सोमवार, 21 अगस्त 2017

👉 आपसी मतभेद से विनाश :-

🔵 एक बहेलिए ने एक ही तरह के पक्षियों के एक छोटे से झुंड़ को खूब मौज-मस्ती करते देखा तो उन्हें फंसाने की सोची. उसने पास के घने पेड़ के नीचे अपना जाल बिछा दिया. बहेलिया अनुभवी था, उसका अनुमान ठीक निकला. पक्षी पेड़ पर आए और फिर दाना चुगने पेड़ के नीचे उतरे. वे सब आपस में मित्र थे सो भोजन देख समूचा झुंड़ ही एक साथ उतरा. पक्षी ज्यादा तो नहीं थे पर जितने भी थे सब के सब बहेलिये के बिछाए जाल में फंस गए।

🔴 जाल में फंसे पक्षी आपस में राय बात करने लगे कि अब क्या किया जाए. क्या बचने की अभी कोई राह है?  उधर बहेलिया खुश हो गया कि पहली बार में ही कामयाबी मिल गयी। बहेलिया जाल उठाने को चला ही था कि आपस में बातचीत कर सभी पक्षी एकमत हुए. पक्षियों का झुंड़ जाल ले कर उड़ चला।

🔵 बहेलिया हैरान खड़ा रह गया. उसके हाथ में शिकार तो आया नहीं, उलटा जाल भी निकल गया. अचरज में पड़ा बहेलिया अपने जाल को देखता हुआ उन पक्षियों का पीछा करने लगा. आसमान में जाल समेत पक्षी उड़े जा रहे थे और हाथ में लाठी लिए बहेलिया उनके पीछे भागता चला जा रहा था. रास्ते में एक ऋषि का आश्रम था. उन्होंने यह माजरा देखा तो उन्हें हंसी आ गयी. ऋषि ने आवाज देकर बहेलिये को पुकारा. बहेलिया जाना तो न चाहता था पर ऋषि के बुलावे को कैसे टालता. उसने आसमान में अपना जाल लेकर भागते पक्षियों पर टकटकी लगाए रखी और ऋषि के पास पहुंचा।

🔴 ऋषि ने कहा- तुम्हारा दौड़ना व्यर्थ है. पक्षी तो आसमान में हैं. वे उड़ते हुए जाने कहां पहुंचेंगे, कहां रूकेंगे. तुम्हारे हाथ न आयेंगे. बुद्धि से काम लो, यह बेकार की भाग-दौड़ छोड़ दो।

🔵 बहेलिया बोला- ऋषिवर अभी इन सभी पक्षियों में एकता है. क्या पता कब किस बात पर इनमें आपस में झगड़ा हो जाए. मैं उसी समय के इंतज़ार में इनके पीछे दौड़ रहा हूं. लड़-झगड़ कर जब ये जमीन पर आ जाएंगे तो मैं इन्हें पकड़ लूंगा।

🔴 यह कहते हुए बहेलिया ऋषि को प्रणाम कर फिर से आसमान में जाल समेत उड़ती चिड़ियों के पीछे दौड़ा. एक ही दिशा में उड़ते उड़ते कुछ पक्षी थकने लगे थे. कुछ पक्षी अभी और दूर तक उड़ सकते थे।

🔵 थके पक्षियों और मजबूत पक्षियों के बीच एक तरह की होड़ शुरू हो गई. कुछ देर पहले तक संकट में फंसे होने के कारण जो एकता थी वह संकट से आधा-अधूरा निकलते ही छिन्न-भिन्न होने लगी. थके पक्षी जाल को कहीं नजदीक ही उतारना चाहते थे तो दूसरों की राय थी कि अभी उड़ते हुए और दूर जाना चाहिए. थके पक्षियों में आपस में भी इस बात पर बहस होने लगी कि किस स्थान पर सुस्ताने के लिए उतरना चाहिए। जितने मुंह उतनी बात. सब अपनी पसंद के अनुसार आराम करने का सुरक्षित ठिकाना सुझा रहे थे. एक के बताए स्थान के लिए दूसरा राजी न होता। देखते ही देखते उनमें इसी बात पर आपस में ही तू-तू, मैं-मैं हो गई. एकता भंग हो चुकी थी। कोई किधर को उड़ने लगा कोई किधर को. थके कमजोर पक्षियों ने तो चाल ही धीमी कर दी. इन सबके चलते जाल अब और संभल न पाया. नीचे गिरने लगा। अब तो पक्षियों के पंख भी उसमें फंस गए.  दौड़ता बहेलिया यह देखकर और उत्साह से भागने लगा. जल्द ही वे जमीन पर गिरे।

🔴 बहेलिया अपने जाल और उसमें फंसे पक्षियों के पास पहुंच गया. सभी पक्षियों को सावधानी से निकाला और फिर उन्हें बेचने बाजार को चल पड़ा।

🔵 तुलसीदासजी कहते है- जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपत्ति निधाना. यानी जहां एक जुटता है वहां कल्याण है. जहां फूट है वहां अंत निश्चित है. महाभारत के उद्योग पर्व की यह कथा बताती कि आपसी मतभेद में किस तरह पूरे समाज का विनाश हो जाता है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 Aug 2017


👉 आज का सद्चिंतन 21 Aug 2017


👉 अपना मूल्य, आप ही न गिरायें (भाग 3)

🔵 इस दीन-हीन मनोवृत्ति के लोग निश्चय ही बड़े दयनीय होते हैं। ऐसे जीवन को यदि आत्म-हत्या मान लिया जाय तब भी अनुचित नहीं। किसी शस्त्र से अपना घात कर लेने अथवा अपने विचारों भावों और कल्पनाओं से अपनी आत्मा का तेज उसकी श्रेष्ठता नष्ट करते रहने में कोई अन्तर नहीं। वह शास्त्रीय हनन है यह वैचारिक आत्म हनन। ऐसे आदमी आदमी मनोरोगी होते हैं। जो भी अपने अन्दर इस दीन-वृत्ति का आभास पाये उन्हें जपता उपचार करने में तत्पर हो जाना चाहिये। अन्यथा उनका सारा जीवन योंही रोते-झींकते, कुढ़ते- कलपते बीत जायेगा और उसका कोई लाभ उन्हें प्राप्त न होगा।

🔴 यह एक निश्चित नियम है कि जिस प्रकार का हम अपने को मानते रहते हैं, यदि वैसे नहीं हैं तो भी वैसे बन जायेंगे। संसार भी उसी के अनुसार हमें मानेगा। संसार में अनेक ऐसे धनवान, बलवान, विद्वान और प्रतिभावान व्यक्ति हैं समाज जिन्हें बड़े ही निम्न दृष्टि से देखता है। न कोई उन्हें महत्व देता है और न किंचित मूल्याँकन करता है। वे स्वयं भी अपने व्यवहारों, बातों और व्यक्तित्व में दीनहीन और मलीन बने रहते हैं। न हृदय में कोई उल्लास होता है, न मुख पर कोई तेज, ओज और न आत्मा में अपनी विशेषताओं का विश्वास।

🔵 बहुत कुछ होकर भी नगण्यतम जीवन का भार ढोते रहते हैं। इसका कारण और कुछ नहीं उनकी अपनी आत्मा-हीनता और अवमूल्यन ही होता है। उनके दीन-मलीन और मिथ्या विचार ही प्रेत की तरह उनकी विशेषताओं का रक्त चूस लेते हैं। हीन व्यक्ति मानव आकार में एक चलते डोलते कंकाल के सिवाय और कुछ नहीं होते। ऐसा धिक्कारपूर्ण जीवन बिताने में क्या सुख और क्या संतोष हो सकता है- नहीं कहा जा सकता है।

🔴 यदि आपका स्वभाव दैन्यपूर्ण है तो उसे बदलिये अन्यथा आपकी सारी शक्तियाँ, सारी विशेषतायें और सारी महानतायें नष्ट हो जायेंगी और तब समाज आपका मूल्य दो कौड़ी का भी लगाने को तैयार न होगा। आप एकांत में शाँत और निष्पक्ष चित्त होकर बैठिए और विचार करिये कि आप क्या हैं और अपने को क्या मानते है? ऐसा करते समय यदि आपकी विचार-धारा दीनता की ओर जाती है और आप यही सोचने लगते हैं कि आप तो बड़े गरीब, कमजोर और अयोग्य हैं तो तुरन्त ही अपनी विचार-धारा पर प्रतिबन्ध लगा दीजिये और सोचिये कि आप वस्तुतः वैसे हैं भी या अपने प्रति वैसा होने का भ्रम ही है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 1968 पृष्ठ 29
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/July/v1.29

👉 विशिष्ट प्रयोजन के लिये, विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज (भाग 1)

