सोमवार, 26 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १०)

असंभव को संभव करती है भक्ति

देवर्षि नारद को जब भावसमाधि से चेत हुआ तो उनकी आँखों से भावबिन्दु झर रहे थे। भावों की प्रगाढ़ता के कारण उनका मुख आरक्त था और देह में एक सात्त्विक कम्प हो रहा था। उनकी भाव चेतना से प्रस्फुटित हो रहे इस भक्ति के उद्रेक ने वहाँ उपस्थित सभी ऋषियों व देवों के समुदाय को भक्तिमय कर दिया। इन्हीं क्षणों में महागायक गन्धर्वराज तुम्बरु अपनी गायन मण्डली के साथ आ पहुँचे। उनकी इस मण्डली में गन्धर्वों के साथ पुञ्जिकस्थली, सुवर्णा आदि अप्सराएँ थीं। इन्हें देवराज इन्द्र की सभा में सूचना मिली थी कि देवात्म हिमालय के गुह्य क्षेत्र में देवर्षि नारद के सान्निध्य में सप्तर्षि मण्डल भक्ति संगम कर रहा था। भक्ति के इस आकर्षण ने तुम्बरु के अन्तस् को बलात् खींच लिया।
    
इस आकर्षण का एक कारण देवर्षि का सान्निध्य पाना भी था। हो भी क्यों न? तुम्बरु ने देवर्षि से ही सात सुरों की बारीकियाँ, इसके आरोह-अवरोह सीखे थे और साथ ही यह भी जाना था गीतों के गायन का, संगीत  के सरगम का वास्तविक उद्देश्य भावों की संशुद्धि है। भावों की सच्ची साधना में कला निखरती है। इस सत्य को जानने वाले तुम्बरु ने आते ही अपने अनुचरों-अप्सराओं के साथ ऋषियों को प्रणाम किया, देवर्षि की चरण रज ली और फिर वहाँ के पवित्र उद्रेक से स्पन्दित होकर शिव-शिव, नारायण-नारायण, जय जगजननी माँ का कीर्तन करने लगे। भगवन्नाम के इस पवित्र नाद से हिमालय की चैतन्यता में चित् शक्ति का चिद्विलास होने लगा। प्रभुनाम के साथ हो रहे कलात्मक नृत्य के आहत स्वरों से सभी के अनाहद् कमल बरबस खिल उठे।
    
साथ ही सभी में भक्ति के नए सूत्र की प्रतीक्षा जाग उठी। ऋषियों ने अनुनय भरे नयनों से देवर्षि की ओर देखा। देवर्षि अभी भावों की गहनता से पूरी तरह से उबरे नहीं थे। फिर भी उन्होंने ऋषियों के अनुराध को स्वीकारते हुए बड़े ही मीठे स्वरों में अपना नया सूत्र कहा-
‘यं लब्ध्वापुमान सिद्धा भवति,
अमृतो भवति, तृप्तो भवति’॥ ४॥
    
सूत्र की इस अनुभूति के साथ उनकी आँखें महर्षि मार्कण्डेय के मुख पर जा टिकीं। परमसिद्ध, जरा-मरण से रहित, अमर व नित्यतृप्त- महर्षि मार्कण्डेय, जिन्हें भगवान् सदाशिव की और माता जगदम्बा की पराभक्ति व नित्य कृपा सहज प्राप्त है। जिन्होंने भगवान् विष्णु के बालमुुकुन्द स्वरूप का दिव्य साक्षात् किया। उन महर्षि की ओर देखते हुए देवर्षि बोले- ‘‘भक्ति ऐसी है जिसे पाकर पुरूष (स्त्री) सिद्ध होता है, अमृतमय होता है, नित्य तृप्त होता है। इस सूत्र की साकार उपस्थिति महर्षि मार्कण्डेय हैं। इनके जीवन की अनुभूतियों में ही इस सूत्र की व्याख्या है। इस सूत्र को समझने के लिए हम लोग महर्षि से अनुरोध करें कि वे अपने भक्तिमय जीवन की अनुभूतियों का अमृत हम सबको प्रदान करें।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १०)

👉 कोई रंग नहीं दुनिया में

विद्युत चुम्बकीय तरंगें ही प्रकाश हैं। इन तरंगों की लम्बाई अलग-अलग होती है। अस्तु उनका अनुभव हमारा मस्तिष्क भिन्न-भिन्न अनुभूतियों के साथ करता है। यह अनुभूति भिन्नता ही रंगों के रूप में विदित होती है। सात रंग तथा उनसे मिल-जुलकर बनने वाले अनेकानेक रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रकाश तरंगों की लम्बाई का मस्तिष्कीय अनुभूति के रूप में ही किया जा सकता है। रंगों की अपनी तात्विक सत्ता कुछ भी नहीं है।

आश्चर्य का अन्त इतने से ही नहीं हो जाता। रंगों की दुनिया बहुत बड़ी है उसे मेले में हमारी जान-पहचान बहुत थोड़ी-सी है। बाकी तो सब कुछ अनदेखा ही पड़ा है। लाल रंग की प्रकाश तरंगें एक इंच जगह में तेतीस हजार होती हैं जबकि कासनी रंग की सोलह हजार। इन्फ्रारेड तरंगें एक इंच में मात्र 80 ही होती हैं। इसके विपरीत रेडियो तरंगों की लम्बाई बीस मील से लेकर दो हजार मील तक पाई जाती है। यह अधिक लम्बाई की बात हुई। अब छोटाई की बात देखी जाय परा कासनी किरण एक इंच में बीस लाख तक होती हैं। एक्सरे किरणें एक इंच में पांच करोड़ से एक अरब तक पाई जाती हैं। गामा तरंगें एक इंच में 220 अरब। इतने पर भी इन सब की चाल एक जैसी है अर्थात् सैकिण्ड में वही एक लाख छियासी हजार मील।

अगर हम विदित प्रकाश किरणों को यन्त्रों की अपेक्षा खुली आंखों से देख सकने में समर्थ हो सके होते तो जिस प्रकाश एक सात रंगों का सप्तक हमें दीखता है उससे अतिरिक्त अन्यान्य ऐसे रंगों के जिनकी आज तो कल्पना कर सकना भी अपने लिए कठिन है 67 सप्तक और दीखते। 67×7=469 रंगों के सम्मिश्रण से कितने अधिक रंग बन जाते इसका अनुमान इसी से लगाया जाता है कि विज्ञान सात रंगों से ही हजारों प्रकार के हलके भारी रंग बने हुए दीखते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १५
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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