मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

👉 परदोष दर्शन भी एक बड़ा पाप है

गाँव के बीच शिव मन्दिर में एक संन्यासी रहा करते थे। मंदिर के ठीक सामने ही एक वेश्या का मकान था। वेश्या के यहाँ रात−दिन लोग आते−जाते रहते थे। यह देखकर संन्यासी मन ही मन कुड़−कुड़ाया करता। एक दिन वह अपने को नहीं रोक सका और उस वेश्या को बुला भेजा। उसके आते ही फटकारते हुए कहा—‟तुझे शर्म नहीं आती पापिन, दिन रात पाप करती रहती है। मरने पर तेरी क्या गति होगी?”

संन्यासी की बात सुनकर वेश्या को बड़ा दुःख हुआ। वह मन ही मन पश्चाताप करती भगवान से प्रार्थना करती अपने पाप कर्मों के लिए क्षमा याचना करती।

बेचारी कुछ जानती नहीं थी। बेबस उसे पेट के लिए वेश्यावृत्ति करनी पड़ती किन्तु दिन रात पश्चाताप और ईश्वर से क्षमा याचना करती रहती।

उस संन्यासी ने यह हिसाब लगाने के लिए कि उसके यहाँ कितने लोग आते हैं एक−एक पत्थर गिनकर रखने शुरू कर दिये। जब कोई आता एक पत्थर उठाकर रख देता। इस प्रकार पत्थरों का बड़ा भारी ढेर लग गया तो संन्यासी ने एक दिन फिर उस वेश्या को बुलाया और कहा “पापिन? देख तेरे पापों का ढेर? यमराज के यहाँ तेरी क्या गति होगी, अब तो पाप छोड़।”

पत्थरों का ढेर देखकर अब तो वेश्या काँप गई और भगवान से क्षमा माँगते हुए रोने लगी। अपनी मुक्ति के लिए उसने वह पाप कर्म छोड़ दिया। कुछ जानती नहीं थी न किसी तरह से कमा सकती थी। कुछ दिनों में भूखी रहते हुए कष्ट झेलते हुए वह मर गई।

उधर वह संन्यासी भी उसी समय मरा। यमदूत उस संन्यासी को लेने आये और वेश्या को विष्णु दूत। तब संन्यासी ने बिगड़कर कहा “तुम कैसे भूलते हो। जानते नहीं हो मुझे विष्णु दूत लेने आये हैं और इस पापिन को यमदूत। मैंने कितनी तपस्या की है भजन किया है, जानते नहीं हो।”

यमदूत बोले “हम भूलते नहीं, सही है। वह वेश्या पापिन नहीं है पापी तुम हो। उसने तो अपने पाप का बोध होते ही पश्चाताप करके सच्चे हृदय से भगवान से क्षमा याचना करके अपने पाप धो डाले। अब वह मुक्ति की अधिकारिणी है और तुमने सारा जीवन दूसरे के पापों का हिसाब लगाने की पाप वृत्ति में, पाप भावना में जप तप छोड़ छाड़ दिए और पापों का अर्जन किया। भगवान के यहाँ मनुष्य की भावना के अनुसार न्याय होता है। बाहरी बाने या दूसरों को उपदेश देने से नहीं। परनिन्दा,छिद्रान्वेषण, दूसरे के पापों को देखना उनका हिसाब करना, दोष दृष्टि रखना अपने मन को मलीन बनाना ही तो है। संसार में पाप बहुत है, पर पुण्य भी क्या कम हैं। हम अपनी भावनाऐं पाप, घृणा और निन्दा में डुबाये रखने की अपेक्षा सद्विचारों में ही क्यों न लगावें?

