मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

👉 ईश्वर क्या है?

🔶 टेहरी राजवंश के 15-16 वर्षीय राजकुमार के हृदय में एक  प्रश्न उठा  ईश्वर क्या है?

🔷 वह स्वामी रामतीर्थ के चरणों में पहुँचा और प्रणाम करके पूछाः "स्वामी जी ! ईश्वर क्या है ?"

🔶 उसकी प्रबल जिज्ञासा को देखकर रामतीर्थ जी ने कहा, "अपना परिचय लिखकर दो।"

🔷 उसने लिखा, "मैं अमुक राजा का पुत्र हूँ और अमुक मेरा नाम है।'

🔶 रामतीर्थ जी ने पत्र देखा और कहा, "अरे राजकुमार ! तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। तुम उस निरक्षर, अनाड़ी आदमी की तरह हो, जो राजा से मिलना चाहता है पर अपना नाम तक नहीं लिख सकता। क्या राजा उससे मिलेगा ? अतः तुम अपना नाम ठीक से बताओ, तब ईश्वर तुमसे मिलेगा।"

🔷 लड़के ने कुछ देर चिंतन करके कहा, "अब मैं समझा मैंने केवल शरीर का पता बताया। मैं मन हूँ। क्या वास्तव में ऐसा ही है?"

🔶 "अच्छा कुमार ! यदि यह बात सही है तो बताओ कि आज सवेरे तुमने जो भोजन किया था, वह तुम्हारे शरीर में कहाँ रखा है?"

🔷 "जी, मेरी बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँचती और मेरा मन इसकी धारणा नहीं कर सकता।"

🔶 "प्यारे राजकुमार ! तुम्हारी बातों से सिद्ध होता है कि तुम मन, बुद्धि नहीं हो। तो तुम खूब विचारो, तब मुझे बताओ कि तुम क्या हो ? उसी समय ईश्वर तुम तक आ जायेगा।"

🔷 खूब मनन कर लड़का बोला, "मेरा मन, मेरी बुद्धि वहाँ तक जाने में जवाब दे देते हैं।"

🔶 "अब तक तुम्हारी बुद्धि जहाँ तक पहुँची है, उस पर विचार करो कि 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ।' यदि ऐसा है तो इसकी अनुभूति करो। अमल में लाओ। यदि तुम सत्य का केवल इतना अंश भी व्यवहार में लाना सीख जाते हो तो तुम्हारी समस्त शोक-चिंताएँ समाप्त हो जायेंगी।" बालक को यह जताने में रामतीर्थ जी द्वारा कुछ उपदेश दिया गया कि वह स्वयं क्या है।

🔷 इसके बाद रामतीर्थ जी द्वारा दिन भर में किये गये कार्यों का विवरण पूछने पर राजकुमार ने अपने जागने, स्नान व भोजन करने, पढ़ने एवं चिट्ठियाँ लिखने आदि का ब्यौरा बताया। रामतीर्थ जी- "राजकुमार! इन छोटे-छोटे कामों के अतिरिक्त तुमने अगणित कार्य किये हैं।"

🔶 राजकुमार किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उनकी बात पर मनन करने लगा।

🔷 रामतीर्थ जीः "तुम भोजन करते हो, उसे आमाशय में पहुँचाते हो, उसका रस बनाते हो, रक्त, मांस, मज्जा बनाते हो, हृदयगति चलाते हो, शरीर की शिरा-शिरा में रक्त का संचार करते हो। तुम्हीं बाल उगाते हो, शरीर के प्रत्येक अंग को पुष्ट करते हो। अब ध्यान दो कि कितने कार्य, कितनी क्रियाएँ तुम प्रत्येक क्षण करते रहते हो।"

🔶 लड़का बारम्बार सोचने लगा और बोलाः "महाराज जी! वस्तुतः इस शरीर में हजारों क्रियाएँ एक साथ हो रही हैं, जिन्हें बुद्धि नहीं जानती, मन जिनसे बेखबर है और फिर भी वे सब क्रियाएँ हो रही हैं। इन सबका कारण अवश्य मैं ही हो सकता हूँ। इन सबका कर्ता मैं ही हूँ। अतः मेरा यह कथन सर्वथा गलत था कि मैंने कुछ ही काम किये हैं।"

🔷 रामतीर्थ जी ने शरीर में इच्छा और अनिच्छा से होने वाले कार्यों के बारे में समझाते हुए कहाः "लोग यह भयंकर भूल करते हैं कि केवल उन्हीं कार्यों को अपने किये हुए मानते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम से होते हैं और उन सब कार्यों को अस्वीकार कर देते हैं जो मन अथवा बुद्धि के माध्यम के बिना सीधे-सीधे हो रहे हैं। इस भूल तथा लापरवाही से ही वे अपने शुद्ध स्वरूप को मन के बंदीगृह में बंदी बना लेते हैं। इस प्रकार वे असीम को ससीम और परिच्छिन्न (सीमित) बनाकर दुःख भोगते हैं। ईश्वर तुम्हारे भीतर हैं और वह ईश्वर तुम स्वयं हो।

🔶 तुम जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी हो। तुम सर्वत्र विराजमान हो। तुम्हारी शक्ति सर्वव्यापिनी है। वही सितारों को चमका रही है, वही तुम्हारी आँखों में देखने की शक्ति दे रही है, वही नदियों को प्रवाहित कर रही है, वही ब्रह्माण्डों को क्षण-प्रतिक्षण बना-बिगाड़ रही है। क्या तुम वह शक्ति नहीं हो ? सचमुच तुम वही शक्ति हो, वही चैतन्य हो जो मन बुद्धि से परे है, जो सम्पूर्ण विश्व का शासन कर रहा है। वही आत्मदेव तुम हो, वही अज्ञेय, वही तेज, तत्त्व, शक्ति, जो जी चाहे कह लो, वही सर्वरूप जो सर्वत्र विद्यमान है, वही तुम हो।" इस प्रकार स्वामी रामतीर्थ ने बालक को आत्मानुभव की झलक चखा दी और वह उनके मार्गदर्शन अनुसार आत्मानुसंधान कर आत्मस्वरूप में स्थित हुआ, ज्ञातज्ञेय हो गया।

🔷 राजकुमारः "मैंने सवाल किया था कि ईश्वर क्या है? और मुझे पता चल गया कि मेरा अपना आपा ही ईश्वर है। मुझे अपने को ही जानना था। मेरे जानने से ईश्वर का पता लग गया।"

🔶 'ईश्वर क्या है?', 'मैं कौन हूँ ?' – ये प्रश्न बहुत सरल लगते हैं लेकिन इनका जवाब पाने की जिज्ञासा जिनके हृदय में जागती है, उनके माता-पिता धन्य हैं, कुल गोत्र धन्य हैं। धन्या माता पिता धन्यो.... ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। जिन्हें इसका जवाब पाये बिना चैन नहीं आता, ऐसे तो कोई-कोई विरले होते हैं और ऐसे सच्चे जिज्ञासु को ईश्वर-तत्त्व का अनुभव किये हुए किन्हीं महापुरुष की शरण मिल जाये तो फिर इस खोज को पूर्ण होने में बहुत देर नहीं लगती।

🔷 भगवान श्रीराम जी के गुरुदेव वसिष्ठजी महाराज कहते हैं, "हे राम जी! ज्ञान समझना मात्र है, कुछ यत्न नहीं। संतों के पास जाकर प्रश्न करना कि 'मैं कौन हूँ? जगत क्या है? जीव क्या है? परमात्मा क्या है? संसार-बंधन क्या है? और इससे तरकर कैसे परम पद को प्राप्त होऊँ?' फिर ज्ञानवान जो उपदेश करें, उसके अभ्यास से आत्मपद को प्राप्त होगा, अन्यथा न होगा।"

🔶 में भी यही युक्ति बताते हुए कहते हैं, "तुम अपने-आपसे पूछो- "मैं कौन हूँ?' खाओ, पियो, चलो, घूमो, फिर पूछोः 'मैं कौन हूँ?'

🔷 'मैं विक्रम हूँ, मैं मनीषा हूँ, मै मंदीप हूँ, मै सुदर्शन हूँ ।'

🔶 यह तो तुम्हारी देह का नाम है। तुम कौन हो ? अपने को पूछा करो। जितनी गहराई से पूछोगे, उतना दिव्य अनुभव होने लगेगा। एकांत में शांत वातावरण में बैठकर ऐसा पूछो.... ऐसा पूछो कि बस, पूछना ही हो जाओ। पूछो की में पिछले जनम में भी था तो फिर जिसको जलाया गया, दफनाया गया, पानी में डुबाया गया वो कोन था, वो शरीर था, तुम कौन हो???

🔷 लगे रहो। खूब अभ्यास करोगे तब 'मैं कौन हूँ? ईश्वर क्या है?' यह प्रकट होने लगेगा और मन की चंचलता मिटने लगेगी, बुद्धि के विकार नष्ट होने लगेंगे तथा शरीर के व्यर्थ के विकार शांत होने लगेंगे। यदि ईमानदारी से साधना करने लगो न, तो छः महीने में वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ छः साल से चला हुआ व्यक्ति भी नहीं पहुँच पाता है। तत्त्वज्ञान हवाई जहाज की यात्रा है।"

🔶 महापुरुषों के सत्संग का जीवन में जितना आदर होता है, जितनी 'ईश्वर क्या है ? मैं कौन हूँ ?' यह जानने की जिज्ञासा तीव्र होती है, उतनी महापुरुषों की कृपा शीघ्र पचती है और जीव चौरासी लाख योनियों की भटकने से बचकर अपने ईश्वरत्व का, अपने ब्रह्मत्व का साक्षात्कार कर लेता है।

👉 वैभव की कमी नहीं, पर आवश्यकता जितना हो समेटें

🔷 पक्षियों को देखिये! पशुओ को देखिये! वे प्रातः से लेकर सायंकाल तक उतनी खुराक बीनते चलते हेैं, जितनी वे पचा सकते हैं। पृथ्वी पर बिखरे चारे- दाने की कमी नहीं। सबेरे से शाम तक घाटा नहीं पड़ता। पर लेते उतना ही हैं, जितना मुँह माँगता और पेट सम्हालता है। यही प्रसन्न रहने की नीति है।       

🔶 जब उन्हें स्नान का मन होता है, तब इच्छित समय तक स्नान करते हैं। उतना ही बड़ा घोंसला बनाते हैं, जिसमें उनका शरीर समा सके। कोई इतना बड़ा नहीं बनाता, जिसमें समूचे समुदाय को बिठाया सुलाया जाय।

🔷 पेड़ पर देखिये हर पक्षी ने अपना छोटा घोंसला बनाया हुआ है। जानवर अपने रहने लायक छाया का प्रबन्ध करते हैं। वे जानते हैं कि सृष्टा के सम्राज्य में किसी बात की कमी नहीं। जब जिसकी जितनी जरूरत है, आसानी से मिल जाता है। आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाय? हम इतना ही लें, जितनी तात्कालिक आवश्यकता हो। 

🔶 ऐसा करने से हम सुख- शांतिपूर्वक रहेंगे भी और उन्हें भी रहने देंगे, जो उसके हकदार हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 13 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 13 Dec 2017


👉 सुख चाहिए किन्तु दुःख से डरिये मत (भाग 1)

🔶 जीवन में दुःख, शोक संघर्षों का आना स्वाभाविक है। इससे कोई भी जीवधारी नहीं बच सकता। सुख, दुःख मानव-जीवन के दो समान पहलू हैं। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आते ही रहते हैं। यदि कोई इतना साधन सम्पन्न भी हो कि उसके जीवन में किसी दुःख, किसी अभाव अथवा किसी संघर्ष की सम्भावना को अवसर ही न मिले और वह निरन्तर अनुकूल परिस्थितियों में मौज करता रहे, तब भी एक दिन उसका एकरस सुख ही दुःख का कारण बन जायेगा। वह अपनी एकरसता से ऊब उठेगा, थक जायेगा। उसे एक अप्रिय नीरसता घेर लेगी, जिससे उसका मन विषाद से भरकर कराह उठेगा, वह दुःखी रहने लगेगा। मानव-जीवन में दुःख सुख के आगमन के अपने नियम को प्रकृति किसी भी अवस्था में अपवाद नहीं बना सकती। जो सुखी है उसे दुःख की कटुता अनुभव करनी ही होगी और इस समय जो दुःखी है उसे किसी न किसी कारण से सुख की शीतलता का अनुभव करने का अवसर मिलेगा ही।
   
