गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

👉 आज का सद्चिंतन 23 Dec 2016


👉 सतयुग की वापसी (भाग 18) 23 Dec

🌹 समस्याओं की गहराई में उतरें   

🔴 वस्तुत: उन सफलताओं के पीछे एक रहस्य काम कर रहा होता है कि उनने अपनी उपलब्धियों का सुनियोजन किया और बिना भटके, नियत उपक्रम अपनाए रहे। जनसहयोग भी उन्हीं के पीछे लग लेता है, जिनमें सद्गुणों का, सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है। इसी विधा का अनुकरण करने के लिए यदि तथाकथित दरिद्रों को भी सहमत किया जा सके, तो वे आलस्य-प्रमाद की, दीनता-हीनता की केंचुली उतारकर, अभीष्ट दिशा में अपने बलबूते ही इतना कुछ कर सकते हैं, जिसे सराहनीय और सन्तोषप्रद कहा जा सके।   

🔵 इसके विपरीत यदि बाहरी अनुदानों पर ही निर्भर रहा जाए तो जो मिलता रहेगा, वह फूटे घड़े में पानी भरते जाने की तरह व्यर्थ रहेगा और कुछ पल्ले पड़ेगा नहीं। दुर्व्यसनों के रहते, आसमान से बरसने वाली कुबेर की सम्पदा भी अनगढ़ व्यक्तियों के पास ठहर न सकेगी। अनुदानों का वांछित लाभ न मिल सकेगा।  

🔴 अशिक्षा का कारण यह नहीं है कि पुस्तकें, कापियाँ, कलमें मिलना बन्द हो गई हैं या इतनी निष्ठुरता भर गई है कि पूछने पर कुछ बता देने के लिए कोई तैयार नहीं होता, वरन् वास्तविक कारण यह है कि शिक्षा का महत्त्व ही अपनी समझ में नहीं आता और उसके लिए उत्साह ही नहीं उमगता। पिछड़े क्षेत्रों में खोले गए स्कूल प्राय: छात्रों के अभाव में खाली पड़े रहते हैं और नियुक्त अध्यापक रजिस्टरों में झूठी हाजिरी लगाकर, खाली हाथ वापस लौट जाते हैं। यदि उत्साह उमगे तो जेल में लोहे के तसले को पट्टी और कंकड़ को कलम बनाकर विद्वान् बन जाने वालों का उदाहरण हर किसी के लिए वैसा ही चमत्कार प्रस्तुत कर सकता है। उत्कण्ठा की मन:स्थिति रहते, सहायकों की सहायता की कमी भी रहने वाली नहीं हैं।     

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 1 ) 23 Dec


🔵 गायत्री-उपासना के सन्दर्भ में कई प्रकार की शंकायें उठती रहती हैं। इनका उपयुक्त समाधान न मिलने से, जिस-तिस द्वारा बताये गये भ्रान्त विचारों को ही स्वीकार करना पड़ता है। समय-समय पर प्रस्तुत की जाने वाली शंकाओं में से कुछ समाधान अगले पृष्ठों में प्रस्तुत है।


🌹 गायत्री एक या अनेक

🔴 गायत्री महामंत्र एक है। वेदमाता, भारतीय संस्कृति की जन्मदात्री, आद्यशक्ति के नाम से प्रख्यात गायत्री एक ही है। वही संध्यावन्दन में प्रयुक्त होती है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय गुरुदीक्षा के रूप में भी उसी को दिया जाता है। इसलिए उसे गुरुमंत्र भी कहते हैं। अनुष्ठान-पुरश्चरण इसी आद्यशक्ति के होते हैं। यह ब्रह्मविद्या है—ऋतम्भरा प्रज्ञा है। सामान्य नित्य उपासना से लेकर विशिष्टतम साधनाएं इसी प्रख्यात गायत्री मंत्र के माध्यम से होती हैं। इसके स्थान पर या समानान्तर किसी और गायत्री को प्रतिद्वन्द्वी के रूप में खड़ा नहीं किया जा सकता है।

🔵 मध्यकालीन अराजकता के अन्धकार भरे दिनों में उपासना विज्ञान की उठक-पटक खूब हुई है और स्वेच्छाचार फैलाने में निरंकुशता बरती गई है। उन्हीं दिनों ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्य वर्ग की अलग-अलग गायत्री गढ़ी गईं। उन्हीं दिनों देवी-देवताओं के नाम से अलग-अलग गायत्रियों का सृजन हुआ। गायत्री महामन्त्र की प्रमुखता और मान्यता का लाभ उठाने के लिए देव वादियों ने अपने प्रिय देवता के नाम पर गायत्री बनाई और फैलाई होंगी। इन्हीं का संग्रह करके किसी ने चौबीस देव-गायत्री बना दी प्रतीत होती हैं।

🔴 देव-मंत्र यदि गायत्री छन्द में बने हों तो हर्ज नहीं, पर उनमें से किसी को भी महामन्त्र गायत्री का प्रतिद्वन्द्वी या स्थानापन्न नहीं बनाया जाना चाहिए और न जाति-वंश के नाम पर उपासना क्षेत्र में फूट-फसाद खड़ा करना चाहिए। देवलोक में कामधेनु एक ही है और धरती पर भी गंगा की तरह गायत्री भी एक ही है। चौबीस अक्षर—आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण—तीन व्याहृतियां—एक ओंकार इतना ही आद्य गायत्री का स्वरूप है। उसी को बिना जाति, लिंग आदि का भेद किये सर्वजनीन-सार्वभौम उपासना के रूप में प्रयुक्त करना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 42) 23 Dec

🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा

🔵 भीतर और बाहरी जीवन के दोनों पहलू निरन्तर विकसित होते रहें ऐसा कार्यक्रम सदा जारी रहना चाहिए। भविष्य में उन्नति कर सकने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है उन साधनों को जुटाने के लिये सदैव ध्यान रखना आवश्यक कर्तव्य है। अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक कठिनाई को हल करने योग्य शिक्षा, योग्यता और अनुभव संपादन किये बिना जीवन सुखमय नहीं बन सकता।

🔴 इसलिये पढ़ने लिखने की, कमाने की, स्वस्थ रहने की, बीमारी से बचे रहने की, बोलने-चलाने की, लेने देने की योग्यताएं एकत्रित करने के अवसर हर एक को मिलने चाहिए। अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी योग्यता से अपना निर्वाह कर लेने की क्षमता संपादन करने का आरम्भ से ही ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि दुर्भाग्यवश ऐसे अवसर भी जीवन में आ सकते हैं जब नियत सम्पत्ति से या स्वजनों से हाथ धोना पड़े। ऐसे समय में वही मनुष्य विजयी होता है जिसने विपत्ति से लड़ने योग्य शास्त्रों से अपने को पहले से ही सुसज्जित कर रखा हो।

🔵 इन चारों बातों को घर के हर मनुष्य के ऊपर लागू करके देखना चाहिए कि इन आवश्यकताओं में से कौन सी बात किसे प्राप्त नहीं हो रही है। जो बात जिसे प्राप्त नहीं हो रही हो उसे प्राप्त कराने का यथा शक्ति अवश्य ही उद्योग करना चाहिये। यदि घर के दस आदमियों का जीवन किसी हद तक सुखी और समृद्ध बनाया जा सका तो समझिये कि विश्व कल्याण में, परमार्थ में, धर्म विस्तार में वृद्धि हुई और अपने को पुण्य फल मिला। यदि प्रथम प्रयास प्रत्यक्ष रूप से सफल न भी हो तो भी लाभ ही है क्योंकि अपनी सद्भावनायें सदा अपने मस्तिष्क में काम करती रहेंगी और वे शुभ संस्कारों के रूप में अन्तःक्षेत्र में अपनी जड़ जमा लेंगी। यह शुभ संस्कार चुपचाप पल्लवित होते रहते हैं और अपने लोक परलोक को नाना विधि से आनंदित एवं सुख समृद्धि युक्त बनाते रहते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 55)

