शनिवार, 1 अप्रैल 2017
👉 रवींद्र की काव्य-साधना-गीतांजलि
🔴 आठ-नौ साल की आयु के रवींद्रनाथ को जब स्कूल में पढ़ने को भेजा गया तो शीघ्र ही एक दिन वहाँ से लौटने पर उन्होंने कहा- पिताजी मैं कल से स्कूल में पढ़ने नहीं जाऊंगा। वह तो कारागार है। वहाँ बालकों को दंड दिया जाता है, उन्हें बेंचों पर खडा कर दिया जाता है और फिर उन पर कक्षा की सभी स्लेटों का बोझ लाद दिया जाता है और फिर वहाँ कोई आकर्षण भी तो नहीं है। वही डेस्क, वही बेंच, सुबह से शाम तक एक-सी ही बातें होती रहती हैं।
🔵 पिता ने पुत्र की व्यथा को समझ लिया और शिक्षकों से कह दिया- यह बालक पढने के लिए पैदा नहीं हुआ। हम स्कूल वालों को जो वेतन देते हैं, वह केवल इसलिये है कि यह वहाँ बैठा रहे।'' पुस्तकों को याद करने और रटने के बजाय बाल्यावस्था में रविबाबू अपने विशाल भवन के एक बरामदे में रखी हुई पुरानी पालकी में घुसकर बैठ जाते। उस अँधेरे स्थान में पहुँचकर वे कल्पनाओं में निमग्न हो जाते। उस अवस्था में उनकी पालकी सैकडों कहारों के कंधों पर लदी हुई अनेक वन, पर्वतों को पार करती पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक जा पहुँचकर स्थल का मार्ग समाप्त हो जाता और कहार कहने लगते है- अब आगे रास्ता नहीं है, अन्नदाता! सब तरफ जल ही जल ही दीख पड़ता है।'' पर बालक रवींद्र कल्पना की उडान में कब मानने वाला था ? उसकी पालकी असीम जलराशि पर तैरने लगती। कितनी ही प्रचंड लहरें पालकी से टकराती कितने ही भीषण तूफान आते, किंतु उसकी पालकी बराबर आगे बढ़ती हुई उस पार पहुँच जाती। उस प्रदेश के सुंदर भवन, बाग, संगीत और गान-वाद्य की स्वर लहरी नृत्य आदि उसे आनंद विभोर कर देते। वह स्वयं भी मस्त होकर कुछ गुनगुनाने लगता।
🔴 और कुछ साल बाद वास्तव में ऐसा समय आया जब बाल्यावस्था का स्वप्न साकार होने लगा। कवि अपनी रचनाओं के बल पर जहाज रूपी पालकी द्वारा योरोप, अमरीका तक जा पहुँचे, वहाँ के बडे-बडे विद्वानों, गुणवानों, श्रीमानों ने आपका स्वागत-सत्कार बडे प्रेम से किया। वहाँ के नर-नारी आपकी प्रतिभा और अपूर्व सौंदर्य पर मुग्ध हो गये और सैकड़ों विशाल सभाओं और गोष्ठियों में उन देशों के सर्वोत्तम संगीत और कला-प्रदर्शन द्वारा आपका स्वागत किया गया। धार्मिक जनों को आप ईसाइयों के किसी प्राचीन संत की तरह जान पडते थे और वे बड़ी श्रद्धा से आपके चोगे (लबादा) का दामन चूमने लगते थे।
🔵 कवि जब अपनी "गीतांजलि" की कविताओं को गाकर सुनाने लगते तो श्रोता मुग्ध होकर भाव-विभोर हो जाते और चारों तरफ से रवि बाबू पर साधुवादों की वर्षा होने लगती। अंत में वहाँ का विद्वान् समाज इनकी बहुमुखी प्रतिभा और योग्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ठ समझा जाने वाला सवा लाख डॉलर का "नोबल पुरस्कार" "गीतांजलि" के उपलक्ष्य में उन्हीं को प्रदान किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने विद्या की सबसे बडी़ उपाधि डी० लिट० (डॉक्टर आफ लिटरेचर) प्रदान की और समस्त देश ने एक स्वर से उनको "विश्वकवि" घोषित कर दिया। "गीतांजलि'' की महिमा-गान करते हुए कहा गया-
🔴 'यह आध्यात्मिक भावनाओं का सार है। इसमें वैष्णव कवियों की प्रेम भावना का अनुपम सम्मिश्रण है। उपनिषदों के सारगर्भित विचारों का इसमें बड़ी मार्मिकता से समावेश किया गया है और बताया गया है कि जो मनुष्य संपूर्ण प्राणियों में ईश्वर को देखता है। वह कभी न तो पाप कर सकता है और न पाप से प्रभावित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को मृत्यु तक का भय नहीं जान पडता, क्योंकि भगवान् को अपने अंतर में देख लेने पर वह अमर जीवन हो जाता है। आज भी गीतांजलि से यही वाणी मुखरित हो रही है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ ११६, ११७
