स्फटिक मणि सा बनाइये मन
यह तथ्य भली भाँति हृदयंगम कर लेना चाहिये कि असंभव को संभव बनाने वाला अन्तर्यात्रा का विज्ञान उनके लिए ही है, जो अंतर्चेतना के वैज्ञानिक होने के लिए तत्पर हैं। वैज्ञानिक अपनी अनूठी दृष्टि, प्रक्रियाओं एवं प्रयोगों की वजह से विशेष होता है। जिन बातों को, जिन तथ्यों को सामान्य जन यूँ ही कहकर टाल देते हैं, वह अपनी विशेष दृष्टि से उनमें कुछ विशेष की खोज करता है। अपने अनुसंधान के अध्यवसाय से वह इनमें से ऐसे रहस्यों को उजागर करता है, जिनके बारे में कभी जाना, समझा एवं कहा-सोचा नहीं गया था। इन अर्थों में वह साधक होता है, सामान्य और औसत मनुष्यों से अलग। दूसरे अर्थों में योग साधक भी रहस्यवेत्ता वैज्ञानिक होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि सामान्य पदार्थ वैज्ञानिक बाह्य प्रकृति एवं पदार्थों को लेकर अनुसंधान करते हैं, जबकि योग साधक आंतरिक प्रकृति एवं चेतना को लेकर अनुसंधान करते हैं। जिस जीवन को साधारण लोग दुःखों का पिटारा या फिर सुख-भोग का साधन समझते हैं, उसमें से वह अलौकिक आध्यात्मिक विभूतियों के मणि-मुक्तकों का अनुसंधान कर लेता है।
ध्यान की परम प्रगाढ़ता संस्कारों की काई-कीचड़ को धो डालती है। हालाँकि यह सब होता मुश्किल है, क्योंकि एक-एक संस्कार को मिटने-हरने में भारी श्रम, समय एवं साधना की जरूरत पड़ती है। इन तक पहुँचने से पहले मन की उर्मियों को शान्त करना पड़ता है। मन की लहरें जब थमती हैं, मन की शक्तियाँ जब क्षीण होती हैं, तभी साधना गहरी व गहन होती है। इसी सत्य को महर्षि ने अपने इस सत्य में स्पष्ट किया है-
क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः॥ १/४१॥
शब्दार्थ-क्षीणवृत्तेः = जिसकी समस्त बाह्य वृत्तियाँ क्षीण हो चुकी हैं, ऐसे; मणेः इव अभिजातस्य = स्फटिक मणि की भाँति निर्मल चित्त का; ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु = ग्रहीता (पुरुष), ग्रहण (अंतःकरण और इन्द्रियाँ) तथा ग्राह्य (पञ्चभूत एवं विषयों) में; तत्स्थतदञ्जनता = स्थित हो जाना और तदाकार हो जाना ही; समापत्तिः = सम्प्रज्ञात समाधि है।
अर्थात् जब मन की वृत्तियाँ क्षीण होती हैं, तब मन हो जाता है शुद्ध स्फटिक की भाँति। फिर वह समान रूप से प्रतिबिम्बित करता है—बोधकर्त्ता को, बोध को और बोध के विषय को।
महर्षि पतंजलि का यह सूत्र अपने में अनेकों रहस्य समेटे है। इसका प्रत्येक चरण मूल्यवान् है, इसे सही रीति से समझने के लिए जरूरी है इसके प्रत्येक चरण में अपना ध्यान केन्द्रित करना। इस क्रम में सबसे पहली बात है, मन की वृत्तियों का क्षीण होना। सच तो यह है कि मन का अपना कोई विशेष अस्तित्व नहीं। यह तो बस विचारों-भावों की लहरों का प्रवाह है। इन लहरों की गति एवं तीव्रता कुछ ऐसी है कि मन का अस्तित्व भासता है। सारी उम्र ये लहरें न तो थमती है और न मिटती है। यदि कोई तरीका ऐसा हो कि ये लहरें शान्त हो जाएँ? आम जन के लिए तो ऐसा कठिन है। पर ध्यान इन कठिन को सम्भव बनाता है। ध्यान ज्यों-ज्यों गहरा होता है, मन की लहरें शान्त पड़ती जाती हैं और इस शान्ति के साथ प्रकट होती है-एक अद्भुत स्वच्छता।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १६२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या