शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

👉 नवरात्रि अनुष्ठान का विधि- विधान

नवरात्र पर्व वर्ष में दो बार आता है (चैत्र  & आश्विन)।
(१) चैत्र नवरात्र जिस दिन आरम्भ होता है, उसी दिन विक्रमी संवत् का नया वर्ष प्रारम्भ होता है। चैत्र नवरात्र का समापन दिवस भगवान् श्री राम का जन्म दिन रामनवमी होता है।

(२) दूसरा नवरात्र आश्विन शुक्ल मे पड़ता है। इससे लगा हुआ विजयदशमी पर्व आता है।

ऋतुओं के सन्धिकाल इन्हीं पर्वों पर पड़ते हैं। सन्धिकाल को उपासना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। प्रातः और सायं, ब्राह्ममुहूर्त्त एवं गोधूलि वेला दिन और रात्रि के सन्धिकाल हैं। इन्हें उपासना के लिए उपयुक्त माना गया है। इसी प्रकार ऋतु सन्धिकाल के नौ-नौ दिन दोनों नवरात्रों में विशिष्ट रूप से साधना-अनुष्ठानों के लिए महत्त्वपूर्ण माने गये हैं।

नवरात्रि साधना को दो भागें में बाँटा जा सकता है : एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार- विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या ।। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।

जप संख्या के बारे में विधान यह है कि ९ दिनों में २४ हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। कारण २४ हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन २७ माला जप करने से ९ दिन में २४० मालायें अथवा २४०० मंत्र जप पूरा हो जाता है। मोटा अनुपात घण्टे में ११- ११ माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः २(१/२) घण्टे इस जप में लग जाते हैं। चूंकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से ४५ मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। अस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है।

जिनसे न बन पड़े, वे प्रतिदिन १२ माला करके १०८ माला का अनुष्ठान कर सकते हैं।

उपासना की विधि सामान्य नियमों के अनुरूप ही है। स्नानादि से निवृत्त होकर आसन बिछाकर पूर्व को मुख करके बैठें। जिन्होंने कोई प्रतिमा या चित्र किसी स्थिर स्थान पर प्रतिष्ठित कर रखा हो वे दिशा का भेद छोड़कर उस प्रतिमा के सम्मुख ही बैठें। वरूण देव तथा अग्नि देव को साक्षी करने के लिए पास में जल पात्र रख लें और घृत का दीपक या अगरबत्ती जला लें सन्ध्यावन्दन करके, गायत्री माता का आवाहन करें। आवाहन मन्त्र जिन्हें याद न हो वे गायत्री शक्ति की मानसिक भावना करें। धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, पुष्प, फल, चन्दन, दूर्वा, सुपारी आदि पूजा की जो मांगलिक वस्तुएँ उपलब्ध हों उनसे चित्र या प्रतिमा का पूजन कर लें। जो लोग निराकार को मानने वाले हों वे धूपबत्ती या दीपक की अग्नि को ही माता का प्रतीक मान कर उसे प्रणाम कर लें।

अपने गायत्री गुरू का भी इस समय पूजन वन्दन कर लेना चाहिए, यही शाप मोचन है।

इस तरह आत्म शुद्धि और देव पूजन के बाद जप आरम्भ हो जाता है। जप के साथ- साथ सविता देवता के प्रकाश का अपने में प्रवेश होते पूर्ववत् अनुभव किया जाता है। सूर्य अर्घ्य आदि अन्य सब बातें उसी प्रकार चलती हैं, जैसी दैनिक साधना में। हर दिन जो आधा घण्टा जप करना पड़ता था वह अलग से नहीं करना होता वरन् इन्हीं २७ मालाओं में सम्मिलित हो जाता है।

गायत्री मन्त्र एवं भावार्थ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

भावार्थ : उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

अनुष्ठान में पालन करने के लिए दो नियम अनिवार्य हैं।

इन नौ दिनों ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

दूसरा अनिवार्य नियम है उपवास। जिनके लिए सम्भव हो वे नौ दिन फल, दूध पर रहें। एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल दूध का आहार, केवल दूध का आहार इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। जिनसे इतना भी न बन पड़े वे अन्नाहार पर भी रह सकते हैं, पर नमक और शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन उन्हें भी करना चाहिए। भोजन में अनेक वस्तुएँ न लेकर दो ही वस्तुएँ ली जायें। जैसे- रोटी, दाल। रोटी- शाक, चावल- दाल, दलिया, दही आदि।

