भक्ति से व्यक्तित्व बन जाता है अमृत का निर्झर
क्रतु के इस सूत्र को थाम कर भृत्सभद कहने लगे- ‘‘कितने दारूण थे सागर मन्थन के प्रारम्भिक पल। अमृत की आस में देव और असुर दोनों ही महासागर को मथ रहे थे। भगवान् कूर्म की पीठ पर मन्दराचल घूम रहा था। उसके घर-घर के रव से ब्रह्माण्ड आलोड़ित था। सभी आशान्वित थे कि रत्नाकर के गर्भ से अमृत निकलेगा, परन्तु निकला महाविष। अमृत के आकांक्षी तो सभी थे, परन्तु विष की ज्वाला में जलने को कोई भी तैयार न था। निखिल सृष्टि त्राहि-त्राहि करने लगी। प्राणि मात्र में व्याकुलता फैल गयी। जन्तुओं की कौन कहे, इस विष के आतप से वनस्पतियाँ भी झुलसने लगीं। सभी को केवल एक ही तारणहार दिखे- भगवान् सदाशिव। सब के सब भागे-भागे उन्हीं के पास गए। उस समय उन प्रभु की चेतना पराचेतना की भक्ति में लीन थी। भक्ति की भावसमाधि में डूबे थे भगवान्। माता जगदम्बा चित्शक्ति उनकी सेवा में लीन थीं। उन्होंने देवों-असुरों, ऋषियों के मुख से यह व्यथा सुनी। प्रेममयी सृष्टिजननी अपनी सन्तानों की पीड़ा से व्याकुल हो गयीं।
उन्होंने ही भगवान् भोलेनाथ को समाधि से व्युत्थित किया। प्रभु समाधि से जागे। उनके नेत्रों से करुणा झर रही थी। सभी की व्यथा ने उन्हें द्रवित कर दिया। उस समय उन महादेव को जिसने भी देखा उसी ने अनुभव किया कि भक्ति में केवल भावों की सजलता ही नहीं महाशक्ति की प्रचण्डता भी रहती है।’’ अपनी बात कहते-कहते महर्षि भृत्समद एक पल के लिए ठिठके और बोले- ‘‘उस समय आप भी तो थे देवर्षि, आप भी कुछ कहें।’’ ऋषि भृत्समद की वाणी ने परम भागवत नारद की स्मृतियों को कुरेदा। वे कहने लगे- ‘‘तप तो सभी करते हैं, देव, दानव, मानव, परन्तु इनका तप इनकी अहंता-ममता के इर्द-गिर्द ही रहता है, उसमें शिवमयता नहीं होती। जबकि भगवान शिव का तप पल-पल सृष्टि में प्राणों का संचार करता है। उसकी ऊष्मा एवं ऊर्जा से सृष्टि को गति एवं लय मिलती है।
उन पलों में भी जब सृष्टि की लय बिगड़ रही थी, इसकी गति का क्रम टूट रहा था। डमरूधर, शूलपाणि भगवान सृष्टि का शूल हरने के लिए उठ खड़े हुए और क्षणार्द्ध से भी कम समय में वहाँ जा पहुँचे, जहाँ सागरमंथन का उपक्रम हो रहा था। उन्हें देखकर सभी के मन में आशा का सूर्य उगा। भोलेनाथ ने महाज्वाला उगलते उस महाविष को देखा और एक ही क्षण में उसे निगल गये। उस क्षण ऐसा लगा जैसे कि सब कुछ थम गया। जो उनकी महिमा से सुपरिचित थे, वे शान्त रहे, परन्तु जो शंकालु थे, वे सोच में पड़ गये। उन्होंने यह भी सोच लिया कि कहीं स्वयं सदाशिव भी तो इस विष-ज्वाला से नहीं झुलस जायेंगे।
लेकिन जिसे भावभक्ति ने अमर कर दिया हो उसे भला विष स्पर्श भी क्या करेगा। जिसके हृदय में भक्ति की पवित्र ज्योति जलती है उसे संसार का अंधेरा छू भी नहीं सकता। सागरमंथन के समय सभी ने भगवान शिव की भक्ति का चमत्कार देखा। सभी ने उनके महातप की महिमा को पहचाना। सभी ने जाना- जहाँ सारी शक्तियाँ, दिव्य विभूतियाँ निरर्थक, निस्सार सिद्ध होती हैं, वहाँ केवल भक्ति की सार्थकता ही समर्थ सिद्ध होती है। भक्तिगाथा में उभरे इस शिवतत्त्व के मानसिक संस्पर्श ने सभी को दिव्य अनुभूति से भर दिया। सबके सब शिव स्मरण में लीन हो उठे-
यस्याङ्के च विभाति भूधरसूता च गरलं देवावभ्रामस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातुमाम्॥
जिनके अंक पर माँ हिमाचल सुता, मस्तक पर गंगा जी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष, वक्षःस्थल पर सर्पराज श्री शेष जी सुशोभित हैं; वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर भक्तों के पापनाशक, सर्वव्यापक, कल्याणरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।
भावभरे इस गायन ने हिमालय के कण-कण को आन्दोलित कर दिया। सभी के अंतस् में विद्यमान भक्तितत्त्व सघन होने लगा और फिर पलों में ही स्तुतिगान में वर्णित स्वरूप लेकर भगवान शिव स्वयं प्रकट हो गये। उनके साथ पराम्बा भी थीं। उन्होंने सभी को आशीष दिया- ‘‘तुम सभी का कल्याण हो, तुम सब सदा-सदा संसार में कलुषित हो रही भावनाओं को निर्मल बनाने में सहायक बनो। भगवान शिव एवं माता जगदम्बा का यह आशीष पा कर सभी के अंतस् भक्ति से भीगे थे। देवर्षि नारद की चेतना तो एक गहरी भावसमाधि में डूब गयी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २२