आत्मा परमात्मा का अंश है। जिन भोगों से शरीर को आनन्द मिलता है। उन्हीं से आत्मा को भी मिले आवश्यक नहीं। जिस क्षण से हम इस दुनिया में आते हैं उससे लेकर मृत्यु तक आत्मा हमारे शरीर में उपस्थित है। शरीर के भिन्न भिन्न अवयवों की क्षमता विशेषता एवं क्रिया कलाप के बारे में बहुत सी बातें जानते हैं और अधिक जानने का प्रयास करते हैं। लेकिन अपने ही अन्दर छिपी आत्म को जानने पहचानने समझने एवं विकसित करने की बात हम नहीं जानते।
जीवन के समग्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह आवश्यक है कि हम शरीर एवं आत्मा दोनों के समन्वित विकास परिष्कार एवं तुष्टि पुष्टि का दृष्टिकोण बनावे। एक को ही सिर्फ विकसित करे और एक को अपेक्षित करें ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से सच्चा आनन्द नहीं मिल सकता। सिर्फ आत्मा का ही परिष्कार एवं विकास करें और शरीर को उपेक्षित करें इससे भी अपना कल्याण नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब आत्म को कष्ट पहुँचता है तो मन दुःखी होकर शरीर को प्रभावित करता है।
जिन्होंने अपनी आत्म को दीन हीन स्थिति में रखा है और उसकी प्रचण्ड शक्ति से परिचित नहीं है वे मुर्दों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर होते हैं। वे शारीरिक सामर्थ्य रहते हुए भी बड़ी गयी गुजरी स्थिति में रहते हैं और निराशा चिन्ता एवं निरर्थक जीवन बिताते रहते हैं। जबकि अपाहिज अपंग क्षीणकाय रुग्ण एवं दुर्बल व्यक्तियों ने भी अपने आत्मबल के द्वारा ऐसे कार्य सम्पादित किये है जिनसे वे इतिहास में अमर हो गये है। सैकड़ों लोगों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बने है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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