गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

👉 सबसे कीमती गहने

एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

नौकर अति उत्साहित होकर बोला, "मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा। लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?"

अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

व्यापारी ने कहा, "मैंने ऊँट खरीदा है," गहने नहीं! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।"

नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, "मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।"

फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, "मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था। आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।"

व्यापारी ने कहा "मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं। धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।"

व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

अंत में व्यापारी ने झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा, "असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।"

इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला "मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

"दो सबसे कीमती वाले" व्यापारी ने जवाब दिया।

"मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान"

👉 मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति (अन्तिम भाग)

सहानुभूति मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवता के एक सूत्र से बँधा हुआ है। इस नियम में शिथिलता पड़ जाय तो सारा जीवन अस्त−व्यस्त हो सकता है। स्वार्थ और आत्मतुष्टि की भावना से लोग दूसरों के अधिकार छीन लेते हैं, स्वत्व अपहरण कर लेते हैं, शक्ति का शोषण कर लेने से बाज नहीं आते। इन विशृंखलता के आज सभी ओर दर्शन किये जा सकते हैं। अपनी स्वादप्रियता के लिए जानवरों, पशु-पक्षियों की बात दूर रही, लोग दुधमुँह बच्चों तक माँस खा जाते हैं, ऐसे समाचार भी कभी-कभी पढ़ने को मिलते रहते हैं। दवा, शृंगार और विलासिता के साधनों की पूर्ति अधिकाँश अनैतिक कर्मों से हो रही है । इस जीवन काल में मानवता के संरक्षण के लिए सहानुभूति अत्यन्त आवश्यक है। इसी से दैवी सम्पदाओं का संरक्षण किया जा सकता है। तत्वों से संघर्ष करने के लिये जिस संगठन की आवश्यकता है, उसे सहानुभूति के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। सहानुभूति एक शक्ति है, एक सम्बल है, जिससे मानवता के हितों की रक्षा होती है।

सहानुभूति इतनी विशाल आत्मिक भाषा है कि इसे पशु-पक्षी तक प्यार करते हैं। किसी चरवाहे पर सिंह हमला कर दे तो समूह के सारे जानवर उस पर टूट पड़ते हैं और सींगों से मार-मारकर बलशाली शेर को भगा देते हैं। एक बन्दर की आर्त पुकार पर सारे बन्दर इकट्ठा हो जाते हैं। बाज के आक्रमण से सावधान रहने के लिये चिड़ियाँ विचित्र प्रकार का शोर मचाती हैं। यह बिगुल सुनते ही सारे पक्षी अपना-अपना मोर्चा मजबूत बना कर छुप जाते हैं। सहानुभूति की भावना से जब पशुओं तक में इतनी उदारता हो सकती है, तो मनुष्य इससे कितना लाभान्वित हो सकता है, इसका मूल्याँकन भी नहीं किया जा सकता । हृदय की विशालता, जीवन की महानता, सहानुभूति से मिलती है। सार्वभौमिक, प्रेम, नियम और ज्ञान प्राप्त करने का आधार सहानुभूति है। इससे सारा संसार एक ही सत्ता में बँधा हुआ दिखाई देता है।

सहानुभूति के विकास के साथ चार और सद्गुणों का विकास होता है। (1) दयाभाव (2) उदारता (3) भद्रता (4) अंतःदृष्टि। सहानुभूति की भावनाएँ जितना अधिक प्रौढ़ होती हैं, दया भावना उसी के अनुरूप एक आवेश-मात्र न रहकर स्वभाव का एक अंग बन जाती है। जीव-जन्तुओं के प्रति भी दया आने लगती है। किसी का दुःख देखा नहीं जाता। सभी के दुःखों में हाथ बटाने की भावना पैदा होती है। स्वेच्छापूर्वक किसी का उपकार करना ही उदारता है, यह सहानुभूति का दूसरा चरण है। इस कोटि के सभी व्यक्ति भद्र माने जाते हैं। इन सज्जनोचित भावनाओं से अंतःदृष्टि जागृत होती है। समता का भाव उत्पन्न होता है। जो सबको परमात्मा का ही अंश मानते हैं, वही आत्मज्ञान के सच्चे अधिकारी होते हैं।

निर्दयतापूर्वक किये गए कार्य, नीचता, ईर्ष्या विद्वेष और सन्देह के दुर्गुणों के कारण लोगों को बाद में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। जब चारों तरफ से असहयोग, अविश्वास और असम्मान लोग व्यक्त करने लगते हैं तो अपने कुकृत्यों पर बड़ी आत्मग्लानि होती है। सोचते हैं, हमने भी परोपकार किया होता, दूसरे के दुःखों को अपना दुःख समझकर मेल-व्यवहार पैदा किया होता तो आज जो अकेलेपन का दुःख भोग रहे हैं, उससे तो बच गए होते। इस पश्चात्ताप की अग्नि में जल-जलकर लोग अपनी शेष शक्तियों का भी नाश कर लेते हैं। किन्तु जो दूसरों के हृदय के साथ अपना हृदय मिला देते हैं उन्हें सभी से निश्छल प्रेम मिलता है और मर्म-ज्ञान प्राप्त होता है।

मनुष्य का जीवन कुछ इस प्रकार बँधा हुआ है कि वह दूसरों की सहायता प्राप्त न करे तो एक पग भी आगे बड़ा नहीं सकता। पशुओं के बच्चे जन्म लेने से कुछ घण्टे बाद ही प्राकृतिक प्रेरणा से यह जान लेते है कि दूध जो हमें पीना चाहिए, कहाँ है। बिना किसी संकेत के चट से अपनी आवश्यकता आप पूरी कर लेते हैं। किन्तु मनुष्य के लिये यह सब कुछ सम्भव नहीं। पालन-पोषण हुआ तो माता-पिता के द्वारा, शिक्षा के लिए विद्यालयों की शरण ली। खाना खाने से लेकर चलने-बोलने तक में वह पराश्रित है। बैल न हो तो खेती कहाँ से करें। लुहार हल न बनाए तो खेत कैसे जोतें। जुलाहा कपड़ा न बुने तो वस्त्र कहाँ से आवें। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे उदारपूर्वक आदान-प्रदान करते रहना पड़ता है। अपनी कमाई वस्तु का उपयोग दूसरों के लिए करता है तो दूसरों से भी अनेकों सुविधायें प्राप्त करते हैं। यह सम्पूर्ण क्रिया-व्यवसाय पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति पर निर्भर है। इसी से जीवन में व्यवस्था है। मानवीय प्रगति की सम्भावनायें एक दूसरे की सहानुभूति की भावना पर टिकी है। हमें भी सब के साथ उदारतापूर्ण बर्ताव, करना चाहिए। इसी में ही हमारी सफलता है, इसी में मनुष्य का कल्याण है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १७


👉 भक्तिगाथा (भाग ९२)

सर्वथा त्याज्य है दुःसंग


महर्षि रुक्मवर्ण की वाणी अनुभूति का अमृतनिर्झर बन गयी, जिसमें सभी के अस्तित्त्व स्नात हुए, शीतल हुए, शान्त हुए। सब ने अपने भीगे भावों में अनुभव किया कि कोरी कल्पनाएँ, बौद्धिक विचारणाएँ कागज के फूलों की भांति निष्प्राण, सारहीन व सुगन्धहीन होती हैं। उनका होना केवल दिखावटी व बाहरी होता है। इनके अन्तर्प्रभाव न तो कभी सम्भव हैं और न ही हो पाएँगे जबकि अनुभूति में डूबे शब्दों में प्राणों का पराग होता है। इनमें होती है अनोखी सुरभि जो सुनने वालों में सतह से तल तक हिलोर पैदा करती है। ऐसी हिलोर जो कण-कण को, अणु-अणु को, नवीनता का अनुभव देती है। अभी भी यहाँ कुछ ऐसा ही हुआ था। हिमालय की छांव में बैठी हुई ये सभी दैवी विभूतियाँ महर्षि रूक्मवर्ण का सान्निध्य पाकर स्वयं को अहोभाव से सम्पूरित महसूस कर रही थीं। उन्हें यह स्पष्ट लग रहा था कि भक्त के सान्निध्य में भक्ति के नवीन भाव अंकुरित होते हैं। भावों के नए आकाश में श्रद्धा और समर्पण के सूर्य उदय होते हैं।