🔷 दुःख सुख है क्या? यह किसी भी मनुष्य के लिए परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही है। और यदि ठीक दृष्टिकोण से देखा जाये तो परिस्थितियां भी दुःख सुख का वास्तविक हेतु नहीं है। वास्तविक हेतु तो मनुष्य की मनःस्थिति ही है, जो किसी परिस्थिति विशेष में सुख-दुःख का आरोपण कर लिया करती है। बहुत बार देखा जा सकता है कि किसी समय कोई एक परिस्थिति मनुष्य को पुलकित कर देती है, हर्ष विभोर बना देती है, तो किसी समय वही अथवा उसी प्रकार की परिस्थिति पीड़ादायक बन जाती है। यदि सुख-दुःख का निवास किसी परिस्थिति विशेष में रहा होता तो तदनुकूल मनुष्य को हर बार सुखी या दुःखी ही होना चाहिए। एक जैसी परिस्थिति में यह सुख-दुःख की अनुभूति का परिवर्तन क्यों? वह इसीलिए कि सुख दुःख वास्तव में परिस्थितिजन्य न होकर मनोजन्य ही होते हैं।

 🔶 इस सत्य के अनुसार मनुष्य को सुखी अथवा दुःखी होने का कारण अपने अन्तःकरण में ही खोजना चाहिए, परिस्थितियों को श्रेय अथवा दोष नहीं देना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुःख के लिए परिस्थितियों को कोसा अथवा सुख के लिए उन्हें धन्यवाद दिया करता है वह अपनी अल्पज्ञता का ही द्योतक करता है। वह सर्वदा सत्य है कि कोई भी मनुष्य दुःख की कामना तो करता ही नहीं, वह तो सदा सुख ही चाहा करता है। इसलिए उसे अपनी यह चाह पूरी करने के लिए परिस्थितियों से अधिक मन पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, क्षोभ अथवा असन्तोष से अभिभूत न होने देना चाहिए। इस प्रकार का निराभिभूत मानव गोमुखी गंगाजल की तरह निर्मल एवं प्रसन्न होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- दिसंबर 1966 पृष्ठ 21

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/July/v1.21

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.3

👉 Three Bases Of Personality

🔶 Our personality stands on three bases, namely body, mind & Atma. In order to make these three pure and bright, we have to adopt the process & practice of Karmayog, Gyanyog and Bhaktiyog. Accomplishment in life means to keep all our activities saturated with idealism. Body is purified by becoming a Karmayogi, mind is purified by becoming Gyanyogi & Atma is purified by becoming a Bhaktiyogi.

🔷 If every physical activity of ours is for the performance of duty, every thought of ours is for the affirmation of truth & wisdom & every emotion is to increase love & kinship, it should understood that all the three bases are advancing in the direction, which is desired & inspired by God. It is only by following this path that we can succeed in the test of achievement of purpose of life.
 
🔶 In order to reform the world, we should reform ourselves. A part of the world is sublimated to the extent, we can reform ourselves. It makes the world more beautiful by transmitting itself to another & thus the process goes on. We achieve the credit of really doing great service to the world by making our inner-self sublime.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 संजीवनी विद्या बनाम जीवन जीने की कला (भाग 4)

🔶 विचारों से ही अब्राहम लिंकन जैसे, जार्ज वाशिंगटन जैसे, गारफिल्ड जैसे छोटे-छोटे इनसान कितने महान् बन जाते हैं। विचार अगर मनुष्य के पास हों तो, आज अगर विचारशीलता और दूरदर्शी विवेकशीलता लोगों के अन्दर आ गई होती तो दुनिया खुशहाल होती। इनसान, इनसान न रहकर देवता हो गया होता और जमीन का वातावरण स्वर्ग जैसा होता। पर विचारशील है कहाँ? समझदारी है कहाँ? अगर समझदारी बढ़ेगी तो आदमी के अन्दर ईमानदारी बढ़ेगी, ईमानदारी बढ़ेगी तो आदमी में जिम्मेदारी आयेगी और जिम्मेदारी आयेगी तो बहादुरी आयेगी। चारों चीजें एक साथ जुड़ी हुई हैं। समझदारी इसका मूल है। हमको लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए जी-जान से कोशिश करनी चाहिए।
                 
🔷 प्राचीनकाल के ब्राह्मण और सन्त यही काम करते थे। वे अपना गुजारा कम में करते थे व जीवन का उद्देश्य यही रहता था कि लोगों की समझदारी बढ़ाएँ। आप लोगों से भी मेरी यही प्रार्थना है कि लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिए अपने समय का जितना अंश आप लगा सकते हों, लगाएँ। दिमाग में से आप यह ख्याल निकाल पाए तो बड़ा अच्छा हो कि बहुत-सा पैसा इकट्ठा होना चाहिए। पैसा रहेगा नहीं। मैं एक बात आपको बताए देता हूँ। अगले दिनों समाज की ऐसी व्यवस्था बनने वाली है, जिससे कि धन व्यक्तिगत नहीं रह जाएगा। सच्चा अध्यात्मवाद आपको मालदार नहीं बनने देगा। चौबीसों घण्टे आपका दिमाग व शक्तियाँ मालदार बनने की ख्वाहिश में लगते हैं तो आप गलती पर हैं, आप ठीक कीजिए अपने आपको।
    
🔶 अपना गुजारा सामान्य मनुष्य जिस तरीके से करते हैं, आप भी उसी तरीके से गुजारा करना सीखिए। फिर आप देखेंगे कि आपके पास समय, श्रम, बुद्धि, क्षमताएँ कितनी ही चीजें बच जाती हैं, जो समाज के काम में लगाई जा सकती हैं। जरूरी नहीं कि आप अपना मकान छोड़कर बाहर चले जाएँ। आप अपने घर रहकर भी बहुत काम कर सकते हैं, जिससे आपका क्षेत्र, आपका गाँव, आपके समीपवर्ती वातावरण में जाने कैसी हवा पैदा हो सकती है। कमाल हो सकता है तो इसके लिए क्या करना पड़ेगा? इसके लिए मेरे ख्याल से आपको एक ट्रेनिंग लेनी चाहिए, छोटी से छोटी चीजों के लिए ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है। लुहार, संगीतज्ञ, रेलगाड़ी चलाने वाले, मोटर चलाने वाले, अध्यापक, चिकित्सक सभी को ट्रेनिंग लेनी पड़ती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 प्रज्ञायुग में मानवी गरिमा बढ़ेगी

🔷 प्रज्ञा युग में हर व्यक्ति सामाजिक नीति मर्यादाओं को महत्व देगा। कोई ऐसा काम न करेगा जिससे मानवी गरिमा एवं समाज व्यवस्था को आँच आती हो। शिष्टाचार, सौजन्य, सहयोग, ईमानदारी, वचन का पालन, निश्छलता जैसी कसौटियों पर पारस्परिक व्यवहार खरा उतरना चाहिए। अनीति का न तो सहयोग किया जाय और न प्रत्यक्ष परोक्ष समर्थन। सामाजिक सुव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि मूढ़ मान्यताओं का, अवाँछनीय प्रचलनों का, हानिकारक कुरीतियों का, विरोध किया जाय। इस प्रकार छल, शोषण उत्पीड़न जैसे अनाचारों से भी असहयोग, प्रतिरोध एवं संघर्ष का रुख अपनाया जाय। अनीति आचरण एवं अनुपयुक्त प्रचलनों को समान रूप से अहितकर माना जायेगा और उन्हें अपनाना तो दूर कोई उनका समर्थन तक करने को सहमत न होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1984 पृष्ठ 29

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 164)

