परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद
इस बिन्दु पर पहुंचकर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदान्त धर्म में बहुत पहले से हैं। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ ‘एक नूर से सब जग उपजिया’ ‘संकल्पयति यन्नाम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, तत्तदेवाशु भवति तस्येदं कल्पनं जगत् । (योगवशिष्ठ 5।2।186।6), सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया, वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। ‘एक मेवाद्वयं ब्रह्म’ (छान्दोग्य 6।2।1) वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है। ‘ईकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलोनिर्गुणश्च ।
श्वेताश्व—6।11,
वही एक देव सब भूतों में ओत-प्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है, वह इस कर्मरूप शरीर का अध्यक्ष है। निर्गुण होते हुये भी चेतना-शक्तियुत है। पूर्व में क्या किया है, अब क्या कर रहा है, जीव की इस सम्पूर्ण क्रिया का साक्षी वही है, वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप से वास करता है।
उपरोक्त आख्यानों और पाश्चात्य वैज्ञानिकों की इस खोज में कि—‘‘संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुये हैं’’ जबर्दस्त साम्य है। वेदान्त के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसलिये जब हम अकेले वेदान्त को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक ‘पूर्ण पर ब्रह्म’ था, जब वही अपनी वासनाओं के कारण जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना, जीव जब अपने सांसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति ‘चैत’ कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती है, वही विशिष्टाद्वैत के नाम से कहा गया है, इसमें न कहीं कोई भ्रांति है, न मत अनैक्य। वेदान्त ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिये किये हैं, वैसे सिद्धान्त में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—
यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।
अणोरणीयानहमेव तद्वन्महान
विश्मिदं विचित्रम् ।
पुरातनोऽह पुरुषोऽहमीशा
हिरण्यमोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।
अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’
उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोष से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना लेने की क्षमता से परिपूर्ण हैं। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में 6 खरब कोशिकायें हैं, इन सबकी सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली पर हमारा वेदान्त उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती है, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करता है, नष्ट नहीं होता वही इच्छायें, अनुभूति, संवेग, संकल्प और जो भी सचेतन क्रियायें हैं करता या कराता है, पदार्थ में यह शक्ति नहीं है। क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है उसे ‘प्रज्ञान’ भी कहते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी