शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

👉 एक प्यार ऐसा भी....

नींद की गोलियों की आदी हो चुकी बूढ़ी माँ नींद की गोली के लिए ज़िद कर रही थी।

बेटे की कुछ समय पहले शादी हुई थी।

बहु डॉक्टर थी। बहु सास को नींद की दवा की लत के नुक्सान के बारे में बताते हुए उन्हें गोली नहीं देने पर अड़ी थी। जब बात नहीं बनी तो सास ने गुस्सा दिखाकर नींद की गोली पाने का प्रयास किया।

अंत में अपने बेटे को आवाज़ दी।

बेटे ने आते ही कहा, 'माँ मुहं खोलो। पत्नी ने मना करने पर भी बेटे ने जेब से एक दवा का पत्ता निकाल कर एक छोटी पीली गोली माँ के मुहं में डाल दी।
पानी भी पिला दिया। गोली लेते ही आशीर्वाद देती हुई माँ सो गयी।

पत्नी ने कहा,

ऐसा नहीं करना चाहिए। पति ने दवा का पत्ता अपनी पत्नी को दे दिया। विटामिन की गोली का पत्ता देखकर पत्नी के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी।

धीरे से बोली

आप माँ के साथ चीटिंग करते हो।

''बचपन में माँ ने भी चीटिंग करके कई चीजें खिलाई है। पहले वो करती थीं, अब मैं बदला ले रहा हूँ।

यह कहते हुए बेटा मुस्कुराने लगा।"

👉 आज का सद्चिंतन 22 Feb 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 Feb 2019


👉 दुःखों की गठरी घटे कैसे ?

दुःखों को कैसे बँटाया जाए और उनसे कैसे निबटा जाए, इस संबंध में बायजीद नामक एक सूफी फकीर ने बड़ी सुंदर कथा कही है। उस फकीर ने एक दिन प्रार्थना की, हे मेरे भगवान्! मेरे मालिक!! मेरा दुःख किसी और को दे। मुझे थोड़ा छोटा दुःख दे दो, मेरे पास बहुत दुःख हैं। प्रार्थना करते- करते उसको नींद लग गई। उसने स्वप्र देखा कि खुदा मेहरबान है। दुनिया के सब लोग आकर उसके पास दुःखों की गठरियाँ टाँगते चले जा रहे हैं। भगवान् कह रहे हैं कि अपनी गठरियाँ मेरे पास बाँध दो और मनचाही वह दूसरी लेते जाओ। बायजीद मुस्कराए, सोचा भगवान् ने मन की बात सुन ली। अब मैं भी अपनी दुःखों की गठरी बाँधकर हलके दुःखों वाली गठरी ले जाता हूँ। बायजीद ने आश्चर्य से देखा कि दुनिया में दुःख तो बहुत हैं। न्यूनतम दुःखों वाली गठरी भी उसकी गठरी से दुगनी थी। सपने में ही वह भागा कि अपनी वाली गठरी पहले उठा लूँ। कहीं ऐसा न हो कि मेरे जिम्मे दुगने दुःखों वाली गठरी आ जाए और मेरी गठरी कोई और ले जाए। माँगा तो था मैंने कम दुःख और कोई मुझे अधिक दुःख पकड़ा जाए।

यदि इस कथा का मर्म हमारी समझ में आ जाए, तो हम भगवान् से, अपने खुदा से, अपने इष्ट से कभी प्रार्थना नहीं करेंगे कि हमारे दुःख कम हों, हम कहेंगे कि औरों के दुःख कम हों, उनकी फलों में आसक्ति कम हो, वे विकर्मी नहीं दिव्यकर्मी बनें। दुःख हमारे हित में है। दुःख को तप बना लेना ज्ञानी का काम है। सुख को यही ज्ञानी योग बना लेता है। जो दुःख में, कष्ट में परेशान हो जाए, उद्विग्र हो जाए तथा सुख में भोग- विलासी बन जाए, वह अज्ञानी है। ज्ञान की पवित्र अग्रि में कर्मों को भस्म कर व्यक्ति यही पहला मर्म सीखता है कि मुझे औरों के लिए जीना चाहिए। जीवन भर परम पूज्य गुरुदेव यही शिक्षण हमें देते चले गए। उन्होंने कहा, ‘‘औरों के हित जो जीता है, औरों के हित जो मरता है, उसका हर आँसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है।’’ इसी आग ने तो कइयों के अंदर परहितार्थाय मर मिटने की अलख जगा दी और देखते- देखते एक विराट् संगठन गायत्री परिवार का खड़ा होता चला गया।

👉 बिल्ली ने सपना देखा

बिल्ली ने सपना देखा कि वह शेर बन गई है और एक मोटी- सी बकरी का शिकार कर रही है। शिकार का स्वाद लेने भी न पाई कि उसने देखा कि पड़ोसी का मोटा कुत्ता भोंकता हुआ उसके ऊपर चढ़ दौड़ा। बिल्ली ने बकरी छोड़ दी और वह भाग कर मालिकन की पौली में आ छिपी। दूसरा सपना बिल्ली ने फिर देखा कि वह कुत्ता बन गई है और मालकिन के चौके में घुस कर स्वादिष्ट व्यंजनों पर हाथ साफ करने की तैयारी कर रही है, इतने में मालकिन आ पहुँची और उन्होंने मोटे बेलन से मार- मार कर उसे बेदम कर दिया और वह बुरी तरह कराहने लगी।

उनींदी बिल्ली को कराहते- कलपते देख मालकिन ने उसे जगाया। बिल्ली ने आँखें खोलीं तो कहीं कुछ न था। उसने मालकिन से कहा- 'अब मैं वही बनी रहूँगी, जो हूँ। रूप बदलने में तो खतरा ही खतरा रहता है। '

अपने स्वरूप को हम अच्छी तरह समझे रहें, कभी भूलें नहीं इसका स्मरण विभिन्न घटना- क्रम दिलाते रहते है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 18 से 20

अधुनास्ति हि संर्वत्राऽनास्था क्रमपरम्परा ।
अदूरदर्शिताग्रस्ता जना विस्मृत्य गौरवम् ॥१८॥
अचिन्त्यचिन्तना जाता अयोग्याचरणास्तथा ।
फलत: रोगशोकार्तिकलहक्लेशनाशजम् ॥१९॥
वातावरणमुत्पन्नं भीषणाश्च विभीषिका: ।
अस्तित्वं च धरित्यास्तु संदिग्धं कुर्वतेऽनिशम्॥२०॥

टीका:- इन दिनों सर्वत्र अनास्था का दौर है अदूरदर्शिताग्रस्त हो जाने से लोग मानवी गरिमा को भूल गये हैं । अचिन्त्य-चिन्तन और अनुपयुक्त आचरण में संलग्न हो रहे है, फलत: रोग, शोक, कलह, भय, और विनाश का वातावरण बन रहा है। भीषण- विभीषिकाएँ निरन्तर धरती के अस्तित्व तक को चुनौती दे रही हैं।

व्याख्या:- यहाँ भगवान आज की परिस्थितियों पर संकेत करते हुए अनास्था की विवेचना करते हैं व वातावरण में संव्याप्त रूप तथा भयावह परिस्थितियों का कारण भी श्रद्धा तत्व की अवमानना को ही बताते हैं। मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से ही आचरण बनता हैं। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख-दुःख, उत्थान-पतन का निर्धारण करती हैं। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्य चक्र कुछ उल्टा चल रहा है-ऐसा कह कर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जब समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं। प्रतिकूलता का दोषी मूर्धन्य राजनेताओं को भी ठहराया जा सकता है। पर भूलना नहीं चाहिए कि इन सबका उद्गम केन्द्र मानवों अन्तराल ही है। आज की विषम परिस्थितियों को बदलने की जो आवश्यकता समझते हैं, उन्हें कारण तह तक जाना होगा। अन्यथा सूखे पेड़, मुरझाते वृक्ष को हरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते सींचने जैसी विडम्बना ही चलती रहगी।

