बुधवार, 27 जून 2018
👉 मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें (भाग 4)
🔷 स्वर्ग में देवता रहते हैं। उनके पास दैत्यों की तुलना में वैभव की कमी होती है। आक्रमण के क्षेत्र में भी पहल उन्हीं की होती है। फिर भी गौरव देवत्व के हिस्से में ही रहा है। वन्दन, अभिनन्दन और अनुकरण भी उन्हीं का होता रहा है। इस क्षेत्र में प्रवेश करने में किसी को कठिनाई नहीं, अड़चन इतनी भर है कि कुसंस्कारिता के चक्रव्यूह से निकलने का प्रयत्न सच्चे मन से किया जाय। इसके लिए आदर्शों की गरिमा समझने की आवश्यकता है। यदि हनुमानों और अर्जुनों का उदाहरण सामने न रहा, कठिनाइयों की कीमत पर गौरव खरीदने का साहस न उभरा तो क्षणिक आवेश की बबूले जैसी दुर्गति होती फिरेगी।
🔶 संतुलित मस्तिष्क का प्रधान गुण है दूरदर्शी विवेकशीलता। इसके प्रकट होते ही मनुष्य तत्काल की सीमा को तोड़कर भविष्य पर दृष्टि डालता है। किसान, विद्यार्थी, व्यवसायी की तरह पूँजी लगाकर समयानुसार अधिक लाभ उपार्जन का लाभ दीख सकता है। बीज गलता तो है पर इसमें वह कुछ खोता नहीं। भूमि के साथ आत्मसात् होकर उसे देखते-देखते अंकुरित पल्लवित और फलित होने वाले विशाल वृक्ष का सुयोग मिलता है। दूरदर्शिता इससे कम में सन्तुष्ट नहीं होती। उसका अनादिकाल से एक ही परामर्श रहा है, महान के लिए तुच्छ को त्यागा जाय। कामना का भावना पर उत्सर्ग किया जाय। क्षुद्रता का महानता के पक्ष में विसर्जन किया जाय। भक्त को भगवान की प्राप्ति के लिए यही करना पड़ता है। महानता इससे कम में सधती नहीं।
🔷 जीवन का एक रूप है जिसमें ललक लिप्सा के लिए आदर्शों को गँवाना पड़ता है और महानता की ओर से मुँह मोड़ना पड़ता है। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वाँछित कामनाओं की पूर्ति भी हो सकेगी या नहीं जीवन का दूसरा रूप है महानता का, जिसमें महामानवों ने श्रद्धापूर्वक प्रवेश किया है और देवोपम गौरव और स्वर्ग जैसा सन्तोष सौजन्य का भरपूर रसास्वादन किया है। दोनों में से किसे चयन किया जाय। इसी के निर्धारण में उस सूझ-बूझ का परिचय मिलता है, जिसे मनोजयी, धीर-वीर अपनाते और असंख्यों के लिए अनुगमन की पथ रेखा विनिर्मित करते है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)
🔶 संतुलित मस्तिष्क का प्रधान गुण है दूरदर्शी विवेकशीलता। इसके प्रकट होते ही मनुष्य तत्काल की सीमा को तोड़कर भविष्य पर दृष्टि डालता है। किसान, विद्यार्थी, व्यवसायी की तरह पूँजी लगाकर समयानुसार अधिक लाभ उपार्जन का लाभ दीख सकता है। बीज गलता तो है पर इसमें वह कुछ खोता नहीं। भूमि के साथ आत्मसात् होकर उसे देखते-देखते अंकुरित पल्लवित और फलित होने वाले विशाल वृक्ष का सुयोग मिलता है। दूरदर्शिता इससे कम में सन्तुष्ट नहीं होती। उसका अनादिकाल से एक ही परामर्श रहा है, महान के लिए तुच्छ को त्यागा जाय। कामना का भावना पर उत्सर्ग किया जाय। क्षुद्रता का महानता के पक्ष में विसर्जन किया जाय। भक्त को भगवान की प्राप्ति के लिए यही करना पड़ता है। महानता इससे कम में सधती नहीं।
🔷 जीवन का एक रूप है जिसमें ललक लिप्सा के लिए आदर्शों को गँवाना पड़ता है और महानता की ओर से मुँह मोड़ना पड़ता है। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वाँछित कामनाओं की पूर्ति भी हो सकेगी या नहीं जीवन का दूसरा रूप है महानता का, जिसमें महामानवों ने श्रद्धापूर्वक प्रवेश किया है और देवोपम गौरव और स्वर्ग जैसा सन्तोष सौजन्य का भरपूर रसास्वादन किया है। दोनों में से किसे चयन किया जाय। इसी के निर्धारण में उस सूझ-बूझ का परिचय मिलता है, जिसे मनोजयी, धीर-वीर अपनाते और असंख्यों के लिए अनुगमन की पथ रेखा विनिर्मित करते है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)
👉 Influence of Bioelectricity on Food Products - Part 1
🔷 Common man is hardly aware of the effect of “internal purity” of food on mind. In one of his books, Prof. Leadbeater, the founder member of Theosophical Society, speaks about the influence of subtle ingredients of food on human body. According to him, apart from the digestive matter, the food matter also carries with it certain subtle contents and our bodies absorb these as well.
🔶 We meticulously take care of the external, physical cleanliness of food, overlooking the fact, that its internal purity is much more necessary than its physical purity. Food products subtly absorb thoughts/traits of persons handling these for long periods. (Repeated right or wrong thinking becomes a part of habit, ultimately developing into a trait of the person.)
🔷 The imprints of these thoughts/traits on the edibles created by the bioelectric transmissions of associated persons are carried over to the mind of its consumer. The “internal purity” of food is maximally affected by the morality and mental state (at the time of cooking) of its cook.
📖 Akhand Jyoti – April 2004
🔶 We meticulously take care of the external, physical cleanliness of food, overlooking the fact, that its internal purity is much more necessary than its physical purity. Food products subtly absorb thoughts/traits of persons handling these for long periods. (Repeated right or wrong thinking becomes a part of habit, ultimately developing into a trait of the person.)
🔷 The imprints of these thoughts/traits on the edibles created by the bioelectric transmissions of associated persons are carried over to the mind of its consumer. The “internal purity” of food is maximally affected by the morality and mental state (at the time of cooking) of its cook.
📖 Akhand Jyoti – April 2004
👉 आत्म विश्लेषण और आत्मनिरीक्षण
🔷 आत्म विश्लेषण का अर्थ है प्रवृत्तियों के मूल कारण की तलाश करना। अर्थात् द्वेषपूर्ण भावनायें जिस आधार पर उठीं, उस आधार को ढूँढ़ना और उसे नष्ट करना। आत्म निरीक्षण का अर्थ है अपने विचारों और कार्यों की न्यायपूर्ण समीक्षा करना। बुराइयाँ पक्षपातपूर्ण विचार पद्धति के कारण ही उठती हैं। मनुष्य की यह सबसे बड़ी भूल है कि वह जिस वस्तु को चाहता है उसे किसी न किसी भूमिका के साथ टिका देता है। इसी को विचार और कार्यों का पक्षपात कहते हैं। जैसे बीड़ी, सिगरेट, या अन्य कोई मादक पदार्थ सेवन करने वालों की हमेशा यह दलील रहती है कि उससे उन्हें शान्ति मिलती है या मानसिक तनाव दूर होता है। कई तो यहाँ तक कहते हैं बीड़ी सिगरेट न पियें तो पाचन क्रिया ठीक प्रकार काम नहीं करती। पर यदि कठोरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि शराब, सिगरेट के पक्ष में जो दलीलें देते रहते हैं वे सर्वथा निस्सार हैं। यह तो मन बहलाव के लिए गढ़ी बातें हैं। वस्तुतः उनसे मानसिक परेशानियाँ तथा स्वास्थ्य और पाचन प्रणाली में शिथिलता ही आती है।
