जीवन की महत्ता और सफलता उसकी आत्मिक प्रगति पर निर्भर है, यह विश्वास मन में रखना चाहिए व नित्य सुदृढ़ बनाना चाहिए। भौतिक सफलताएं तो उतनी ही देर आनन्द देती हैं, जब तक कि उनकी प्राप्ति नहीं हो जाती। मिलते ही आनन्द समाप्त हो जाता है व और अधिक के लिए व्याकुलता, बेचैनी आरंभ हो जाती है। जो मानव जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर उस आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक हैं, जिसके लिए यह जन्म मिला है, उन्हें आत्मिक प्रगति के लिए तत्पर होना चाहिए और उसके दोनों आधारों उपासना और साधना का अवलम्बन लेना चाहिए।
निष्ठुरता, एकाकीपन, अलगाव से भरे आज के समाज में सतयुगी संभावनाएँ तभी साकार होंगी जब मानव के अन्दर ब्राह्मणत्व जागेगा। सादा जीवन, उच्च विचार की परम्परा का विस्तार होगा। गरीबी को जानबूझकर ओढ़ने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाएगा। बड़प्पन की कसौटी एक ही होगी, विकसित भावसंवेदना, श्रेष्ठ-उदात्त चिन्तन व समाज को ऊंचा उठाने वाले सत्कर्म। संधि वेला में ऐसे अनेक नव ब्राह्मण उभरकर आएँगे। जाति, वंश के भेद से परे इन महामानवों की जीवनचर्या परमार्थ पारायण होगी। सतयुग की वापसी तब ही तो होगी।
ईश्वर एक नियम, मर्यादा एवं व्यवस्था का नाम है। स्वयं को भी उसने अपने को इन अनुशासनों में आबद्ध कर रखा है। फिर मनुष्य के साथ व्यवहार करते समय वह अपनी सुनिश्चित रीति-नीति से पीछे कैसे हट सकता है। उसे चापलूसी के आधार पर किस तरह अपनी ओछी मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए सहमत किया जा सकता है। उस निष्पक्ष न्यायाधीश से कुछ अनुपयुक्त करा लेने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए।
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निष्ठुरता, एकाकीपन, अलगाव से भरे आज के समाज में सतयुगी संभावनाएँ तभी साकार होंगी जब मानव के अन्दर ब्राह्मणत्व जागेगा। सादा जीवन, उच्च विचार की परम्परा का विस्तार होगा। गरीबी को जानबूझकर ओढ़ने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाएगा। बड़प्पन की कसौटी एक ही होगी, विकसित भावसंवेदना, श्रेष्ठ-उदात्त चिन्तन व समाज को ऊंचा उठाने वाले सत्कर्म। संधि वेला में ऐसे अनेक नव ब्राह्मण उभरकर आएँगे। जाति, वंश के भेद से परे इन महामानवों की जीवनचर्या परमार्थ पारायण होगी। सतयुग की वापसी तब ही तो होगी।
ईश्वर एक नियम, मर्यादा एवं व्यवस्था का नाम है। स्वयं को भी उसने अपने को इन अनुशासनों में आबद्ध कर रखा है। फिर मनुष्य के साथ व्यवहार करते समय वह अपनी सुनिश्चित रीति-नीति से पीछे कैसे हट सकता है। उसे चापलूसी के आधार पर किस तरह अपनी ओछी मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए सहमत किया जा सकता है। उस निष्पक्ष न्यायाधीश से कुछ अनुपयुक्त करा लेने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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