🔵 पिता ने पुत्र की व्यथा को समझ लिया और शिक्षकों से कह दिया- यह बालक पढने के लिए पैदा नहीं हुआ। हम स्कूल वालों को जो वेतन देते हैं, वह केवल इसलिये है कि यह वहाँ बैठा रहे।'' पुस्तकों को याद करने और रटने के बजाय बाल्यावस्था में रविबाबू अपने विशाल भवन के एक बरामदे में रखी हुई पुरानी पालकी में घुसकर बैठ जाते। उस अँधेरे स्थान में पहुँचकर वे कल्पनाओं में निमग्न हो जाते। उस अवस्था में उनकी पालकी सैकडों कहारों के कंधों पर लदी हुई अनेक वन, पर्वतों को पार करती पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक जा पहुँचकर स्थल का मार्ग समाप्त हो जाता और कहार कहने लगते है- अब आगे रास्ता नहीं है, अन्नदाता! सब तरफ जल ही जल ही दीख पड़ता है।'' पर बालक रवींद्र कल्पना की उडान में कब मानने वाला था ? उसकी पालकी असीम जलराशि पर तैरने लगती। कितनी ही प्रचंड लहरें पालकी से टकराती कितने ही भीषण तूफान आते, किंतु उसकी पालकी बराबर आगे बढ़ती हुई उस पार पहुँच जाती। उस प्रदेश के सुंदर भवन, बाग, संगीत और गान-वाद्य की स्वर लहरी नृत्य आदि उसे आनंद विभोर कर देते। वह स्वयं भी मस्त होकर कुछ गुनगुनाने लगता।
🔴 और कुछ साल बाद वास्तव में ऐसा समय आया जब बाल्यावस्था का स्वप्न साकार होने लगा। कवि अपनी रचनाओं के बल पर जहाज रूपी पालकी द्वारा योरोप, अमरीका तक जा पहुँचे, वहाँ के बडे-बडे विद्वानों, गुणवानों, श्रीमानों ने आपका स्वागत-सत्कार बडे प्रेम से किया। वहाँ के नर-नारी आपकी प्रतिभा और अपूर्व सौंदर्य पर मुग्ध हो गये और सैकड़ों विशाल सभाओं और गोष्ठियों में उन देशों के सर्वोत्तम संगीत और कला-प्रदर्शन द्वारा आपका स्वागत किया गया। धार्मिक जनों को आप ईसाइयों के किसी प्राचीन संत की तरह जान पडते थे और वे बड़ी श्रद्धा से आपके चोगे (लबादा) का दामन चूमने लगते थे।
🔵 कवि जब अपनी "गीतांजलि" की कविताओं को गाकर सुनाने लगते तो श्रोता मुग्ध होकर भाव-विभोर हो जाते और चारों तरफ से रवि बाबू पर साधुवादों की वर्षा होने लगती। अंत में वहाँ का विद्वान् समाज इनकी बहुमुखी प्रतिभा और योग्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ठ समझा जाने वाला सवा लाख डॉलर का "नोबल पुरस्कार" "गीतांजलि" के उपलक्ष्य में उन्हीं को प्रदान किया गया। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने विद्या की सबसे बडी़ उपाधि डी० लिट० (डॉक्टर आफ लिटरेचर) प्रदान की और समस्त देश ने एक स्वर से उनको "विश्वकवि" घोषित कर दिया। "गीतांजलि'' की महिमा-गान करते हुए कहा गया-
🔴 'यह आध्यात्मिक भावनाओं का सार है। इसमें वैष्णव कवियों की प्रेम भावना का अनुपम सम्मिश्रण है। उपनिषदों के सारगर्भित विचारों का इसमें बड़ी मार्मिकता से समावेश किया गया है और बताया गया है कि जो मनुष्य संपूर्ण प्राणियों में ईश्वर को देखता है। वह कभी न तो पाप कर सकता है और न पाप से प्रभावित हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को मृत्यु तक का भय नहीं जान पडता, क्योंकि भगवान् को अपने अंतर में देख लेने पर वह अमर जीवन हो जाता है। आज भी गीतांजलि से यही वाणी मुखरित हो रही है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ ११६, ११७
👉 उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं? (भाग १)
🌹 नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष -
🔴 स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं। अमृत उसी को जीवन दे सकता है, जिसका मुँह खुला हुआ हैं। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वाति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो, उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक वहीं बात देव-उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत-सेवन का लाभ वही उठा सकता है, जिसकी पाचनक्रिया ठीक हो, देवता और मंत्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर से विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है, जो बताये हुए अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अतः पहले आत्म-उपासना फिर देव - उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है।
🔵 लोग उतावली में मंत्र और देवता के, भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं, इससे पहले आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाए, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है, उसे उतना ही मिलेगा। निरंतर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुए पात्रों में उतना ही जल रह पाता है, जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता, देवता और मंत्रों से लाभ उठाने के लिए भी पात्रता नितान्त आवश्यक है।
🔴 गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से, आचरण और चिंतन की दृष्टि से यदि मनुष्य उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से अपने को सुसम्पन्न कर लें तो उनके कषाय-कल्मषों की कालिमा हट सकती है और अन्तःकरण तथा व्यक्तित्व शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं निर्मल बन सकता है। ऐसा व्यक्ति मंत्र, उपासना, तपश्चर्या का समुचित लाभ उठा सकता है और देवताओं के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है। जब तक यह पात्रता न हो तब तक उत्कृष्ट वरदान माँगने की दूरदर्शिता ही उत्पन्न होगी और साधना के पुरुषार्थ से कुछ भौतिक लाभ भले ही मिल जाएँ, देवत्व का एक कण भी उसे प्राप्त न होगा और आसुरी भूमिका पर कोई सिद्धि मिल भी जाए, तो अन्ततः उसके लिए घातक ही सिद्ध होगी।
🔵 असुरों की साधना और उसके आधार पर मिली हुई सिद्धियों से उनका अन्ततः सर्वनाश ही उत्पन्न हुआ। अध्यात्म−विज्ञान का समुचित लाभ लेने के लिए साधक का अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व कितना निर्मल होगा, उतनी ही उसकी उपासना सफल होगी। धुले हुए कपड़े पर रंग आसानी से चढ़ता है, मैले पर नहीं। स्वच्छ व्यक्तित्व सम्पन्न साधक किसी भी पूजा उपासना का आशाजनक लाभ सहज ही प्राप्त कर सकता है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं। अमृत उसी को जीवन दे सकता है, जिसका मुँह खुला हुआ हैं। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वाति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो, उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक वहीं बात देव-उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत-सेवन का लाभ वही उठा सकता है, जिसकी पाचनक्रिया ठीक हो, देवता और मंत्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर से विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है, जो बताये हुए अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अतः पहले आत्म-उपासना फिर देव - उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है।