🌹  तीन संकल्पों की महान् पूर्णाहुति

🔷 अच्छा हो कि इस गोवर्धन को मिल-जुलकर उठाया जाए। अच्छा हो इस समुद्र बाँधने की कड़ी में कंकड़-पत्थर ढोने मात्र से श्रेय लूटा और यशस्वी बना जाए। प्रज्ञा परिजनों के लिए इस योजना में हाथ बँटाना उनके निज के हित में है, जो खोएँगे उस से हजार गुना अधिक पाएँगे। बीज को कुछ क्षण ही गलने का कष्ट उठाना पड़ता है। इसके उपरांत तो बढ़ने, हरियाने और फूलने फलने का आनंद ही आनंद है। वैभव ही वैभव है। स्वतंत्रता संग्राम में जो अग्रगामी बने वे मिनिस्टर बनने से लेकर स्वतंत्रता सेनानियों वाली पेंशन, सम्मान सहित प्राप्त कर सके। यह अवसर भी ऐसा ही है, जिसमें ली हुई भागीदारी मणिमुक्तकों की खदान, कौड़ी मोल खरीद लेने के समान है जिसका श्रेय यश और वैभव सुनिश्चित है उसे हस्तगत करने में कृपणता से अधिक और कुछ नहीं हो सकता।

🔶 हमने जैसा कि इस पुस्तक में समय-समय पर संकेत किया है, जैसे हमारे बॉस के आदेश मिलते रहे हैं, वैसे ही हमारे संकल्प बनते, पकते व फलते होते गए हैं। सन् १९८६ वर्ष का उत्तरार्द्ध हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण सोपान है। इस वर्ष के समापन के साथ हमारे पचहत्तरवें वर्ष की हीरक जयंती का वह अध्याय पूरा होता है, जिनके साथ एक-एक लाख के पाँच कार्यक्रम जुड़े हुए हैं। उसकी पूर्णाहुति का समय भी आ पहुँचा है। अखण्ड ज्योति पत्रिका जो इस मिशन की प्रेरणा पुंज रही है, जिसके कारण यह विशाल परिवार बनकर खड़ा हो गया है, अपने जीवन के पचासवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। उसकी स्वर्ण जयंती इस उपलक्ष्य में मनायी जा रही है। तीन वर्ष से हमारी सूक्ष्मीकरण साधना चल रही है। उसे सावित्री साधना या भारतवर्ष की देवात्म-शक्ति की कुण्डलिनी जागरण साधना भी कह सकते हैं, पर हमारी साधना विशुद्धतः लोकमंगल के प्रयोजनों के निमित्त हुई है। जिससे न केवल अपने देश की गरिमा बढ़े, वरन धरती पर बिखरे अनेक अभावों, संकटों, व्यवधानों, विपत्ति भरे घटाटोपों का निराकरण भी सम्भव हो सके।

🔷 इन तीन महाअनुष्ठानों की पूर्णाहुति एक विशेष धर्मानुष्ठान के द्वारा की जा रही है। २४ लक्ष्य के २४ महापुरश्चरणों के समापन पर पूर्णाहुति के अवसर पर सन् १९५८ में हमने १००० कुण्डीय यज्ञ किया था जो अविस्मरणीय बन गया। इस बार की तीन साधनाओं की पूर्णाहुति सारे भारत में कुल एक हजार स्थानों पर एक सौ आठ कुण्डीय यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलनों के रूप में होगी। एक वर्ष में एक हजार यज्ञों के माध्यम से एक लाख यज्ञों का संकल्प भी हमारा पूरा होगा एवं विभिन्न क्षेत्रों के वातावरण का परिशोधन करने में समृद्धि तथा प्रगति में सहायता मिलेगी।

🔶 यह न समझा जाए कि ये सभी संकेत आदेश किसी व्यक्ति विशेष के लिए हैं, इसलिए उसे ही पूरा करना चाहिए। यहाँ यह समझ रखना चाहिए कि इतना बड़ा भार कोई एक व्यक्ति न तो उठा सकता है और न उसे लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। यह व्यक्ति वस्तुतः समुदाय है जिसे आज की स्थिति में प्रज्ञा परिवार जैसी छोटी इकाई समझा जा सकता है, किन्तु अगले दिनों यह उदार चेताओं की एक महान् बिरादरी होगी। इस यशस्वी वर्ग में सम्मिलित होना, उनके दायित्वों में हाथ बँटाना उन बड़भागियों के लिए एक अलौकिक वरदान है, जो अपने हिस्से का काम करके उपयुक्त अनुदान प्राप्त करते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.190

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.22

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...