शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

👉 समस्या रूपी बंदर:-

एक बार स्वामी विवेकानंद को बंदरों का सामना करना पड़ा था। वह इस आप बीती को कई अवसरों पर बड़े चाव के साथ सुनाया करते थे। इस अनुभव का लाभ उठाने की बात भी करते थे।

उन दिनों स्वामी जी काशी में थे वह एक तंग गली में गुजर रहे थे। सामने बंदरों का झुंड आ गया। उनसे बचने के लिए स्वामी जी पीछे को भागे। परंतु वे उनके आक्रमण को रोक नहीं पाए। बंदरों ने उनके कपडे तो फाड़े ही शरीर पर बहुत-सी खरोंचें भी आ गईं। दो-तीन जगह दांत भी लगे। शोर सुनकर पास के घर से एक व्यक्ति ने उन्हें खिड़की से देखा तुरंत कहा- “स्वामी जी! रुक जाओ, भागो मत। घूंसा तानकर उनकी तरफ बढ़ो। “स्वामी जी के पांव रुके। घूंसा तानते हुए उन्हें ललकारने लगे। बंदर भी डर गए और इधर-उधर भाग खड़े हुए। स्वामीजी गली को बड़े आराम से पार कर गए।

इस घटना को सुनाते हुए स्वामी जी अपने मित्रों तथा शिष्यों को कहा करते- “मित्रो! हमें चाहिए कि विपरीत हालात में डटे रहें, भागें नहीं। घूंसा तानें। सीधे हो जाएं। आगे बढ़ें। पीछे नहीं हटें। कामयाबी हमारे कदमों में होगी।“वास्तव में समस्या पलायन से नहीं सामना करने से खत्म होती है। भागने वालों का समस्या बंदर की भाँति पीछा करती है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २३)

आखिर कैसे मिले—सम्यक् ज्ञान?
  
पतञ्जलि का कहना है कि सम्यक् ज्ञान के लिए हमें सम्यक् तर्क करना आना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हम इस विराट् सृष्टि को देखें,गौर से निहारें और तर्क का सम्यक् प्रयोग करें, तो ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान होता है। यह ठीक है कि ईश्वर की सत्ता इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है। ईश्वर कहीं दिखाई नहीं देता, नजर नहीं आता। किन्तु यदि सम्यक् तर्क का प्रयोग करें,यह सोचें  कि विश्व ब्रह्माण्ड की व्यवस्था कितनी सुसंगत है,कितनी उद्देश्यपूर्ण है,तो इस निश्चय पर जरूर पहुँचेंगे कि ईश्वर के रूप में इसकी संचालक सत्ता का भी अस्तित्व होगा। इस तरह सम्यक् तर्क से ईश्वरीय सत्ता का बड़ा ही स्पष्ट अनुमान हो सकता है। बाद में योग साधना के द्वारा उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति भी पायी जा सकती है।
  
अब है सम्यक् ज्ञान का तीसरा स्रोत-आगम। यह सबसे अधिक सौन्दर्यपूर्ण है। आगम को सम्यक् ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकारना महर्षि पतञ्जलि की अपनी विशिष्टता है। यह आगम क्या है? तो महर्षि कहते हैं कि आगम महायोगियों के वचन हंै। ये ऋषियों की अनुभति की अभिव्यक्ति देने वाले शब्द है। इस बात को थोड़ा और स्पष्ट रीति से कहें, तो आगम-उन महान् विभूतियों के वचन हैं,जो जान चुके हैं। जो लक्ष्य तक पहुँच चुके हैं,जो कैवल्य ज्ञान को पा चुके हैं, जो ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार कर चुके हैं,उनके शब्द भी सम्यक् ज्ञान का स्रोत है।
  
