुट पड़ा जाये और पूरे परिश्रम तथा मनोयोग से किए जायें। इस प्रकार हर आवश्यक काम समय से पूरा हो जायेगा और बहुत-सा खाली समय शेष बचा रहेगा, जिसका सदुपयोग कर मनुष्य अतिरिक्त लाभ तथा उन्नति का अधिकारी बन सकता है। समय की कमी और काम की अधिकता की शिकायत गलत है। वह अस्त-व्यस्तता का दोष है जो कभी ऐसा भ्रम पैदा कर देता है।

जहां तक फालतू समय का प्रश्न है, उसका अनेक प्रकार से सदुपयोग किया जा सकता है। जैसे कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति बच्चों की ट्यूशन कर सकता है। किसी नाइट स्कूल में काम कर सकता है। किसी फर्म अथवा संस्थान में पत्र-व्यवहार का काम ले सकता है। अर्जियां तथा पत्र टाइप कर सकता है। खाते लिख सकता है, हिसाब-किताब लिखने-पढ़ने का काम कर सकता है। ऐसे एक नहीं बीसियों काम हो सकते हैं जो कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपने फालतू समय में आसानी से कर सकता है और आर्थिक लाभ उठा सकता है। बड़े-बड़े शहरों और विशेष तौर से विदेशों में अपना दैनिक काम करने के बाद अधिकांश लोग जगह-जगह ‘पार्ट टाइम’ काम किया करते हैं।

पढ़े-लिखे लोग अपने बचे हुये समय में कहानी, लेख, निबन्ध, कविता अथवा छोटी-छोटी पुस्तकें लिख सकते हैं। उनका प्रकाशन करा सकते हैं। इससे जो कुछ आय हो सकती है वह तो होगी ही साथ ही उनकी साहित्यिक प्रगति होगी, ज्ञान बढ़ेगा, अध्ययन का अवसर मिलेगा और नाम होगा। कदाचित् पढ़े-लिखे लोग परिश्रम कर सकें तो यह अतिरिक्त काम उनके लिए अधिक उपयोगी लाभकर तथा रुचिपूर्ण होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १०४)

अनिर्वचनीय है प्रेम

‘‘रूपान्तरित हो जाए मनुष्य, तो उसकी आकृति नहीं बल्कि प्रकृति बदलती है। बाहर से देखने पर सब कुछ वैसा का वैसा ही बना रहता है पर उसके अन्तःकरण का सत्य बदल जाता है।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के शब्द भावों से भीगे थे, जो सुनने वालों के कानों और मनों में दैवी भावनाओं की अनूठी रसमयता को घोल रहे थे।

इस भक्तिसंगम में बैठे हुए ऋषियों व देवों के साथ अन्य सभी जनों को भलीभांति ज्ञात था कि ब्रह्मर्षि, गायत्री के परम सिद्ध एवं अविराम साधक हैं। उन्होंने जबसे गायत्री महाविद्या की साधना प्रारम्भ की तब से आज तक कभी भी विराम नहीं लिया। उन्हें सिद्धियाँ मिलती गयीं और वे नए अन्वेषण-अनुसन्धान करते गए। न तो कभी वरदायिनी वेदमाता के वरदान कम हुए और न कभी विश्वामित्र की तपसाधना का प्रवाह मन्द पड़ा।

सभी की अनुभूति यही कहती थी कि ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की देह के रोम-रोम में, उनके प्राणों के कण-कण में, उनकी चेतना के प्रत्येक चैतन्य स्पन्दन में गायत्री का सत्य एवं तत्त्व ही प्रकाशित होता है। ऐसे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र आज बड़े ही भावविभोर होकर ऋषि कहोड़ की साधना का बखान कर रहे थे। ऋषि कहोड़ भी बस मौन हो सुने जा रहे थे। वह अपने गहरे में इतने आत्मलीन थे कि उन्हें कहीं कुछ स्पर्श ही नहीं कर रहा था। बस अपलक हो शून्य में वे कुछ निहारे जा रहे थे, जबकि ब्रह्मर्षि आनन्द में निमग्न हो उत्साह से कह रहे थे- ‘‘जिसके अन्तःकरण का स्वरूप व सत्य बदल जाता है, उसके सोचने, देखने, करने और जीवन की समस्त अनुभवों-अनुभूतियों का रंग-ढंग बदल जाता है।

साधक के साधनाजीवन में यही घटित होता है फिर उसका पथ व मत कोई भी क्यों न हो? मेरा स्वयं का अनुभव भी यही है और अन्यों का भी कुछ ऐसा ही होगा। फिर भक्ति और भक्त की बात ही निराली है। उसका तो समूचा अन्तःकरण ही अपने आराध्य में लीन हो जाता है। यह सच है कि मैंने भी गायत्री साधना की है और ऋषि कहोड़ ने भी भगवती गायत्री की साधना की है परन्तु दोनों में भारी फर्क है। मेरे तप के तीव्र उपक्रम हमेशा ही किसी न किसी प्रयोजनवश हुए हैं, भले ही ये प्रयोजन लोकहितकारी ही क्यों न हो। सदा ही मैंने आदिशक्ति जगन्माता से कुछ न कुछ मांगा है और सदा-सर्वदा उन करूणामयी ने मुझे अपेक्षा से अधिक व आश्चर्यजनक दिया है। प्रत्येक बार यही हुआ है और आगे कब तक और ऐसा होता रहेगा कोई पता नहीं?

परन्तु ऋषि कहोड़ ने तो मांगना कभी सीखा ही नहीं है। उन्होंने तो सर्वदा वरदायिनी वेदमाता को कुछ न कुछ दिया है। उनका प्रत्येक कर्म, समय का प्रत्येक क्षण, जीवन की हर श्वास, प्राणों का कण-कण बस वह माँ को अर्पित करते रहे। उनके भक्तिपूर्ण हृदय में कभी कोई कामना अंकुरित ही नहीं हुई। उन्होंने तो कभी आत्मकल्याण भी नहीं चाहा। बस भाव भरे मन से भवानी का अहर्निश स्मरण और उनमें स्वयं का समर्पण-विसर्जन यही उनकी साधना का क्रम रहा है। तीव्र तप के लिए उन्हें किसी विशेष अनुष्ठान की आवश्यकता कभी पड़ती ही नहीं। इनका मन तो माता के मन्त्र में इतना लीन रहता है कि उनको कभी भूख-प्यास की सुधि ही नहीं रहती। अन्य सांसारिक सुखों की तो चर्चा ही कौन करे। दुःखी अपने हों या पराये ये तो सदा उन्हें प्यार देने और उन्हें अपनाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। इनकी भक्ति ने इन्हें दिया है अनिर्वचनीय प्रेम।’’ ब्रह्मर्षि ने ज्यों ही इस अनिर्वचनीय प्रेम शब्द का उच्चारण किया- देवर्षि पुलकित हो बीच में ही बोल पड़े-

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २०६

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