आज अस्त: के उद्गम से निकलने तथा व्यक्तित्व व परिस्थितियों का निर्माण करने वाली आस्थाओं का स्तर गिर गया है। मनुष्य ने अपनी गरिमा खो दी हैं और संकीर्ण स्वार्थपरता का विलासी परिपोषण ही उसका जीवन लक्ष्य बन गया है। वैभव सम्पादन और उद्धत प्रदर्शन, उच्छृंखल दुरुपयोग ही सबको प्रिय है। समृद्धि बढ़ रही है, पर उसके साथ रोग-कलह भी प्रगति पर हैं। प्रतिभाओं की कमी नहीं पर श्रेष्ठता संवर्धन व निकृष्टता उन्मूलन हेतु प्रयास ही नहीं बन पढ़ते। लोक मानस पर पशु प्रवृत्तियों का ही आधिपत्य है। आदर्शों के प्रति लोगों का न तो रुझान हैं, न उमंग ही। दुर्भिक्ष-सम्पदा का नहीं, आस्थाओं का है। स्वास्थ्य की गिरावट, मनोरागों की वृद्धि अपराध वृत्ति तथा उद्दण्डता सारे वातावरण में संव्याप्त है और ये ही अदृश्य जगत में उस परिस्थिति को विनिर्मित कर रही हैं, जिसके रहते धरती महाविनाश-युद्ध की विभीषिकाओं के बिल्कुल समीप आ खडी हुई है।

भगवान ने यहाँ स्पष्ट संकेत युग की समस्याओं के मूल कारण आस्था संकट की ओर किया है। सड़ी कीचड़ में से मक्खी, मच्छर कृमि-कीटक, विषाणु के उभार उठते हैं। रक्त की विषाक्तता फुंसियों के के रूपं में, ज्वर प्रदाह के रूप, में प्रकट होती हैं। ऐसें में प्रयास कहाँ हो ताकि मूल कारण को हटाया जा सके। अंत: की निकृष्टता को मिटाया जा सकें इसी तथ्य की विवेचना वे करते हैं।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 9-10

👉 अशुभ चिंतन छोड़िये-भय मुक्त होइये (भाग 2)

इसके उत्तर में जिन्न ने कहा कि “तुम्हीं ने मुझे बुलाया है और तुम्हीं ने मुझे डराने के लिए जिम्मेदार किया है। इसके लिए तुम्हीं जिम्मेदार हो, क्योंकि तुम्हीं ने मुझे उत्पन्न किया है।” जापान के बड़े बुजुर्ग अपने बच्चों को यह कहानी सुनाते हुए बताते हैं कि यह जिन्न लोगों के बुलाने पर अब भी आता है तथा उन्हें तरह-तरह से परेशान करता है। इस जिन्न का नाम भय है। कुल मिलाकर यह कि भय अपने ही मन की उपज है। कौन यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि व्यापार में घाटा हो सकता है, परीक्षा में फेल हुआ जा सकता है, नौकरी में अधिकारी नाराज हो सकते हैं, काम धन्धा चौपट हो सकता है।

बिना किसी के कहने पर व्यक्ति स्वयं ही तो इस तरह की बातें सोचता है। अन्यथा क्या यह नहीं सोचा जा सकता कि व्यापार में पहले की अपेक्षा अधिक लाभ होगा, नौकरी में तरक्की हो सकती है, परीक्षा में पहले की अपेक्षा अच्छे नम्बरों से पास हुआ जा सकता है। व्यक्ति इस तरह का शुभ और आशाप्रद चिन्तन क्यों नहीं करता, क्यों वह अशुभ ही अशुभ सोचता है?

भविष्य की कल्पना करते समय शुभ और अशुभ दोनों की विकल्प सामने हैं। यह अपनी ही इच्छा पर निर्भर है कि शुभ सोचा जाए अथवा अशुभ। शुभ को छोड़कर कोई व्यक्ति अशुभ कल्पनाएँ करता है तो इसमें किसी और का दोष नहीं है, दोषी है तो वह स्वयं ही, इसलिए कि उसने शुभ चिन्तन का विकल्प सामने रहते हुए भी अशुभ चिन्तन को ही अपनाया।

अशुभ चिन्तन चुनने के पीछे भी कारण है। विगत के कटु अनुभवों, असफलताओं और कठिनाइयों से पीड़ित मन वर्तमान में भी लौट-लौटकर उन्हीं स्मृतियों को दोहराता रहता है और जाने-अनजाने अशुभ कल्पनायें करता रहता है। यह कल्पनाएँ ही व्यक्ति में भय उत्पन्न करती हैं। जबकि स्मरण के लिए अतीत के सुखद अनुभव, सफलताएँ और अनुकूलताएँ भी हैं। यदि उन्हें याद किया जाता रहे तो भविष्य के प्रति आशंकित होने के स्थान पर सुखद सम्भावनाओं से आशान्वित भी हुआ जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1981 पृष्ठ 20

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1981/January/v1.21

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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