🔵 नवयुग सृजन का बड़ा काम है।उसके लिए सहयोगी तो गीद, गिलहरी भी हो सकते हैं, पर महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए अंगद, हनुमान जैसे वानरों और नल, नील जैसी रीछों की आवश्यकता पड़ती है। गौ चराने, गेंद खेलने और गोवर्धन उठाने में लाठी का सहयोग देने के लिए तो ग्वाल-वाल भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके, किन्तु महाभारत जीतने में भीम, अर्जुन से ही काम चला। स्वतन्त्रता संग्राम के जीतने में भी सत्साहसियों की जेल यात्रा को ही सराहा जायगा पर गाँधी पटैल जैसी हस्तियाँ आगे न आतीं तो महान प्रयोजन कदाचित ही पूर्ण हो पाता, महान परिवर्तनों में योगदान तो असंख्यों का रहा है किन्तु उसका सूत्र संचालन महामानव ही करते रहे हैं। छप्पर तो बाँस बल्लियों पर भी खड़े रहते हैं, पर नदी या नाले का पुल बनाने में ऐसे मजबूत पाये लगाने पड़ते हैं जो उस परिवहन का भार सह सकें।

🔴 युग सृजन में सहयोगी कोई भी हो सकता है यह उसका उत्तरदायित्व कंधों पर ओढ़ने वाले सृजन शिल्पियों को नल-नील जैसा प्रबुद्धि एवं परिपक्व होना चाहिए। ऐसी भूमिका निभा सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। सिखाने पढ़ाने से थोड़ा सा काम तो चलता है पर प्रखरता मौलिक एवं संस्कारगत होनी चाहिए। लोहे की मजबूती उसकी संरचना में ही सन्निहित है। कारखानों में ढालने, खरादने का काम होता है, कृत्रिम लोहा नहीं बन सकता और न उसका स्थानापन्न किसी अन्य धातु को बनाया जा सकता है।

🔵 प्रशिक्षण, वातावरण, एवं सर्म्पक का प्रभाव तो पड़ता है पर महामानव इतने से ही नहीं बन जाते। उनके लिए संस्कार गत मौलिकता एवं संचित प्रखरता की भी आवश्यकता होती है। विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को आग्रहपूर्वक माँगा था और उन्हें वला अतिवला विद्याएँ सिखा कर महान परिवर्तन के लिए उपयुक्त क्षमता सम्पन्न बनाया था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त-समर्थ रामदास ने शिवाजी, बुद्ध ने आनन्द, महीन्द्रनाथ ने गौरख रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को बड़ी कठिनाई से ढूँढ़ा था। आगन्तुकों की भारी भीड़ में से इन सभी शक्ति सम्पन्नों को कोई काम का न लगा। बड़ी कठिनाई से ही वे अपने थोड़े से अनुयायी उत्तराधिकारी ढूँढ़ने में सफल हुए। विवेकानन्द ने निवेदिता से कहा था मुझे मात्र तुम्हारे लिये यूरोप की यात्रा करनी पड़ी।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1980 पृष्ठ 46

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1980/February/v1.46

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 48)

🌹  दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।

🔴 अपने साथ हम दूसरों से जिस सज्जनतापूर्ण व्यवहार की आशा करते हैं, उसी प्रकार की नीति हमें दूसरों के साथ अपनानी चाहिए। हो सकता है कि कुछ दुष्ट लोग हमारी सज्जनता के बदले में उसके अनुसार व्यवहार न करें। उदारता का लाभ उठाने वाले और स्वयं निष्ठुरता धारण किए रहने वाले नर- पशुओं की इस दुनिया में कमी नहीं है। उदार और उपकारी पर ही घात चलाने वाले हर जगह भरे हैं।

🔵 उनकी दुर्गति का अपने को शिकार न बनना पड़े, इसकी सावधानी तो रखनी चाहिए, पर अपने कर्तव्य और सौजन्य को इसलिए नहीं छोड़ देना चाहिए कि उसके लिए सत्पात्र नहीं मिलते। बादल हर जगह वर्षा करते हैं, सूर्य और चंद्रमा हर जगह अपना प्रकाश फैलाते हैं, पृथ्वी हर किसी का भार और मल- मूत्र उठाती है, फिर हमें भी वैसी ही महानता और उदारता का परिचय क्यों नहीं देना चाहिए?
 
