मंगलवार, 17 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५०)

परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद

इस बिन्दु पर पहुंचकर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदान्त धर्म में बहुत पहले से हैं। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ ‘एक नूर से सब जग उपजिया’ ‘संकल्पयति यन्नाम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, तत्तदेवाशु भवति तस्येदं कल्पनं जगत् । (योगवशिष्ठ 5।2।186।6), सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया, वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। ‘एक मेवाद्वयं ब्रह्म’ (छान्दोग्य 6।2।1) वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है। ‘ईकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलोनिर्गुणश्च ।
श्वेताश्व—6।11,
वही एक देव सब भूतों में ओत-प्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है, वह इस कर्मरूप शरीर का अध्यक्ष है। निर्गुण होते हुये भी चेतना-शक्तियुत है। पूर्व में क्या किया है, अब क्या कर रहा है, जीव की इस सम्पूर्ण क्रिया का साक्षी वही है, वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप से वास करता है।

उपरोक्त आख्यानों और पाश्चात्य वैज्ञानिकों की इस खोज में कि—‘‘संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुये हैं’’ जबर्दस्त साम्य है। वेदान्त के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसलिये जब हम अकेले वेदान्त को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक ‘पूर्ण पर ब्रह्म’ था, जब वही अपनी वासनाओं के कारण जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना, जीव जब अपने सांसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति ‘चैत’ कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती है, वही विशिष्टाद्वैत के नाम से कहा गया है, इसमें न कहीं कोई भ्रांति है, न मत अनैक्य। वेदान्त ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिये किये हैं, वैसे सिद्धान्त में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—
यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।
अणोरणीयानहमेव तद्वन्महान
विश्मिदं विचित्रम् ।
पुरातनोऽह पुरुषोऽहमीशा
हिरण्यमोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोष से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना लेने की क्षमता से परिपूर्ण हैं। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में 6 खरब कोशिकायें हैं, इन सबकी सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली पर हमारा वेदान्त उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती है, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करता है, नष्ट नहीं होता वही इच्छायें, अनुभूति, संवेग, संकल्प और जो भी सचेतन क्रियायें हैं करता या कराता है, पदार्थ में यह शक्ति नहीं है। क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है उसे ‘प्रज्ञान’ भी कहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५०)

अद्भुत थी ब्रज गोपिकाओं की भक्ति

विचार वीथियों में खोए हुए न जाने कितनी घड़ियाँ बीत गयीं। ऐसा लग रहा था, जैसे कि सभी की भावचेतना, भावसमाधि में निमग्न हो गयी हो। सबसे पहले ब्रह्मापुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी भावसमाधि की गहनता से उबरे। उनके नेत्रों से भक्ति की उज्ज्वल प्रकाश धाराएँ विकरित हो रही थीं। थोड़ी देर तक यूं ही वह सबको भक्ति भावों में डूबते-तिरते देखते रहे। फिर कहने लगे- ‘‘हम सभी में सबसे अधिक बड़भागी देवर्षि नारद हैं, जो भगवान् की अवतार लीलाओं के सदा साक्षी, साथी और सहचर बनते हैं। उनके जैसा सद्भाग्य और सौभाग्य भला और किसका हो सकता है? गोपियों की आन्तरिक भक्ति को जैसा इन्होंने देखा और समझा है, वैसी अनुभूति कोई अन्य नहीं प्राप्त कर सका है।’’ यह कहकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कुछ पलों के लिए रूके फिर सभी की ओर देखते हुए बोले- ‘‘मेरी इच्छा है कि देवर्षि, आप हमें ब्रज गोपिकाओं की भक्ति के और भी प्रसंग सुनाएँ।’’
    
अपनी बात समाप्त करके ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने पहले वहाँ उपस्थित सप्तर्षिमण्डल के सदस्यों की ओर देखा। फिर उन्होंने देवों एवं सिद्धों की ओर अपनी दृष्टि डाली। अन्य ऋषियों की ओर भी उनकी दृष्टि गयी। सभी की आँखों में प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के भाव थे। ऐसा लग रहा था कि सब के सब श्रीकृष्ण भक्ति का आनन्द पाने के लिए उत्सुक हैं। सभी को ब्रज-गोपिकाओं की उत्कट भक्ति ने मोहित कर लिया था। ऐसा पवित्र हृदय, ऐसा असीम अनुराग, ऐसा निष्काम समर्पण, हृदय का ऐसा सम्पूर्ण अर्पण, भला अन्य कहाँ देखा जा सकता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने जैसे सभी के मन की बात अपने मुख से कह दी थी। सभी उत्सुक थे- ब्रज की इन भक्तबालाओं का भावचरित सुनने के लिए।
    
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र एवं ब्रह्मर्षि पुलह ने भी देवर्षि से यही आग्रह किया। देवर्षि किंचित मुस्कराए, फिर उनके नेत्रों से कुछ एक भाव बिन्दु लुढ़क पड़े। जैसे-तैसे उन्होंने अपनी भावनाओं को उपशम किया। फिर वह कहने लगे- ‘‘ब्रज मुझे कभी भुलाए नहीं भूलता। गोकुल-नन्दगांव-बरसाना-वृन्दावन की वीथियों के रजकणों में भी भक्ति की पावन मधुरता है। आप सबने तो मेरे हृदय की बात कह डाली है। ब्रजगोपियों की कथा, मानवीय लगते हुए भी ईश्वरीय है क्योंकि वे सभी भगवान् श्रीकृष्ण के ईश्वरीय स्वरूप से परिचित व प्रेरित थीं। श्रीकृष्ण उनके लिए ग्वाल-गोप होते हुए प्रियतम-परमेश्वर थे।’’ ऐसा कहते हुए देवर्षि ने अपने अगले सूत्र का मन्त्रोच्चार किया-
    ‘तत्रापि न महात्म्यज्ञानविस्मृत्यपपादः’॥ २२॥
‘इस अवस्था में भी गोपियों में महात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं।’
    
‘‘सर्वेश्वर त्रिभुवनपति- बालरूप में, उनके आंगन में, उनके हृदय में लीला कर रहे हैं- ऐसा वे सभी जानती थीं।’’ देवर्षि नारद ने इतना कहकर सभी की ओर देखा, फिर थोड़ा सा चुप होकर विनम्रता से बोले- ‘‘आज सबको मैं नन्दगांव के एक दिन की कथा सुनाता हूँ। नन्दगांव में सूर्योदय हुआ। गाएँ, ग्वाल, गोप-गोपिकाएँ सभी जागे। माता यशोदा ने स्नान आदि से निवृत्त हो चुके अपने लाडले का शृंगार किया। उनके लाडले कन्हैया को तो अपने सखाओं से मिलने की शीघ्रता थी पर सखा भी तो उनसे मिलने के लिए बावले थे। सो श्रीदामा, मनसुखा आदि सभी सखा उनके द्वार पर जुटने लगे। सभी वृन्दावन जाने की जल्दी में थे।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...