शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 71)

🌹  ‘‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।  

🔴 जानकारियाँ देने और ग्रहण करने भर की आवश्यकता वाणी और लेखनी द्वारा सम्पन्न की जा सकती है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करके विचार बदले जा सकते हैं, पर अंतराल में जमी हुई आस्थाओं तथा चिर अभ्यस्त गतिविधियों को बदलने के लिए समझाने-बुझाने से भी बड़ा आधार प्रस्तुत करना पड़ेगा और यह है-अपना आदर्श एवं उदाहरण प्रस्तुत करना।’’ अनुकरण की प्रेरणा इसी से उत्पन्न होती है। दूसरों को इस सीमा तक प्रभावित करना कि वे भी अवांछनीयता को छोड़ने का साहस दिखा सकें, तभी संभव है, जब वैसे ही साहसी लोगों के अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किए जा सकें। आज आदर्शवादिता की बढ़-चढ़कर अपना उदाहरण प्रस्तुत कर सकें, ऐसे निष्ठावान् देखने को नहीं मिलते। यही कारण है कि उपदेशों पर किया श्रम व्यर्थ सिद्ध होता चला जा रहा है और सुधार की अभीष्ट आवश्यकता पूरी हो सकने का सुयोग नहीं बन पा रहा है।
    
🔵 जन-मानस के परिवर्तन की महती आवश्यकता को यदि सचमुच पूरा किया जाना है, तो उसका रास्ता एक ही है कि आदर्शों को जीवन में उतार सकने वाले साहसी लोगों का एक ऐसा दल प्रकट हो, जो अपने आचरणों द्वारा यह सिद्ध करे कि आदर्शवादिता केवल एक-दूसरे को उपदेश करने भर की विडंबना नहीं है वरन् उसे कार्य रूप में परिणत भी किया जा सकता है। इस प्रतिपादन का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए हमें अपने को ही आगे करना होगा। दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर गोली नहीं चलाई जा सकती। आदर्श कोई और प्रस्तुत करे और नेतृत्व हम करें, अब यह बात नहीं चलेगी। हमें अपनी आस्था की प्रामाणिकता अपने आचरण द्वारा सिद्ध करनी होगी। आचरण ही सदा से प्रामाणिक रहा है, उसी से लोगों को अनुकरण की प्रेरणा मिलती है।
   
🔴 आज जन मानस में यह भय और गहराई तक घुस गया है कि आदर्शवादी जीवन में कष्ट और कठिनाइयाँ भरी पड़ी हैं। उत्कृष्ट विचारणा केवल कहने-सुनने भर का मनोरभ करने के लिए है। उसे व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। प्राचीनकाल के महापुरुषों के उदाहरण प्रस्तुत करना काफी नहीं, उत्साह तो प्रत्यक्ष से ही उत्पन्न होता है। जो सामने है, उसी से अनुकरण की प्रेरणा उपज सकती है। जो इस अभाव एवं आवश्यकता की पूर्ति किसी न किसी को तो पूरी करनी हो होगी। इसके बिना विकृतियों और विपत्तियों के वर्तमान संकट से छुटकारा पाया न जा सकेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मचिंतन के क्षण 22 Sep 2017

🔵 साँसारिक भोगों की दृष्टि से बाह्य स्वच्छता पर प्रायः अधिकाँश ध्यान देते हैं, किंतु आध्यात्मिक शृंगार के बिना उस स्वच्छता का कोई आनन्द नहीं मिल पाता। मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। इन्द्रियों के वशीभूत होकर मनुष्य राग-द्वेषादि कुप्रवृत्तियों में फँसकर अनिष्ट करता रहता है। मन की पवित्रता के लिये ईश्वर आराधन, सत्पुरुषों के सत्संग एवं सत्साहित्य के स्वाध्याय की बड़ी आवश्यकता होती है। पवित्र मन में अनेक गुणों का विकास स्वतः होने लगता है।

🔴 लौकिक वस्तुओं को लेकर अभिमान, मोह, ममता, लोभ, क्रोध आदि द्वेष दुर्विकारों का त्याग ही अन्तर्जीवन की शुद्धि है। इसी प्रकार अपने अन्तःकरण में श्रद्धा, भक्ति, विवेक, सन्तोष, क्षमा, उदारता, विनम्रता, सहिष्णुता, एवं अविचल प्रसन्नता का धारण करना ही सुन्दर शृंगार है। केवल बाह्य शरीर के शृंगार पर ध्यान देना, मनुष्य के स्थूल दृष्टिकोण का परिचारक है। आत्म ज्ञान के साधकों तथा श्रेय के उपासकों के लिये आन्तरिक शृंगार की महत्ता अधिक है।

🔵 शृंगार और शुद्धि आत्मा के विकास के विषय हैं इसमें सन्देह नहीं है किन्तु अपना दृष्टिकोण एकाँगी न होना चाहिये। हमें सौंदर्य के सच्चे स्वरूप को समझने का प्रयत्न करना चाहिये। मनुष्य की बाह्य पवित्रता से आन्तरिक शुद्धता का महत्व कम नहीं है वरन् यह दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं। मनुष्य का जीवन इन दोनों में उभयनिष्ठ होना चाहिये। तभी शृंगार की पूर्णता का आनन्द प्राप्त होता है। यह आनन्द मनुष्य को मिल सकता है पर इसके लिये अपनी आत्मा को सद्गुणों एवं सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रखने की जरूरत होती है। शुद्ध शरीर, स्वच्छ मन और सद्चित्त वृत्तियों के द्वारा ही यह संयोग प्राप्त किया जा सकता है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 ध्यान-साधना की सिद्धि की सात कसौटियाँ (भाग १)

🔴 ध्यान अध्यात्म पथ का प्रदीप है। ध्यान की ज्योति जिसमें जितनी प्रखर है, अध्यात्म पथ उसमें उतना ही प्रकाशित हो जाता है। परमहंस श्री रामकृष्ण देव अपने शिष्यों से कहा करते थे कि ध्यान की प्रगाढ़ता अध्यात्म ज्ञान की परिपक्वता का पर्याय है। वह कहते थे- ‘जिसे ध्यान सिद्ध है, समझना चाहिए उसे अध्यात्म सिद्ध है।’ ध्यान की इस महिमा से कम-ज्यादा अंशों में प्रायः सभी आध्यात्म साधक परिचित हैं। साधक समुदाय में हर किसी की यही कोशिश रहती है कि उसका ध्यान प्रगाढ़ हो। परन्तु किसी न किसी कारण से ऐसा नहीं हो पाता। यदि कभी हुआ भी तो उसकी सही परख नहीं हो पाती।
 
🔵 कैसे परखें अपने ध्यान को? क्या है ध्यान साधना के सिद्ध होने की कसौटियाँ? ये सवाल इन पंक्तियों को पढ़ रहे प्रत्येक साधक के मन में कभी न कभी पनपते रहते हैं। शायद इन क्षणों में भी कहीं मानस उर्मियों में तरंगित हो रहे हैं। इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की चर्चा तो बहुत होती है। पर प्रायः सही समाधान नहीं जुट पाता। ध्यान के विषय में जब भी बात उठती है तो उसकी विधि प्रक्रियाएँ ही समझायी जाती हैं। इसकी सिद्धि के मानदण्ड क्या हैं? यह सवाल हमेशा अधूरा रह जाता है।

🔴 ध्यान प्रक्रिया की सूक्ष्मताओं पर और इसकी सिद्धि के मानदण्डों पर तन्त्र शास्त्रों एवं बौद्ध ग्रन्थों में काफी विस्तार से विचार किया गया है। बौद्ध सिद्ध सरहपा के अनुसार प्रायः साधक प्रकाश दिखना, विभिन्न रंग दिखना, अंतर्चक्षुओं के सामने अलौकिक दृश्यों का उभरना, आनन्द की अनुभूति होना आदि बातों को ध्यान सिद्धि का लक्षण मान लेते हैं। पर यथार्थता यह नहीं है। ऊपर गिनाए गए ये सभी लक्षण तो इतना भर सूचित करते हैं कि साधक ध्यान प्रक्रिया में गतिशील है। पर ये उसकी ध्यान सिद्धि की सूचना नहीं देते। ध्यान सिद्धि के मानदण्ड तो कुछ और ही हैं। शास्त्रकारों एवं सिद्धों ने इनकी संख्या काफी गिनायी है। लेकिन मुख्य तौर पर इन्हें सात तरीके से परखा-जाना जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- सितम्बर 2003 पृष्ठ 3

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