महर्षि, देवों एवं सिद्धों के मन इन क्षणों में कुछ इन्हीं विचारवीथियों से गुजर रहे थे। पुलकन और प्रसन्नता, अन्तअर्स्तित्त्व में व बाहरी वातावरण में एक साथ अनुभूत हो रही थी पर महर्षि रूक्मवर्ण अभी भी किन्हीं अनजान स्मृतियों में खोए हुए थे। यदा-कदा उनके मुख पर कुछ ऐसा कौंध जाता जैसे कि अभी उनके अन्तर्भावों में कुछ ऐसा है जो अभिव्यक्त होने के लिए आतुर है। यद्यपि उन्होंने कुछ कहा नहीं फिर भी अन्तर्ज्ञानी महर्षि कहोल ने स्वयं में इसे समझ लिया। उन्होंने नीरव मौन की निःस्पन्दता में मुखरता के स्पन्दनों की उजास घोली और वह बोले- ‘‘महर्षि! पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि आपकी कथा की कुछ और कड़ियाँ भी हैं, जिन्हें अभी कहना-सुनना शेष है।’’


ऋषि कहोल के कथन को सुनकर महर्षि रूक्मवर्ण के होठों पर हल्की सी मुस्कान की रेखा झलकी। उन्होंने इस मन्दस्मित के साथ कहा- ‘‘हाँ! यह सत्य है। मैंने अभी केवल आधी बात कही है। अभी तक बस इतना ही कहा है कि भक्तिसाधना के साधक को भक्तों का संग करना चाहिए। उनके सान्निध्य-सुपास में रहना चाहिए। लेकिन यह केवल अधूरा सच है। इसका आधा भाग यह भी है कि उन्हें दुःसंग का सर्वथा त्याग करना चाहिए। दुःसंग के क्षण में शाश्वत खो जाता है। इस बारे में देवर्षि नारद सम्भवतः अपने सूत्र में कुछ कह सकें।’’

ऋषि रूक्मवर्ण की बातों को बड़े ही ध्यान से सुन रहे देवर्षि नारद ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘‘महर्षि मेरे अगले सूत्र में यही सत्य कहा गया है’’-
‘दुःसङ्गः सर्वथैव त्याज्यः’॥ ४३॥

दुःसङ्ग का सर्वथा त्याग करना चाहिए। इतना कहते हुए देवर्षि ने निवेदन किया, इस सूत्र की व्याख्या भी आप ही करें क्योंकि अनुभव की व्यापकता में ही इस सूत्र का सत्य सही ढंग से प्रकाशित हो सकेगा। देवर्षि के इस अनुरोध की सम्भवतः महर्षि को आशा थी। उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार कर लिया। अन्य ऋषि-महर्षियों ने भी उनसे यही अनुरोध किया। सभी के इस अनुनय को स्वीकारते हुए वह कहने लगे- ‘‘यद्यपि दुःसंग सर्वथा-सर्वकाल में त्याज्य है परन्तु बचपन एवं यौवन में इसके परिणाम सर्वनाशी होते हैं। ऐसा नहीं है कि वृद्धावस्था इससे अछूती है, फिर भी वृद्धों से विवेक की उम्मीद रहती है। हालांकि अब कलि के प्रभाव से वृद्धावस्था भी विवेकहीन होती जा रही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७५

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