परम्परा में आगम को वेद कहा जाता है। यह ठीक भी है क्योंकि वेद सत्य द्रष्टा ऋषियों के वचन है। परन्तु रूढ़ियों से ग्रस्त मूढ़ जन वेद के विराट् स्वरूप को केवल कतिपय मंत्र समुच्चय तक ही समेट देते हैं। यह ठीक नहीं है। आगम सत्य द्रष्टा ऋषियों के वचन है। भले ही संस्कृत में कहा गया हो,अथवा किसी अन्य भाषा में। व्यापक अर्थों में आगम में कबीर की साखी, मीरा के पद, श्रीरामकृष्ण का वचनामृत, महर्षि रमण के वचन, योगीराज अरविन्द का दिव्य जीवन संदेश और स्वयं परम पूज्य गुरुदेव के स्वर सभी कुछ समाहित हो जाता है। इन सत्य द्रष्टा ऋषियों—संतों के वचनों पर श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान का स्रोत है। योगपथ पर चलने वाले साधकों के लिए सम्यक् ज्ञान का यह तीसरा स्रोत सबसे अधिक  मत्त्वपूर्ण एवं व्यावहारिक है। योग साधना करने वालों के लिए यह भी कहा जा सकता है कि अपने सद्गुरु के वचनों पर परिपूर्ण श्रद्धा-सम्यक् ज्ञान का स्रोत है। सद्गुरु के वचन कभी-कभी बड़े अटपटे होते हैं। परन्तु वे प्रेम लपेटे होते हैं। उन्हें ठीक-ठीक समझ न पाने पर भी यदि कोई साधक उन पर समग्र श्रद्धा के साथ आचरण करने लगता है,तो उसे अपने आप ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है।
    
सद्गुरु के वचनों के सम्बन्ध में तर्क का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि ये चेतना के जिस तल से कहे गए हैं, वहाँ तर्क, बुद्धि की पहुँच ही नहीं है। यदि इस बारे में तर्क किया जाए, तो हम वह सब गवाँ बैठेंगे, जो हमें हमारे सद्गुरु देना चाहते हैं। क्योंकि वे न केवल यह जानते हैं कि उन्हें हम शिष्यों को क्या देना है? बल्कि वे यह भी जानते हैं कि जो हमारे लिए देने योग्य है,वह सब  किस तरह से देना है। इसलिए केवल और केवल भक्ति पूर्ण श्रद्धा ही एकमात्र उपाय है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं कि सद्गुरु जो कहें,जिस भी तरह कहें,उसे परिपूर्ण श्रद्धा के साथ करने पर सम्यक् ज्ञान सुनिश्चित है। इसमें कोई संदेह नहीं। प्रमाणवृत्ति के ये तीनों स्रोत हमारी अन्तर्यात्रा में सहायक है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ४३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Prayer: The Nourishment of Soul

If I do not get food I am least worried but it makes me mad if I miss my prayer. Prayer is million times more beneficial than food. One may forego his food but not his prayer. Prayer is the very nourishment of soul. It would be too good, if we could contemplate on God whole day long, but since it is not possible for us all, it is desirable that we should sit at least for a few hours every day in contemplation of God.

Eulogy, worship and prayer are not blind faiths, but they are real and true acts like eating, drinking, walking and sitting; nay, if we say that it is the only truth and all the rest are false and unreal, it would be no exaggeration. Offering of prayer does not mean begging, but, in fact, it is the natural voice of soul. When we fully come to realize our incapabilities and leaving all other worldly recourses aside, confide our faith in God, the very outburst of our emotions in such a state is called prayer. The offering of prayer and singing songs in praise of God are not mere utterances of one's tongue but are actually the outpourings of one's heart. This is the reason that even the dumb, the stammerers, and the stupid persons can also offer prayer.

The main purpose of offering prayer is, to seek discourse with God and to gain light for the purification of the soul, so that we could win over our weaknesses. Prayer devoid of emotion is of no use.

What to talk of the other world, even in this world prayer is a source of peace and happiness. So if we really wish to become human, we must make our lives interesting and fruitful through prayer. It is, therefore, advisable for everyone to remain engrossed in prayer with heart and soul. All complicated riddles arising out of national, social and political problems find their easy and quick solutions through prayer than through intellect.

MAHATMA GANDHI

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