🔶 अपने गुण और दोष देखने में जब तक ईमानदारी और सच्चा दृष्टिकोण नहीं अपनाते संस्कार परिवर्तन में तभी तक परेशानी रहती है। मनुष्य आत्म दुर्बल तभी तक रहता है जब तक वह आत्म विवेचन का सच्चा स्वरूप ग्रहण नहीं करता। झूठे प्रदर्शनों और स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण ही जीवन में परेशानियाँ आती हैं। सच्चाई की मस्ती ही अनुपम है। उसकी एक बार जो क्षणिक अनुभूति कर लेता है वह उसे जीवनपर्यन्त छोड़ता नहीं। सत्य मनुष्य को ऊँचा उठाता है, साधारण स्थिति से उठाकर परमात्मा के समीप पहुँचा देता है। सत् संस्कारों का बल, कुसंस्कारों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक होता है किन्तु कुसंस्कारों में जो क्षणिक सुख और तृप्ति दिखाई देती है उसी के कारण लोग दुष्कर्मों की ओर बड़ी जल्दी खिंच जाते हैं। अतएव जब कभी ऐसे अनिष्टकारी विचार मस्तिष्क में उठें तब उनसे भागने या शीघ्र निर्णय का प्रयत्न करना चाहिए। किसी बुराई से डरने या भागने से वह जीवन का अंग बन जाती हैं किन्तु जब विचारों में मौलिक परिवर्तन करते हैं और बुराई की गहराई तक छान-बीन करते हैं तो अन्तःकरण की दिव्य ज्योति के समक्ष सच और झूठ की स्वतः अभिव्यक्ति हो जाती है। लोग बुराइयों से सावधान हो जाते हैं। आत्मनिरीक्षण के साथ विचार पद्धति शुभ संस्कार बढ़ाने का दूसरा उपाय है। इसके लिये यह आवश्यक है कि जो भी व्यवसाय करें पहले उस पर अथ से इति तक विचार कर लें और यदि वह वस्तु उपयोगी दिखाई दे तो उसे प्रयत्नपूर्वक अपने जीवन में धारण करें, अन्यथा उसे त्याग दें।
🔷 आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत्म परिष्कार का जमा-खाता भी होना चाहिये। बचत का ठीक-ठीक अनुमान तभी लग सकता है। यदि अपनी जमा अधिक है तो आप सुसंस्कार बढ़ा रहे है। खर्च की अधिकता आप के संस्कारों का दीवालियापन प्रकट करती है। संस्कारों रुची धन एकत्रित करने के लिये सदाचरण की पूँजी बढ़ाना नितान्त आवश्यक है।
🔶 जब तक गम्भीरता से आत्म विवेचन का कार्यक्रम नहीं बनाते तब तक गुण, कर्म और स्वभाव में परिवर्तन लाना आसान नहीं रहता। उदाहरण के लिये इस प्रकार विचार कीजिये- “मान लीजिये आप तम्बाकू पीते हैं। दिन भर में चार आने की तम्बाकू पी लेते हैं। एक माह में साढ़े सात रुपये के हिसाब से प्रति वर्ष आप 90 रुपये की तम्बाकू पी जाते है और लाभ क्या होता है? आपके शरीर में निकोटीन विष भरता चला जाता है जो कभी-कभी कैन्सर का कारण बन सकता है। सरदर्द, अपच, आँखों की शक्ति का कमजोर होना, वीर्य रोग, दन्त रोग, आदि कितनी व्याधियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। इससे अपना और अपने बाल-बच्चों और समाज का कितना बड़ा अहित होता है”। आप जब इस प्रकार गहराई से विचार करने का अभ्यास प्रारम्भ करेंगे तो विश्वास कीजिये आपके जीवन में कितनी ही बुराइयाँ, क्यों न जड़ जमा चुकी हों, उन्हें आज नहीं तो कल अपना बोरिया बिस्तर बाँधना ही पड़ेगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 13
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.13
🔶 अपने गुण और दोष देखने में जब तक ईमानदारी और सच्चा दृष्टिकोण नहीं अपनाते संस्कार परिवर्तन में तभी तक परेशानी रहती है। मनुष्य आत्म दुर्बल तभी तक रहता है जब तक वह आत्म विवेचन का सच्चा स्वरूप ग्रहण नहीं करता। झूठे प्रदर्शनों और स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण ही जीवन में परेशानियाँ आती हैं। सच्चाई की मस्ती ही अनुपम है। उसकी एक बार जो क्षणिक अनुभूति कर लेता है वह उसे जीवनपर्यन्त छोड़ता नहीं। सत्य मनुष्य को ऊँचा उठाता है, साधारण स्थिति से उठाकर परमात्मा के समीप पहुँचा देता है। सत् संस्कारों का बल, कुसंस्कारों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक होता है किन्तु कुसंस्कारों में जो क्षणिक सुख और तृप्ति दिखाई देती है उसी के कारण लोग दुष्कर्मों की ओर बड़ी जल्दी खिंच जाते हैं। अतएव जब कभी ऐसे अनिष्टकारी विचार मस्तिष्क में उठें तब उनसे भागने या शीघ्र निर्णय का प्रयत्न करना चाहिए। किसी बुराई से डरने या भागने से वह जीवन का अंग बन जाती हैं किन्तु जब विचारों में मौलिक परिवर्तन करते हैं और बुराई की गहराई तक छान-बीन करते हैं तो अन्तःकरण की दिव्य ज्योति के समक्ष सच और झूठ की स्वतः अभिव्यक्ति हो जाती है। लोग बुराइयों से सावधान हो जाते हैं। आत्मनिरीक्षण के साथ विचार पद्धति शुभ संस्कार बढ़ाने का दूसरा उपाय है। इसके लिये यह आवश्यक है कि जो भी व्यवसाय करें पहले उस पर अथ से इति तक विचार कर लें और यदि वह वस्तु उपयोगी दिखाई दे तो उसे प्रयत्नपूर्वक अपने जीवन में धारण करें, अन्यथा उसे त्याग दें।
🔷 आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत्म परिष्कार का जमा-खाता भी होना चाहिये। बचत का ठीक-ठीक अनुमान तभी लग सकता है। यदि अपनी जमा अधिक है तो आप सुसंस्कार बढ़ा रहे है। खर्च की अधिकता आप के संस्कारों का दीवालियापन प्रकट करती है। संस्कारों रुची धन एकत्रित करने के लिये सदाचरण की पूँजी बढ़ाना नितान्त आवश्यक है।
🔶 जब तक गम्भीरता से आत्म विवेचन का कार्यक्रम नहीं बनाते तब तक गुण, कर्म और स्वभाव में परिवर्तन लाना आसान नहीं रहता। उदाहरण के लिये इस प्रकार विचार कीजिये- “मान लीजिये आप तम्बाकू पीते हैं। दिन भर में चार आने की तम्बाकू पी लेते हैं। एक माह में साढ़े सात रुपये के हिसाब से प्रति वर्ष आप 90 रुपये की तम्बाकू पी जाते है और लाभ क्या होता है? आपके शरीर में निकोटीन विष भरता चला जाता है जो कभी-कभी कैन्सर का कारण बन सकता है। सरदर्द, अपच, आँखों की शक्ति का कमजोर होना, वीर्य रोग, दन्त रोग, आदि कितनी व्याधियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। इससे अपना और अपने बाल-बच्चों और समाज का कितना बड़ा अहित होता है”। आप जब इस प्रकार गहराई से विचार करने का अभ्यास प्रारम्भ करेंगे तो विश्वास कीजिये आपके जीवन में कितनी ही बुराइयाँ, क्यों न जड़ जमा चुकी हों, उन्हें आज नहीं तो कल अपना बोरिया बिस्तर बाँधना ही पड़ेगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 13
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.13
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