🌹 कला और उसका सदुपयोग

🔴 80. ईमानदार उपयोगी-स्टोर— ऐसे स्टोर चलाये जांय जहां शुद्ध खाद्य वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल सकें। खाद्य पदार्थों की अशुद्धता अक्षम्य है। इससे जन स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है। इस अभाव की पूर्ति कोई ईमानदार व्यक्ति कर सकें तो उससे उनकी अपनी आजीविका भी चले और जनता की आवश्यकता भी पूर्ण हो। आटा, दाल, चावल, तेल, घी, दूध, शहद, गुड़, मेवा, मसाले, औषधियां, चक्की, भाप से पकाने के बर्तन, व्यायाम साधन, साहित्य, पूजा उपकरण एवं अन्य आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं का उचित मूल्य पर अभाव पूर्ति करने वाले व्यापारी आज की स्थिति में समाज-सेवी ही कहे जा सकते हैं।

🔵 81. सम्मेलन और गोष्ठियां— सद्भावनाओं को जागृत करने वाला लोक-शिक्षण भी व्यापक रूप से आरम्भ किया जाना चाहिए। इसके लिए समय-समय पर छोटे बड़े सम्मेलन, विचार गोष्ठियां, सत्संग एवं सामूहिक आयोजन करते रहना चाहिए। एकत्रित जन-समूह को विचार देने में सुविधा रहती है और उत्साह भी बढ़ता है। गायत्री यज्ञों के छोटे-छोटे आयोजन भी इस दृष्टि से उपयोगी रहते हैं। बहुत बड़ी सभाओं की भीड़-भाड़ की अपेक्षा विचारशील लोगों के छोटे सम्मेलन अधिक उपयोगी रहते हैं। उनमें ही कुछ ठोस कार्य की आशा की जा सकती है।

🔴 82. नवरात्रि में शिक्षण शिविर— समय-समय पर सद्भावना शिक्षा शिविर होते रहें, इस दृष्टि से आश्विन और चैत्र की नवरात्रियां सर्वोत्तम रहती हैं। उस समय नौ-नौ दिन के शिविर हर जगह किये जाया करें। प्रातःकाल जप, हवन, अनुष्ठान का आयोजन रहे। तीसरे पहर विचार गोष्ठी और भजन कीर्तन एवं रात्रि को सार्वजनिक प्रवचनों का कार्यक्रम रहा करे। अन्तिम दिन जुलूस, प्रभात-फेरी एवं बड़े सामूहिक यज्ञ के साथ पूर्णाहुति, प्रसाद वितरण आदि का कार्यक्रम रहा करे। प्रसाद में सच्चा सत्साहित्य भी वितरण किया जाया करे। बलिदान में बुराइयां छुड़ाई जाया करें। नारी प्रतिष्ठा की दृष्टि से अन्त में कन्या-भोज किया जाया करे। भाषणों और प्रवचनों की आवश्यकता युग-निर्माण की विचारधारा को प्रस्तुत कर सकने वाले कोई भी कुशल वक्ता आसानी से पूरी कर सकते हैं। वर्ष में नौ-नौ दिन के दो नवरात्रि आयोजन शिक्षण शिविरों के रूप में चलते रहें तो इससे उपासना और भावना के दोनों ही महान् लाभों से जन-साधारण को लाभान्वित किया जा सकता है। पर्व और त्यौहारों पर भी इन्हें विकसित बनाने के लिए ऐसे ही आयोजन किये जाते रहने चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 23)

🌹 अपनी दुनियाँ के स्वयं निर्माता
🔵 आप दुनियाँ के अंधेरे को तमोगुण को देखना बंद करके प्रकाश को सतोगुण को देखिए। फिर देखिए कि यह दुनियाँ जो नरक सी दिखलाई पड़ती थी, एक दिन बाद स्वर्ग बन जाती है। कल आपको अपना पुत्र अवज्ञाकारी लगता था, स्त्री कर्कश प्रतीत होती थी, भाई जान लेने की फिक्र में थे, मित्र कपटी थे, वे अपनी दृष्टि बदलने के साथ ही बिल्कुल बदल जाएँगे। कारण यह है कि जितना विरोध दिखाई पड़ता है, वास्तव में उसका सौवाँ हिस्सा ही मतभेद होता है, शेष तो कल्पना का रंग दे देकर बढ़ाया जाता है। पुत्र ने सरल स्वभाव से या किसी अन्य कारण से आपका कहना नहीं माना। आपने समझ लिया कि यह मेरा अपमान कर रहा है। अपमान  का विचार आते ही क्रोध आया, क्रोध के साथ अपने सुप्त मनोविकार जागे और उनके जागरण के साथ एक भयंकर तामसी मानसिक चित्र बन गया। जैसे मन में भय उत्पन्न होते ही झाड़ी में से एक बड़े-बड़े दाँतों वाला, लाल आँखों वाला, काला भुसंड भूत उपज पड़ता है, वैसे ही क्रोध के कारण जगे हुए मनोविकारों का आसुरी मानसिक चित्र पुत्र की देह में से झाड़ी के भूत की तरह निकल पड़ता है। बेचारा पुत्र यह चाहता भी न था कि मैं जानबूझ कर अवज्ञा कर रहा हूँ, यह कोई पाप है या इससे पिताजी नाराज होंगे, पर परिणाम ऐसा हुआ जिसकी कोई आशा न थी।
 
🔴 पिता जी आग-बबूला हो गए, घृणा करने लगे, दण्ड देने पर उतारू हो गए और अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाने लगे। न कुछ का इतना बवण्डर बन गया। पुत्र सोचता है कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ, खेलने जाने की धुन में पिता को पानी का गिलास देना भूल गया था या उपेक्षा कर गया था, इतनी सी बात पर इतना क्रोध करना, लांछन लगाना, दण्ड देना कितना अनुचित है। इस अनुचितता के विचार के साथ ही पुत्र को क्रोध आता है, वह भी उसी प्रकार के अपने मनोविकारों को उकसाकर पिता के सरल हृदय में दुष्टता, मूर्खता, क्रूरता, शत्रुता और न जाने कितने-कितने दुर्गुण आरोपित करता है और वह भी एक वैसा ही भूत उपजा लेता है। दोनों में कटुता बढ़ती है। वे भूत आपस में लड़ते हैं और तिल का ताड़ बना देते हैं। कल्पना का भूत रत्ती भर दोष को, बढ़ाते-बढ़ाते पर्वत के समान बना देता है और वे एक-दूसरे के घोर शत्रु, जान के ग्राहक बन जाते हैं।

🔵  हमारे अनुभव में ऐसे अनेकों प्रसंग आए हैं, जब हमें दो विरोधियों में समझौता कराना पड़ा है, दो शत्रुओं को मित्र बनाना पड़ा है। दोनों में विरोध किस प्रकार आरम्भ हुआ इसका गंभीर अनुसंधान करने पर पता चला कि वास्तविक कारण बहुत ही स्वल्प था, पीछे दोनों पक्ष अपनी-अपनी कल्पनाएँ बढ़ाते गए और बात का बतंगड़ बन गया। यदि एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें, दोनों अपने-अपने भाव एक-दूसरे पर प्रकट कर दें और एक-दूसरे की इच्छा, स्वभाव, मनोभूमि का उदारता से अध्ययन करें, तो जितने आपसी तनाव और झगड़े दिखाई पड़ते हैं, उनका निन्यानवे प्रतिशत भाग कम हो जाय और सौ भाग से एक भाग ही रह जाए। क्लेश-कलह के वास्तविक-कारण इतने कम हैं कि उनका स्थान आटे में नमक के बराबर स्वाद परिवर्तन जितना ही रह जाता है। मिर्च बहुत कड़ुई है और उसका खाना सहन नहीं होता, पर स्वल्प मात्रा में तो रुचिकर है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "हमारी वसीयत और विरासत" (भाग 4)

🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

🔴 हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लम्बी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था ‘‘साधना से सिद्धि’’ का अन्वेषण-पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा सम्भव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातन काल से चली आ रही ‘‘साधना से सिद्धि’’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत? इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए।

🔵 यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘‘गायत्री दीक्षा’’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघु कौमुदी सिद्धांत के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत् की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत् का आद्योपान्त वृत्तांत याद हो गया।

🔴 इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासन प्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए।

🔵 संध्या वंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 4)

🌞  हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य

🔴 सभी पुरुषार्थों में आध्यात्मिक पुरुषार्थ का मूल्य और महत्व अधिक है ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि सामान्य सम्पत्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति सम्पदा की महत्ता अधिक है। धन, बुद्धि, बल आदि के आधार पर अनेकों व्यक्ति उन्नतिशील, सुखी एवं सम्मानित बनते हैं पर उन सबसे अनेकों गुना महत्व वे लोग प्राप्त करते हैं जिन्होंने आध्यात्मिक बल का संग्रह किया है। पीतल और सोने में कांच और रत्न में जो अन्तर है वही अन्तर सांसारिक सम्पत्ति एवं आध्यात्मिक सम्पदा के बीच में भी है। इस संसार में धनी, सेठ, अमीर, उमराव, गुणी, विज्ञान, कलावन्त बहुत हैं पर उनकी तुलना उन महात्माओं के साथ नहीं हो सकती जिनने अपने आध्यात्मिक पुरुषार्थ के द्वारा अपना ही नहीं सारे संसार का हित साधना किया। प्राचीनकाल में सभी समझदार लोग अपने बच्चों को कष्ट सहिष्णु अध्यवसायी, तितीक्षाशील एवं तपस्वी बनाने के लिये छोटी आयु में ही गुरुकुलों में भर्ती करते थे ताकि आगे चलकर वे कठोर जीवन यापन करके अभ्यस्त होकर महापुरुषों की महानता के अधिकारी बन सकें।

🔵 संसार में जब कभी कोई महान कार्य सम्पन्न हुए हैं तो उनके पीछे तपश्चर्या की शक्ति अवश्य रही है। हमारा देश देवताओं और नररत्नों का देश रहा है। यह भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है, ज्ञान, पराक्रम और सम्पदा की दृष्टि से यह राष्ट्र सदा से विश्व का मुकुटमणि रहा है। उन्नति के इस उच्च शिखर पर पहुंचने का कारण यहां के निवासियों की प्रचण्ड तप निष्ठा ही रही है, आलसी और विलासी, स्वार्थी और लोभी लोगों को यहां सदा से घृणित एवं निष्कृष्ट श्रेणी का जीव माना जाता रहा है। तप शक्ति की महत्ता को यहां के निवासियों ने पहचाना, तत्वत कार्य किया और उसके उपार्जन में पूरी तत्परता दिखाई तभी यह संभव हो सका कि भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं सम्पदाओं के स्वामी होने का इतना ऊंचा गौरव प्राप्त हुआ।

🔴 पिछले इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत बहुमुखी विकास तपश्चर्या पर आधारित एवं अवलंबित रहा है। सृष्टि के उत्पन्न कर्ता प्रजापति ब्रह्माजी के सृष्टि निर्माण के पूर्व विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल पुष्प पर अवस्थित होकर सौ वर्षों तक गायत्री उपासना के आधार पर तप किया तभी उन्हें सृष्टि निर्माण एवं ज्ञान विज्ञान के उत्पादन की शक्ति उपलब्ध हुई। मानव धर्म के आविष्कर्ता भगवान मनु ने अपनी रानी शतरूपा के साथ प्रचण्ड तप करने के पश्चात् ही अपना महत्व पूर्ण उत्तरदायित्व पूर्ण किया था, भगवान शंकर स्वयं तप रूप हैं। उनका प्रधान कार्यक्रम सदा से तप साधना ही रहा। शेष जी तप के बल पर ही इस पृथ्वी को अपने शीश पर धारण किए हुए हैं। सप्त ऋषियों ने इसी मार्ग पर दीर्घ काल तक चलते रह कर वह सिद्धि प्राप्त की जिससे सदा उनका नाम अजर अमर रहेगा। देवताओं के गुरु बृहस्पति और असुरों के गुरु शुक्राचार्य अपने-अपने शिष्यों के कल्याण मार्ग दर्शन और सफलता की साधना अपनी तप शक्ति के आधार पर ही करते रहे हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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