🔵 लोग उतावली में मंत्र और देवता के, भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं, इससे पहले आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाए, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है, उसे उतना ही मिलेगा। निरंतर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुए पात्रों में उतना ही जल रह पाता है, जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता, देवता और मंत्रों से लाभ उठाने के लिए भी पात्रता नितान्त आवश्यक है।
🔴 गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से, आचरण और चिंतन की दृष्टि से यदि मनुष्य उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से अपने को सुसम्पन्न कर लें तो उनके कषाय-कल्मषों की कालिमा हट सकती है और अन्तःकरण तथा व्यक्तित्व शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं निर्मल बन सकता है। ऐसा व्यक्ति मंत्र, उपासना, तपश्चर्या का समुचित लाभ उठा सकता है और देवताओं के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है। जब तक यह पात्रता न हो तब तक उत्कृष्ट वरदान माँगने की दूरदर्शिता ही उत्पन्न होगी और साधना के पुरुषार्थ से कुछ भौतिक लाभ भले ही मिल जाएँ, देवत्व का एक कण भी उसे प्राप्त न होगा और आसुरी भूमिका पर कोई सिद्धि मिल भी जाए, तो अन्ततः उसके लिए घातक ही सिद्ध होगी।
🔵 असुरों की साधना और उसके आधार पर मिली हुई सिद्धियों से उनका अन्ततः सर्वनाश ही उत्पन्न हुआ। अध्यात्म−विज्ञान का समुचित लाभ लेने के लिए साधक का अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व कितना निर्मल होगा, उतनी ही उसकी उपासना सफल होगी। धुले हुए कपड़े पर रंग आसानी से चढ़ता है, मैले पर नहीं। स्वच्छ व्यक्तित्व सम्पन्न साधक किसी भी पूजा उपासना का आशाजनक लाभ सहज ही प्राप्त कर सकता है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली यह नवरात्रि-साधना
🔵 अनुष्ठान के अंतर्गत साधक संकल्पपूर्वक नियत संयम-प्रतिबन्धों एवं तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना पद्धति को अपनाता है और नवरात्रि के इन महत्वपूर्ण क्षणों में अपनी चेतना को परिष्कृत-परिशोधित करते हुए उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ता है। चौबीस हजार के लघु गायत्री अनुष्ठान के अंतर्गत उपासना के क्रम में प्रतिदिन 27 माला गायत्री महामंत्र के जप का विधान है। जो अपनी गति के अनुसार तीन से चार घण्टे में पूरा हो जाता है। यदि कोई नवागन्तुक पूरा गायत्री मंत्र बोलने में असक्षम हो तो वह पंचाक्षरी गायत्री-’ॐ भूर्भुवः स्वः’ के साथ भी इस जप संख्या को पूरी कर सकता है। इसमें प्रतिदिन एक घण्टा समय लगता है। पूर्ण श्रद्धा के साथ सम्पन्न यह साधना आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से चमत्कारिक रूप से फलित होती है, क्योंकि गायत्री परम सतोगुणी, शरीर-प्राण व अन्तःकरण में दिव्य तत्वों का, आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। यही आत्मकल्याण का राजमार्ग है।
🔴 यहाँ मन में असमंजस की स्थिति आ सकती है कि नवरात्रि को दुर्गा उपासना से जोड़कर रखा गया है फिर गायत्री अनुष्ठान का उससे क्या सम्बन्ध है। वास्तव में दुर्गा महाकाली भी गायत्री महाशक्ति का ही एक रूप है। दुर्गा कहते हैं- दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति हो। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसलिए की जाती है कि वह हमारी इन्द्रिय चेतना में जड़ जमा चुके दुर्गुणों को नष्ट कर दें। मनुष्य की पापमयी वृत्तियां ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया तथा संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री की शक्ति से सम्पन्न कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर मर्दिनी बन जाती है।