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962  

👉 आवेश और अधीरता

जरा सी प्रतिकूलता को सहन न कर सकने वाले आवेशग्रस्त, उत्तेजित, अधीर और उतावले मनुष्य सदा गलत सोचते और गलत काम करते हैं। उत्तेजना एक प्रकार का दिमागी बुखार है। जिस प्रकार बुखार आने पर देह का सारा कार्यक्रम लड़खड़ा जाता है उसी प्रकार आवेश आने पर मस्तिष्क की विचारणा एवं निर्णय में कोई व्यक्ति सही निर्णय नहीं कर सकता। आवेशग्रस्त मनुष्य प्रायः न करने योग्य ऐसे काम कर डालते हैं जिनके लिए पीछे सदा पश्चाताप ही करते रहना पड़ता हैं। आत्महत्याऐं प्रायः इन्हीं परिस्थितियों में होती हैं। कहनी अनकहनी कह बैठते हैं। मारपीट, गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़े, कत्ल आदि के दुखद कार्य भी उत्तेजना के वातावरण में ही बन पड़ते हैं। अधीरता भी एक प्रकार का आवेश ही है। बहुत जल्दी मनमानी सफलता अत्यन्त सरलतापूर्वक मिल जाने के सपने बाल बुद्धि के लोग देखा करते हैं वे यह नहीं सोचते कि महत्वपूर्ण सफलताऐं तब मिला करती हैं जबकि व्यक्ति श्रमशीलता, पुरुषार्थ, साहस, धैर्य एवं सद्गुणों की अग्नि परीक्षा में गुजर कर अपने आपको उसके उपयुक्त सिद्ध कर देता है। जल्दीबाजी में बनता कुछ नहीं, बिगड़ता बहुत कुछ है। इसलिए धैर्य को सन्तुलन और शान्ति को एक श्रेष्ठ मानवीय गुण माना गया है। कठिनाइयों से हर किसी को पाला पड़ता है, विघ्नों से रहित कोई काम नहीं। तुर्त−फुर्त सफलता किसे मिली है, किसके सब साथी सज्जन और सद्गुणी होते हैं?

हर समझदार आदमी को सहनशीलता, धैर्य और समझौते का मार्ग अपनाना पड़ता है। जो प्राप्त है उसमें प्रसन्नता अनुभव करते हुए अधिक के लिए प्रयत्नशील रहना बुद्धिमानी की बात है पर यह परले सिरे की मूर्खता है कि अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ न मिल जाने पर मनुष्य खिन्न, दुखी और असंतुष्ट ही बना रहे। सबकी सब इच्छाऐं कभी पूरी नहीं हो सकती। अधूरे में भी जो सन्तोष कर सकता है उसी को इस संसार में थोड़ी सी प्रसन्नता उपलब्ध हो सकती है। अन्यथा असंतोष और तृष्णा की आग में जल मरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं हैं। अधीर, असंतोष और महत्वाकाँक्षी मनुष्य जितने दुखी देखे जाते हैं उतनी जलन, दर्द और पीड़ा से पीड़ित घायल और बीमारों को भी नहीं होती। सन्तोष का मरहम लगाकर कोई भी व्यक्ति इस जलन से छुटकारा प्राप्त कर सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ४९)

इस जन्म में भी प्राप्य है—असम्प्रज्ञात समाधि


अन्तर्यात्रा के प्रयोगों को पूरे यत्न एवं गहराई के साथ अपनाने वाले साधकों के न केवल बाह्य जीवन में, बल्कि आन्तरिक जीवन में परिष्कार इस कदर होता है कि दूर संवेदन, पूर्वाभास जैसे तथ्य उनकी जिन्दगी का सहज हिस्सा बन जाते। बोध की सूक्ष्मता इस कदर बढ़ती है कि उनकी साधना के समय होने वाले अन्तदर्शन में दिव्य लोकों का वैभव सहज झलकने लगता है। यहाँ तक कि अध्यात्म जगत् की विभूतियों के रूप में लोक विख्यात महर्षियों के संकेत एवं संदेश स्वयमेव प्राप्त होने लगते हैं।
    