अनुष्ठान में पालन करने के लिए तीन सामान्य नियम हैं


कोमल शैया का त्याग

अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना
हिंसा द्रव्यों का त्याग (चमड़े के जूते , रेशम, कस्तूरी, मांस, अण्डा )।

अनुष्ठान के दिनों में मनोविकारों और चरित्र दोनों पर कठोर दृष्टि रखी जाय और अवांछनीय उभारों को निरस्त करने के लिए अधिकाधिक प्रयत्नशील रहा जाय। असत्य भाषण, क्रोध, छल, कटुवचन , अशिष्ट आचरण, चोरी, चालाकी, जैसे अवांछनीय आचरणों से बचा जाना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष, कामुकता, प्रतिशोध जैसे दुर्भावनाओं से मन को जितना बचाया जा सके उतना अच्छा है। जिनसे बन पड़े वे अवकाश लेकर ऐसे वातावरण में रह सकते हैं जहाँ इस प्रकार की अवांछनीयताओं का अवसर ही न आवे। जिनके लिए ऐसा सम्भव नहीं, वे सामान्य जीवन यापन करते हुए अधिक से अधिक सदाचरण अपनाने के लिए सचेष्ट बने रहें ।।

संक्षिप्त गायत्री हवन पद्धति की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। जप का शतांश हवन किया जाना चाहिए। पूर्णाहुति के बाद प्रसाद वितरण, कन्या भोजन आदि का प्रबन्ध अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना चाहिए। गायत्री आद्य शक्ति- मातृु शक्ति है। उसका प्रतिनिधित्व कन्या करती है। अस्तु अन्तिम दिन कम से कम एक और अधिक जितनी सुविधा हो कन्याओं को भोजन कराना चाहिए।

अनुष्ठान के साथ दान की परम्परा जुड़ी हुई है। ज्ञानदान सर्वश्रेष्ठ है। इस दृष्टि से प्रत्येक साधक को चाहिए कि यथाशक्ति वितरण योग्य सस्ता युग साहित्य खरीदकर उन्हें उपयुक्त व्यक्तियों को साधना का प्रसाद कहकर दें।

जिन्हें नवरात्रि की साधनायें करनी हों, उन्हें दोनों बार समय से पूर्व उसकी सूचना हरिद्वार भेज देनी चाहिए, ताकि उन दिनों साधक के सुरक्षात्मक, संरक्षण और उस क्रम में रहने वाली भूलों के दोष परिमार्जन का लाभ मिलता रहे। विशेष साधना के लिए विशेष मार्ग- दर्शन एवं विशेष संरक्षण मिल सके तो उससे सफलता की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है। वैसे प्रत्येक शुभ कर्म की संरक्षण भगवान स्वयं ही करते हैं।

👉 ज्ञान और आस्था

एक पंडित जी थे। उन्होंने एक नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया हुआ था। पंडित जी बहुत विद्वान थे। उनके आश्रम में दूर-दूर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे।

नदी के दूसरे किनारे पर लक्ष्मी नाम की एक ग्वालिन अपने बूढ़े पिता के साथ रहती थी। लक्ष्मी सारा दिन अपनी गायों को देखभाल करती थी। सुबह जल्दी उठकर अपनी गायों को नहला कर दूध दुहती, फिर अपने पिताजी के लिए खाना बनाती, तत्पश्चात् तैयार होकर दूध बेचने के लिए निकल जाया करती थी।

पंडित जी के आश्रम में भी दूध लक्ष्मी के यहाँ से ही आता था। एक बार पंडित जी को किसी काम से शहर जाना था। उन्होंने लक्ष्मी से कहा कि उन्हें शहर जाना है, इसलिए अगले दिन दूध उन्हें जल्दी चाहिए। लक्ष्मी अगले दिन जल्दी आने का वादा करके चली गयी।

अगले दिन लक्ष्मी ने सुबह जल्दी उठकर अपना सारा काम समाप्त किया और जल्दी से दूध उठाकर आश्रम की तरफ निकल पड़ी। नदी किनारे उसने आकर देखा कि कोई मल्लाह अभी तक आया नहीं था। लक्ष्मी बगैर नाव के नदी कैसे पार करती ? फिर क्या था, लक्ष्मी को आश्रम तक पहुँचने में देर हो गयी। आश्रम में पंडित जी जाने को तैयार खड़े थे। उन्हें सिर्फ लक्ष्मी का इन्तजार था। लक्ष्मी को देखते ही उन्होंने लक्ष्मी को डाँटा और देरी से आने का कारण पूछा।

लक्ष्मी ने भी बड़ी मासूमियत से पंडित जी से कह दिया कि- “नदी पर कोई मल्लाह नहीं था, मै नदी कैसे पार करती ? इसलिए देर हो गयी।“

पंडित जी गुस्से में तो थे ही, उन्हें लगा कि लक्ष्मी बहाने बना रही है। उन्होंने भी गुस्से में लक्ष्मी से कहा, ‘‘क्यों बहाने बनाती है। लोग तो जीवन सागर को भगवान का नाम लेकर पार कर जाते हैं, तुम एक छोटी सी नदी पार नहीं कर सकती?”

पंडित जी की बातों का लक्ष्मी पर बहुत गहरा असर हुआ। दूसरे दिन भी जब लक्ष्मी दूध लेकर आश्रम जाने निकली तो नदी के किनारे मल्लाह नहीं था। लक्ष्मी ने मल्लाह का इंतजार नहीं किया। उसने भगवान को याद किया और पानी की सतह पर चलकर आसानी से नदी पार कर ली। इतनी जल्दी लक्ष्मी को आश्रम में देख कर पंडित जी हैरान रह गये, उन्हें पता था कि कोई मल्लाह इतनी जल्दी नहीं आता है।

उन्होंने लक्ष्मी से पूछा- “ तुमने आज नदी कैसे पार की ? इतनी सुबह तो कोई मल्लाह नही मिलता।”

लक्ष्मी ने बड़ी सरलता से कहा- ‘‘पंडित जी आपके बताये हुए तरीके से नदी पार कर ली। मैंने भगवान् का नाम लिया और पानी पर चलकर नदी पार कर ली।’’

पंडित जी को लक्ष्मी की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने लक्ष्मी से फिर पानी पर चलने के लिए कहा। लक्ष्मी नदी के किनारे गयी और उसने भगवान का नाम जपते-जपते बड़ी आसानी से नदी पार कर ली।

पंडित जी हैरान रह गये। उन्होंने भी लक्ष्मी की तरह नदी पार करनी चाही। पर नदी में उतरते वक्त उनका ध्यान अपनी धोती को गीली होने से बचाने में लगा था। वह पानी पर नहीं चल पाये और धड़ाम से पानी में गिर गये।

 पंडित जी को गिरते देख लक्ष्मी ने हँसते हुए कहा- ‘‘आपने तो भगवान का नाम लिया ही नहीं, आपका सारा ध्यान अपनी नयी धोती को बचाने में ही लगा हुआ था।’’

पंडित जी को अपनी गलती का अहसास हो गया। उन्हें अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान था। पर अब उन्होंने जान लिया था कि भगवान को पाने के लिए किसी भी ज्ञान की जरूरत नहीं होती। उसे तो पाने के लिए सिर्फ सच्चे मन से याद करने की जरूरत है। 

👉 अपनी कमजोरियों को दूर कीजिये (भाग 3)