🔵 नवरात्रि अनुष्ठान में उपासना के अंतर्गत मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाये रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। साकार उपासना सूर्य मध्यस्थ गायत्री या गुरु सत्ता का तथा निराकार उपासक सूर्य एवं इससे निस्सृत किरणों के रूप में गायत्री शक्ति का ध्यान करते हैं। वैसे भावभूमि बनने पर मातृभाव में ध्यान तुरन्त लग जाता है, जप स्वतः ओठों पर चलता रहता है। उँगलियों में माला के मनके बढ़ते रहते हैं और ध्यान मातृसत्ता के अनन्त स्नेह व ऊर्जा पाते रहने के तथा अनन्त ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिंतन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिंताओं से जितना खाली रखा जा सके, अस्त- व्यस्तता से जितना मुक्त रखा जा सके, रखना चाहिए। आत्मचिंतन में अब तक के जीवन की समीक्षा करते हुए, भूलों को समझने व प्रायश्चित द्वारा उनके परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान जीवन क्रम में वाँछित उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता के समावेश का दृढ़तापूर्वक संकल्प करना चाहिए।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 यहाँ मन में असमंजस की स्थिति आ सकती है कि नवरात्रि को दुर्गा उपासना से जोड़कर रखा गया है फिर गायत्री अनुष्ठान का उससे क्या सम्बन्ध है। वास्तव में दुर्गा महाकाली भी गायत्री महाशक्ति का ही एक रूप है। दुर्गा कहते हैं- दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति हो। नौ रूपों में माँ दुर्गा की उपासना इसलिए की जाती है कि वह हमारी इन्द्रिय चेतना में जड़ जमा चुके दुर्गुणों को नष्ट कर दें। मनुष्य की पापमयी वृत्तियां ही महिषासुर हैं। नवरात्रियों में उन्हीं प्रवृत्तियों पर मानसिक संकल्प द्वारा अंकुश लगाया तथा संयम द्वारा दमन किया जाता है। संयमशील आत्मा को ही दुर्गा, महाकाली, गायत्री की शक्ति से सम्पन्न कहा गया है। प्राण चेतना के परिष्कृत होने पर यही शक्ति महिषासुर मर्दिनी बन जाती है।
🔵 नवरात्रि अनुष्ठान में उपासना के अंतर्गत मन को उच्चतर दिशा की ओर प्रवाहमान बनाये रखने के लिए जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। साकार उपासना सूर्य मध्यस्थ गायत्री या गुरु सत्ता का तथा निराकार उपासक सूर्य एवं इससे निस्सृत किरणों के रूप में गायत्री शक्ति का ध्यान करते हैं। वैसे भावभूमि बनने पर मातृभाव में ध्यान तुरन्त लग जाता है, जप स्वतः ओठों पर चलता रहता है। उँगलियों में माला के मनके बढ़ते रहते हैं और ध्यान मातृसत्ता के अनन्त स्नेह व ऊर्जा पाते रहने के तथा अनन्त ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिंतन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिंताओं से जितना खाली रखा जा सके, अस्त- व्यस्तता से जितना मुक्त रखा जा सके, रखना चाहिए। आत्मचिंतन में अब तक के जीवन की समीक्षा करते हुए, भूलों को समझने व प्रायश्चित द्वारा उनके परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान जीवन क्रम में वाँछित उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता के समावेश का दृढ़तापूर्वक संकल्प करना चाहिए।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 नवरात्रि अनुशासन