इस पथ पर चल रहे साधक अपने व्यावहारिक जीवन में पारस्परिक सामञ्जस्य, सम्बन्धों में सजल संवेदनाओं का विकास, कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता में अचरज करने जैसी प्रगति अनुभव करते हैं। तब और अब में आकाश-पाताल जैसा अन्तर दिखाई पड़ने लगता है। सच्चाई यही है कि योग साधना व्यक्ति का सम्पूर्ण व समग्र विकास करती है। व्यक्तित्व के सभी आयामों को परिष्कृत कर उनकी अचरज भरी शक्तियों को निखारती है। आन्तरिक जीवन एवं बाह्य जीवन का कायापलट कर देने वाला चमत्कार इससे सहज सम्भव होता है।
    
साधक चाहे तो क्या नहीं कर सकता। ऐसा नहीं कि जिन्होंने अपने पिछले जन्म में विदेह या प्रकृतिलय अवस्था प्राप्त कर ली, उन्हीं को यह असम्प्रज्ञात समाधि उपलब्ध होगी। सम्भावनाएँ उनके लिए भी हैं, जिन्होंने अभी इसी जन्म में, अपनी साधना का प्रारम्भ किया हैं, उनके लिए भी सम्भावनाओं के द्वार खुले हैं। पर किस तरह? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि कहते हैं-
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्॥ १/२०॥
शब्दार्थ-इतरेषाम् = दूसरे साधकों का (योग)। श्रद्धावीर्य स्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकः = श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक सिद्ध होता है।
अर्थात् दूसरे जो असम्प्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं, वे श्रद्धा, वीर्य (प्रयत्न), स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के द्वारा उपलब्ध होते हैं।
    
यह सूत्र महर्षि पतंजलि के सभी सूत्रों से कहीं अधिक मूल्यवान् है। हालाँकि दूसरों सूत्रों में भी गहरी चर्चा है, गहन चिन्तन है। इन सूत्रों में साधना के, साध्य के एवं सिद्धि के अनेकों रहस्य खुलते हैं, लेकिन इस पर भी जो बात इस सूत्र में है, वह कहीं और नहीं है, क्योंकि इस सूत्र में अपने जीवन की चरम सम्भावनाओं को साकार करने वाला सहज मार्ग बता दिया गया है। बुद्धत्व को प्रकट करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया इस एक सूत्र में ही समझा दी गई है। बड़ी ही स्पष्ट रीति से महर्षि पतंजलि कहते हैं कि तुम भी, हाँ और कोई नहीं तुम ही, जो इन क्षणों में इस सूत्र की व्याख्या को पढ़ रहे हो इस सूत्र को पकड़कर बुद्ध बन सकते हो, पतंजलि बन सकते हो, युगऋषि आचार्य श्री के जीवन के सार को अनुभव कर सकते हो।
    
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ८७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 The supremacy of wisdom in the Yug Nirman solemn pledge

In Yug Nirman Sat-sankalpa* (the solemn pledge for ushering in the new era of bright future for all), there is an ardent call for making wisdom excel everywhere. We should learn to make use of our wisdom to rationalize each and every thing. We should do only what is right and worth doing and adopt only that which is worth adopting. If a question crops up in our mind about what people might think or say about our out of the ordinary actions or conduct, we should recall that there are two types of people—those who are sensible and those who are senseless

The voice of a few sensible people is as powerful as that of the hordes of senseless people. There has always been dearth of sensible people in this world. There may be a very few lions compared to flocks of jackals living in a forest. However, the roar of only one lion stands out a mile among the yells and yaps of thousands of jackals. In the same way, if only a few of sensible people happen to firmly resolve to take some prudent initiatives, they can make widely prevalent badness crumble to pieces in the same way as the sunrise makes the early morning mist disappear. This need to be done and must be done to steer the capabilities and resources of the mankind into desirable positive direction.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojana- Darshan, swaroop, va Karyakrma- 66 (5.12)

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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