(4) चिन्ता दूर करने के उपाय हैं— विश्लेषण द्वारा निर्णय कर लेना, संकल्प, मन की शान्ति, जिस विषय से आप चिन्तित हों, उसका भली-भाँति विश्लेषण कीजिए। चिन्ता, भय का ही दूसरा बढ़ा-चढ़ा रूप है। भयभीत मन की दशाएं ही नारकीय पीड़ायें हैं। चिंतित और भयभीत गरीब अत्यन्त दुख का अनुभव करता है। चिन्तित, दुखित और भयभीत होकर कष्ट सहन करने की अपेक्षा कष्टों का सामना कर लेने का दृढ़ संकल्प कर लीजिये। आप को यदि अपने कार्य के छूट जाने का भय है और चिन्ता है तो उस परिस्थिति का कम से कम चिंतित होकर सामना कीजिए। भयभीत रहने और अप्रयत्न-शील बनने की अपेक्षा अपनी योजनाऐं बदल कर नई योजनाऐं बना लीजिये।

मानसिक शान्ति प्राप्त करने के लिये आराम से बिस्तर पर लेट जाइये और सोचिये कि आपका शरीर पूर्णतया स्वस्थ है। स्फूर्ति लाने के लिए कोई शारीरिक कार्य अथवा कोई खेल खेलिये। आप यदि किसी वस्तु को पाने के लिये अथवा अन्य किसी छोटी सी बात पर चिन्तित हैं, तो निद्रा अथवा स्थान परिवर्तन ही उपयुक्त है। यदि यह असंभव है, तो आप आत्मशक्ति द्वारा बुरे विचारों को मन में मत आने दीजिये।

(5) अधिक आशाऐं मत बाँधिये-
किसी कार्य को करने के लिए भरसक प्रयत्न करिये किन्तु फल ईश्वर पर छोड़ दीजिये। असफल होने पर हतोत्साह मत होइए। याद रखिये असफलता ही सफलता की नींव है। वे पुरुष, जिन्होंने संसार में महान् कार्य किये हैं, उन्हें भी बार-बार असफल होते रहने के बाद ही सफलतायें मिली हैं।

.....क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/February/v1.27

👉 आज का सद्चिंतन 5 April 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 5 April 2019


👉 The Absolute Law Of Karma (Part 4)

WHO MAINTAINS RECORD OF SINS AND VIRTUES?

Human mind has an infinite capacity for storage of information. It is quite possible for the subtle sentient mechanism of subconscious mind to maintain a systematic record of activities of a living being. There is also no contradiction in the one Chitragupta of mythology being countless Chitraguptas in innumerable beings. Divine powers of God are omnipresent. The universal life-force- Prana is one, but it is individually present in each living being. Similarly, the subtle celestial elements designated as
deities Indra, Varun, Agni, Shiva and Yama in mythology are also all-pervasive. Air, for instance, in spite of being identified as fresh air of a garden or polluted air of an industrial area, is an integral part of the same atmosphere enveloping the earth. Similarly, though inhabiting and operating in numerous bodies independently, the deity Chitragupta is a single universal celestial entity.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 8

👉 व्याध, संत, वेश्या एवम् सद्गृहस्थ के दृश्य

स्वर्ग और नरक करनी के फल है, एक सन्त ने अपने शिष्य को समझाया पर  शिष्य की समझ में बात आयी नहीं। तब उसका उत्तर देने के लिए अगले दिन सन्त शिष्य के लेकर एक बहेलिए कें पास पहुँचे। वहाँ जाकर देखा कुछ जंगल से व्याध निरीह पक्षी पकड़कर लाया था, वह काट रहा था, घर कलह मची थी। यह सब  देखते ही शिष्य ही शिष्य चिल्लया- ' महाराज! यहाँ तो नरक है, यहाँ से शीघ्र '' चलिए। '' सन्त बोले- ' सचमुच, इस बहेलिये ने इतने जीव मार डाले, पर आज तक फूटी कौड़ी तक न जोड़ पाया। कपड़ों तक के पैसे नहीं, इसके लिए यह संसार भी नरक है और परलोक में तो इतने मारे गये जीवों की तड़पती आत्मायें उसे जितना कष्ट देंगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती।

सन्त दूसरे दिन एक साधु की कुटी पर पधारे। शिष्य भी साथ थे, वहाँ जाकर देखा, साधु के पास है तो कुछ नहीं, पर उनकी मस्ती का कुछ ठिकाना नहीं, बड़े सन्तुष्ट, बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। सन्त ने कहा- ' वत्स! यह साधु इस जीवन में कष्ट का, तपश्चर्या का जीवन जी रहे हैं तो भी मन में इतना आह्लाद इस बात का प्रतीक है कि इन्हें पारलौकिक सुख तो निश्र्चित ही है। ''

सांयकाल सन्त एक वेश्या के घर में प्रवेश करने लगे तो शिष्य चिल्लाया- ' महाराज! यहाँ कहाँ?' सन्त बोले- ' वत्स! यहाँ का वैभव भी देख लें। मनुष्य इस सांसारिक सुखोपभोग के लिए अपने शरीर, शील और चरित्र को भी किस तरह बेचकर मौज उड़ाता है पर शरीर का सौन्दर्य नष्ट होते ही कोई पास नहीं आता, यह इस बात का प्रतीक है कि इसके लिए यह संसार स्वर्ग की तरह है, पर अन्त इसका वही है, जो उस बहेलिये का था। ''

अन्तिम दिन वे एक सद्गृहस्थ के घर रुके। गृहस्थ बड़ा परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था सो सुख- समृद्धि की उसे कोई कमी नहीं थी वरन् वह बढ़ रही थी। सन्त ने कहा- यह वह व्यक्ति है, जिसे इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग है और परलोक में भी। शिष्य ने इस तत्व- ज्ञान को भली प्रकार समझ लिया कि स्वर्ग और नरक वस्तुत :करनी का फल है।

विधाता ने तो मानव को यही सोच कर भेजा है कि वह पृथ्वी पर अन्य जीवधारियों से अलग अपनी दिशाधारा चयन करेगा और श्रेय पक्ष की ओर बढ़कर सबका कल्याण करेगा पर उसे भी वर्तमान स्थिति देखकर निराशा ही होती होगी।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 5 से 6

अष्टावक्र उवाच

ईश्वर: भूपति: साक्षाद् ब्रह्माण्डस्य महाने।
मानवं राजपुत्रं स्वं कर्तुं सर्वगुणान्वितम् ॥५॥
विभूती: स्वा अदाद् बीजरूपे सर्वा मुदान्वित:
सृष्टि संचालकोऽप्येष श्रेयसा रहित: कथम्?॥६॥

टीका- ब्रह्माण्ड के सम्राट् ईश्वर ने मनुष्य को सर्वगुण सम्पन्न उत्तराधिकारी राजकुमार बनाया। अपनी समस्त विभूतियाँ उसे बीजरूप में प्रसन्नतापूर्वक प्रदान कीं। उसे सुष्टि संचालन में सहयोगी बन सकने के योग्य बनाया, फिर भी वह उस श्रेय से, गौरव से वंचित क्यों रहता है? ॥५-६॥

व्याख्या- ब्रह्मज्ञानी अष्टावक्र की जिज्ञासा मानव मात्र से सम्बन्धित है। नित्य देखने में आता है ईश्वर का मुकुटमणि कहलाने वाला, सुर दुर्लभ मानव योनि पाने वाला यह सौभाग्यशाली जीव अपने परम पिता से दो विशेष विभूतियाँ पाने के बावुजूद दिग्भ्रान्त हो दीन-हीन जैसा जीवन जीता है। ये दो विभूतियाँ  हैं-बीज रूप में ईश्वर के समस्त गुण तथा सृष्टि को सुव्यवस्थित बनाने में उसकी ईश्वर के साथ साझेदार जैसी भूमिका। बीज फलता है तब मृदा को स्वरूप लेता है। इसका बहिरंग स्वरूप उसी जाति का होता है जिस जाति का वह स्वयं है। लघु से महान्, अणु से विभु बनने की महत् सामर्थ्य अपने आपमें एक अलभ्य विरासत है। इसे पाने के लिए उसे न जाने कितनी योनियों में कष्ट भोगना पड़ा।

सहयोग-सहकार भी सुसंचालन के लिए न कि संतुलन को बिगाड़ने के लिए। ऐसे में जब मुण कर्म रूपी बीज भी गलने से इन्कार कर दे एवं मानव संतुलन-व्यवस्था के स्थान पर विग्रह-असहयोग करने लगे तो असमंजस होना स्वाभाविक है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 37

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...