समर्पण से सहज ही मिल सकती है—सिद्घि
सिद्घ योगियों द्वारा अपनाये गये इस पथ पर प्रकाश ही प्रकाश है। प्रकाशित पथ पर भी अन्धी आँखों वाले ठोकर खाते रहते हैं। यह अड़चन तब आती है-जब अपने आँखें तो होती हैं, पर पथ पर अँधेरा होता है। ऐसी स्थिति में बस भटकन ही गले पड़ती है।
वस्तुतः आध्यात्मिक जीवन में तीन आँखों की जरूरत पड़ती है। इसमें पहला नेत्र है-आध्यात्मिक जीवन के प्रति निष्कपट जिज्ञासा। ऐसी जिज्ञासा वाले ही इस पथ पर चलने के लिए उत्सुक होते हैं। दूसरा नेत्र है-प्रचण्ड संकल्प। ऐसा संकल्प जगने पर ही अन्तर्यात्रा पर पहला कदम पड़ता है। यात्रा अविराम रहे, इसके लिए तीसरे नेत्र यानि भावभरी श्रद्धा की जरूरत पड़ती है।
भावभरी श्रद्धा के महत्त्व को अन्तर्यात्रा विज्ञान के महानतम वैज्ञानिक महर्षि पतंजलि भी स्वीकारते हैं। यह सत्य है कि संकल्प की ऊर्जा जिसकी जितनी है, वह उसी क्रम में अपनी साधना में सफल होगा। महासंकल्पवान् प्रचण्ड संकल्प के धनी अपने साधना पथ पर तीव्र गति से चलने में समर्थ होते हैं। संकल्प की इस ऊर्जा का स्रोत साधक का सूक्ष्म शरीर होता है। जिसका सूक्ष्म शरीर जितना प्रखर और पवित्र होता है, उसके संकल्प उतने ही ऊर्जावान् होते हैं। लेकिन इसके अलावा भी एक मार्ग है-क्या? इस प्रश्न के समाधान में महर्षि कहते हैं-
ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥ १/२३॥
शब्दार्थ-वा= इसके सिवा; ईश्वरप्रणिधानात्=ईश्वर प्रणिधान से भी (समाधि में सफलता मिल सकती है)।
अर्थात् सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है, जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते हैं।
महर्षि का यह सूत्र ‘गागर में सागर’ की तरह है। रत्नाकर कहे जाने वाले सागर में जितने रत्न भण्डार है, वे सभी इस सूत्र की गागर में है। ईश्वर समर्पण में बड़े ही गहन भाव समाये हैं। साधक इनके विस्तार का इसी से अनुमान कर सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत् की दो महादुर्लभ विभूतियों महर्षि शाण्डिल्य एवं देवर्षि नारद ने इन पर अलग-अलग सूत्र लिखे हैं। शाण्डिल्य भक्ति सूत्र एवं नारद भक्ति सूत्र इन दोनों ग्रन्थों का आध्यात्मिक साहित्य में अनूठा स्थान है। यदि सार-संक्षेप में स्थिति बयान करें तो ये दोनों ही सूत्र ग्रन्थ-महर्षि पतंजलि के इस सूत्र की सरस व्याख्या भर है। यदि भगवान् महाकाल-परम बोधमय गुरुदेव की करुणा हुई, तो जिज्ञासु इस सत्य पर अनुभव भविष्य में कर सकेंगे।
अभी यहाँ पर तो इस सूत्र के विज्ञान का विवेचन ही अपेक्षित है। ईश्वर प्रणिधान या प्रभु को भावभरा समर्पण साधक की सघन श्रद्धा से ही सम्भव होता है। श्रद्धा है, तो ही समर्पण की बात बनेगी। श्रद्धा के अभाव में भला समर्पण की सम्भावनाएँ कहाँ। श्रद्धा और समर्पण ये दोनों ही आध्यात्मिक साहित्य में सुपरिचित शब्द हैं, परन्तु कम ही साधक होंगे, जो इनकी वैज्ञानिक स्थिति से परिचित होंगे। जबकि इनके विज्ञान को जानने वाला ही श्रद्धा के आध्यात्मिक प्रयोग कर सकता है। इस वैज्ञानिक प्रक्रिया से अपरिचित व्यक्ति के लिए ‘श्रद्धा’ या तो केवल एक शब्द है अथवा फिर कोरी भावुकता का दूसरा नाम।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या