🔵 उपवास का तत्वज्ञान आहार शुद्धि से सम्बन्धित है, “जैसा खाये अन्न वैसा बने मन” वाली बात आध्यात्मिक प्रगति के लिए विशेष रुप से आवश्यक समझी गई हैं। इसके लिए न केवल फल, शाक, दूध जैसे सुपाच्य पदार्थो को प्रमुखता देनी होगी, वरन् मात्र चटोरेपन की पूर्ति करने वाली मसाले तथा खटाई, मिठाई, चिकनाइ्र की भरमार से भी परहेज करना होगा। यही कारण है कि उपवासों से भी परहेज करना होगा। यही कारण हैं कि उपवासों की एक धारा, ‘अस्वाद व्रत’ भी हैं।
🔴 साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितना खाता है उससे आधे में उसका शारीरिक एवं मानसिक परिपोषण भली प्रकार हो सकता हैं। एक तत्व ज्ञानी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आधा भोजन हम खाते हैं और शेष आधा हमें खाता रहता हैं।” लुकमान कहते थे कि-”हम रोटी नहीं खाते-रोटी हमें खाती है।” इन उक्तियों में संकेत इतना ही है कि शारीरिक और मानसिक स्वस्थ्य का महत्व समझने वालों को सर्वभक्षी नहीं स्वल्पाहारी होना चाहिए। नवरात्रि उपवास में इस आदर्श को जीवन भर अपनाने का संकेत हैं।
🔵 आध्यात्मिक दृष्टि से पौष्टिक एवं सात्विक आहार वह है जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाँद्यों का कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं उसी सिलसिले में एक और बात भी आती है कि इस प्रकार आत्म संयम बरतने से जा बचत होती है उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में होना चाहिए न कि संचय करके अमीर बनने में। यहीं कारण हैं कि जहाँ नवरात्रि अनुष्ठानों मं उपवास करकें जो कुछ बचाया जाता हैं उसे पूर्णाहुति के अन्तिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है।
🔴 ब्रह्मभोज अर्थात् सत्कर्मो का परिपोषण। प्राचीन काल में एक वर्ग ही इस प्रयोजन में रहता था, अस्तु उसका निर्वाह एवं अपनाई हुई प्रवृत्तियों का व्यवस्थाक्रम मिलाकर जो आवश्यकता बनती हैं उसकी पूर्ति को ब्रह्मभोज कहा जाता था। इस प्रयोजन के लिए दी गई राशि को दान या दक्षिणा भी कहा जाता था। नवरात्रि अनुष्ठान की पूर्णता यज्ञायोजन तथा ब्रह्मभोज के साथ सम्पन्न होती है। इसका कारण तलाश करने पर उपवास का रहस्य विज्ञान और विस्तार समझ में आता हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 साधक सात्विक आहार करें और चटोरेपन के कारण अधिक खा जाने वाली आदत से बचें, यह शरीरगत उपवास हुआ। मनोगत यह है कि आहार को प्रसाद एवं औषधि की तरह श्रद्धा भावना से ग्रहण किय जाए और उसकी अधिक मात्रा से अधिक बल मिलने वालों की प्रचलित मान्यता से पीछो छुड़ाया जाए। वस्तुतः आम आदमी जितना खाता है उससे आधे में उसका शारीरिक एवं मानसिक परिपोषण भली प्रकार हो सकता हैं। एक तत्व ज्ञानी का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि “आधा भोजन हम खाते हैं और शेष आधा हमें खाता रहता हैं।” लुकमान कहते थे कि-”हम रोटी नहीं खाते-रोटी हमें खाती है।” इन उक्तियों में संकेत इतना ही है कि शारीरिक और मानसिक स्वस्थ्य का महत्व समझने वालों को सर्वभक्षी नहीं स्वल्पाहारी होना चाहिए। नवरात्रि उपवास में इस आदर्श को जीवन भर अपनाने का संकेत हैं।
🔵 आध्यात्मिक दृष्टि से पौष्टिक एवं सात्विक आहार वह है जो ईमानदारी और मेहनत के साथ कमाया गया है। उपवास का अपना तत्वज्ञान है। उसमें सात्विक खाँद्यों का कम मात्रा में लेना ही नहीं, न्यायोपार्जित होने की बात भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं उसी सिलसिले में एक और बात भी आती है कि इस प्रकार आत्म संयम बरतने से जा बचत होती है उसका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में होना चाहिए न कि संचय करके अमीर बनने में। यहीं कारण हैं कि जहाँ नवरात्रि अनुष्ठानों मं उपवास करकें जो कुछ बचाया जाता हैं उसे पूर्णाहुति के अन्तिम दिन ब्रह्मभोज में खर्च कर दिया जाता है।