🔴 उदारता प्रकृति के लोग कई बार चालाक लोगों द्वारा ठगे जाते हैं और उससे उन्हें घाटा ही रहता है, पर उनकी सज्जनता से प्रभावित होकर दूसरे लोग जितनी उनकी सहायता करते हैं, उस लाभ के बदले में ठगे जाने का घाटा कम ही रहता है। सब मिलाकर वे लाभ में ही रहते हैं। इसी प्रकार स्वार्थी लोग किसी के काम नहीं आने से अपना कुछ हर्ज या हानि होने का अवसर नहीं आने देते, पर उनकी सहायता नहीं करता तो वे उस लाभ से वंचित भी रहते हैं।

🔵 ऐसी दशा में वह अनुदार चालाक व्यक्ति, उस उदार और भोले व्यक्ति की अपेक्षा घाटे में ही रहता है। दुहरे बाट रखने वाले बेईमान दुकानदारों को कभी फलते- फूलते नहीं देखा गया। स्वयं खुदगर्जी और अशिष्टता बरतने वाले लोग जब दूसरों से सज्जनता और सहायता की आशा करते हैं तो ठीक दुहरे बाट वाले बेईमान दुकानदार का अनुकरण करते हैं। ऐसा व्यवहार कभी किसी के लिए उन्नति और प्रसन्नता का कारण नहीं बन सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 130)

🌹  तपश्चर्या आत्म-शक्ति के उद्भव हेतु अनिवार्य

🔵 अरविंद ने विलायत से लौटते ही अंग्रेजों को भगाने के लिए जो उपाय सम्भव थे, वे सभी किए, पर बात बनती न दिखाई पड़ी। राजाओं को संगठित करके, विद्यार्थियों की सेना बनाकर, व पार्टी गठित करके उनने देख लिया कि इतनी सशक्त सरकार के सामने यह छुटपुट प्रयत्न सफल न हो सकेंगे। इसके लिए समान स्तर की सामर्थ्य, टक्कर लेने के लिए चाहिए। गाँधी जी के सत्याग्रह जैसा उन दिनों सम्भव नहीं था। ऐसी दशा में उनने-आत्मशक्ति उत्पन्न करने और उसके द्वारा वातावरण गरम करने का काम हाथ में लिया। अंग्रेजों की पकड़ से अलग हटकर वे पाण्डिचेरी चले गए और एकान्तवास मौन साधना सहित विशिष्ट तप करने लगे।

🔴 लोगों की दृष्टि में वह पलायनवाद भी हो सकता था, पर वस्तुतः वैसा था नहीं। सूक्ष्मदर्शियों के अनुसार उसके द्वारा अदृश्य स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न हुई। वातावरण गरम हुआ और एक ही समय में देश के अन्दर इतने महापुरुष उत्पन्न हुए कि जिसकी इतिहास में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं मिलती। राजनैतिक नेता कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भी हो सकते हैं, किन्तु महापुरुष हर दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं। जिनका व्यक्तित्व कहीं अधिक ऊँचा होता है, जनमानस को उल्लसित आन्दोलित करने की क्षमता भी उन्हीं में होती है। दो हजार वर्ष की गुलामी में बहुत कुछ गँवा बैठने वाले देश को ऐसे ही कर्णधारों की आवश्यकता थी। वे एक नहीं अनेकों एक ही समय में उत्पन्न हुए। प्रचण्ड ग्रीष्म में उठते चक्रवातों की तरह। फलतः अरविन्द का वह संकल्प कालांतर में ठीक प्रकार सम्पन्न हुआ जिसे वे अन्य उपायों से पूरा कर सकने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे।

🔵 अध्यात्म विज्ञान के इतिहास में उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए तप-साधना एक मात्र विधान उपचार है। वह सुविधा-भरी विलासी रीति-नीति अपनाकर सम्पादित नहीं की जा सकती है। एकाग्रता और एकात्मता सम्पादित करने के लिए बहुमुखी बाह्योपचारों में, प्रचारों प्रयोजनों में भी निरत नहीं रहा जा सकता है। उससे शक्तियाँ बिखरती हैं। फलतः केन्द्रीयकरण का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जो सूर्य किरणों को आतिशी शीशे पर केन्द्रित करने की तरह अग्नि उत्पादन जैसी प्रचण्डता उत्पन्न कर सके। अठारह पुराण लिखते समय व्यास उत्तराखण्ड की गुफाओं में वसोधारा शिखर के पास चले गए। साथ में लेखन कार्य की सहायता करने के लिए गणेश जी इस शर्त पर रहे कि एक शब्द भी बोले बिना सर्वथा मौन रहेंगे। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य इससे कम में सम्भव नहीं हो सकता था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.145

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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