🔴 ब्रह्मभोज अर्थात् सत्कर्मो का परिपोषण। प्राचीन काल में एक वर्ग ही इस प्रयोजन में रहता था, अस्तु उसका निर्वाह एवं अपनाई हुई प्रवृत्तियों का व्यवस्थाक्रम मिलाकर जो आवश्यकता बनती हैं उसकी पूर्ति को ब्रह्मभोज कहा जाता था। इस प्रयोजन के लिए दी गई राशि को दान या दक्षिणा भी कहा जाता था। नवरात्रि अनुष्ठान की पूर्णता यज्ञायोजन तथा ब्रह्मभोज के साथ सम्पन्न होती है। इसका कारण तलाश करने पर उपवास का रहस्य विज्ञान और विस्तार समझ में आता हैं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 3)
🔴 गाँधी जी तीस साल की उम्र के थे । आंतें सूख गयी थीं। रोज एनीमा से दस्त कराते थे। उनने लिखा है कि जब वे दक्षिणी अफ्रीका में थे तो सोचते थे कि यही कोई पाँच बरस और जियेंगे। एनीमा सेट कोई उठा ले गया व जंगल में फँस गए तो बेमौत मारे जाएँगे। जिंदगी का अब कोई ठिकाना नहीं है लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गाँधी जी ने अपने आपको ठीक कर लिया, सुधार लिया अपना आहार ठीक कर लिया तो आंतें भी उसी क्रम से ठीक होती चलीं गयी। 80 वर्ष की उम्र में वे मरे, मरने से पहले वे कहते थे अभी हम 120 साल तक जियेंगे । मेरा ख्याल है कि वे जरूर जिये होते यदि गोली के शिकार नहीं होते ।
🔵 जब गाँधीजी की आंतें उन्हें क्षमा कर सकती हैं शरीर उन पर दया कर सकता है तो आपके साथ यह क्यों नहीं हो सकता? शर्त एक ही है कि आप अपनी जीभ को छुट्टल साँड़ की तरह न छोड़कर उस पर काबू करना सीखें । जीभ ऐसी जिसने आपकी सेहत को खा लिया, आपके खून को खा लिया, माँस को खा लिया। कौन जिम्मेदार है-जीवाणु वातावरण । नहीं आप स्वयं व आपकी यह जीभ। यदि आप इसे काबू में कर सके तो मैं बीमारियों की ओर से मुख्तार नामा लिखने को तैयार हूँ कि आपको कभी बीमारी नहीं होने वाली।
🔴 ऐसे कई नमूने मेरे सामने हैं, जिसमें लोगों ने नेचर के कायदों का पालन कर के अपनी बीमारी को दूर भगा दिया। चंदगीराम भरी जवानी में तपेदिक के मरीज हो गए थे । कटोरा भर खून रोज कफ के साथ निकलता था। हर डॉक्टर ने कह दिया था कि उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं है। एक सज्जन आए व बोले आप अगर मौत को पसंद करते हों तो उस राह चलिए व यदि जिंदगी पसंद हो तो मेरे बताए मार्ग पर चलिए। जिंदगी का रास्ता क्या अपने ऊपर संयम जीभ पर संयम। आहार का संयम-विहार का संयम। शरीर से श्रम कीजिए व वर्जिश कीजिए। प्राणों का सागर चारों तरफ भरी पड़ा है, खींचिए, सादा भोजन कीजिए व सीमा में करिए । फिर देखिए, क्या होता है? देखते-देखते टीबी का रोगी वह व्यक्ति पहलवान चन्दगीराम बन गया।
🔵 आप में से हर व्यक्ति पहलवान बन सकता है, अपनी कमजोरियाँ ठीक कर सकता है, अपनी सेहत ठीक कर सकता है, अपनी परिस्थितियाँ अपने अनुकूल बना सकता है, तनावभरी इस दुनिया में भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकता है। पर क्या करें मित्रों? आप दूसरों को -उसकी कमियों को तो खूब देखते हैं पर अपनी कमियों गलतियों असंयमों को कम देखते हैं। अपने आप पर नियंत्रण बिठाने का आपका कोई मन नहीं है। इसीलिए मैं आपको कभी अध्यात्मवादी नहीं कह सकता। मात्र दीन-दुर्बल आदतों का गुलाम भर कह सकता हूँ।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.56
🔵 जब गाँधीजी की आंतें उन्हें क्षमा कर सकती हैं शरीर उन पर दया कर सकता है तो आपके साथ यह क्यों नहीं हो सकता? शर्त एक ही है कि आप अपनी जीभ को छुट्टल साँड़ की तरह न छोड़कर उस पर काबू करना सीखें । जीभ ऐसी जिसने आपकी सेहत को खा लिया, आपके खून को खा लिया, माँस को खा लिया। कौन जिम्मेदार है-जीवाणु वातावरण । नहीं आप स्वयं व आपकी यह जीभ। यदि आप इसे काबू में कर सके तो मैं बीमारियों की ओर से मुख्तार नामा लिखने को तैयार हूँ कि आपको कभी बीमारी नहीं होने वाली।
🔴 ऐसे कई नमूने मेरे सामने हैं, जिसमें लोगों ने नेचर के कायदों का पालन कर के अपनी बीमारी को दूर भगा दिया। चंदगीराम भरी जवानी में तपेदिक के मरीज हो गए थे । कटोरा भर खून रोज कफ के साथ निकलता था। हर डॉक्टर ने कह दिया था कि उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं है। एक सज्जन आए व बोले आप अगर मौत को पसंद करते हों तो उस राह चलिए व यदि जिंदगी पसंद हो तो मेरे बताए मार्ग पर चलिए। जिंदगी का रास्ता क्या अपने ऊपर संयम जीभ पर संयम। आहार का संयम-विहार का संयम। शरीर से श्रम कीजिए व वर्जिश कीजिए। प्राणों का सागर चारों तरफ भरी पड़ा है, खींचिए, सादा भोजन कीजिए व सीमा में करिए । फिर देखिए, क्या होता है? देखते-देखते टीबी का रोगी वह व्यक्ति पहलवान चन्दगीराम बन गया।
🔵 आप में से हर व्यक्ति पहलवान बन सकता है, अपनी कमजोरियाँ ठीक कर सकता है, अपनी सेहत ठीक कर सकता है, अपनी परिस्थितियाँ अपने अनुकूल बना सकता है, तनावभरी इस दुनिया में भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकता है। पर क्या करें मित्रों? आप दूसरों को -उसकी कमियों को तो खूब देखते हैं पर अपनी कमियों गलतियों असंयमों को कम देखते हैं। अपने आप पर नियंत्रण बिठाने का आपका कोई मन नहीं है। इसीलिए मैं आपको कभी अध्यात्मवादी नहीं कह सकता। मात्र दीन-दुर्बल आदतों का गुलाम भर कह सकता हूँ।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 परीक्षा के दिन हुआ बीमारी से बचाव
🔴 बचपन से ही मैं अपने परिवार में गायत्री साधना का क्रम देखता रहा हूँ। उस वातावरण में पले होने के कारण एक स्वाभाविक विश्वास तो बना हुआ था ही, पर उसमें वह तासीर तो तब आई, जब मैंने खुद अपने जीवन में उस साधना के चमत्कार को प्रत्यक्ष किया।
🔴 एक साधारण किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। सन् १९९६ में हमारे गाँव में पंचकुण्डीय गायत्री यज्ञ का अनुष्ठान हुआ। अनुष्ठान तीन दिनों का था, जिसका आयोजन मेरे पिताजी ने ही किया था। इस अनुष्ठान में कई तरह के संस्कार भी सम्पन्न कराए गए। जिनमें विद्यारम्भ संस्कार और दीक्षा संस्कार कराने वालों की संख्या ही अधिक थी। मुझे भी उसी समय दीक्षा मिली। तब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।
🔵 तब मैं दीक्षा का मतलब समझने लायक तो नहीं था पर इतना याद है कि उस दिन मैं बहुत खुश था, ऐसा लग रहा था, जैसे मैं महत्त्वपूर्ण हो गया हूँ। सच बताऊँ, तो मैं भी कोई हूँ, इसका आभास पहली बार मिला। दीक्षा में मुझे गायत्री मंत्र दिया गया। मंत्र तो मैं पहले भी जानता था लेकिन बताई गई विधि के अनुसार साधना उसी समय से आरंभ हुई।
🔴 यह घटना उन दिनों की है जब, मैं आठवीं कक्षा में था। एक दिन अचानक मेरी तबियत खराब हुई। पेट में जोरों का दर्द होने लगा। इसके बाद दो- चार दिन बाद नाक से खून गिरने लगा। धीरे- धीरे यह एक सिलसिला बन गया।
🔵 अक्सर ही नाक से खून गिरने लगता और मैं पकड़कर चित लिटा दिया जाता। जब उठकर कुछ इधर- उधर चलने फिरने का प्रयास करता, तो सिर में चक्कर आने लगता और मैं गिर पड़ता। कई डॉक्टरों को दिखाया गया, तीन साल तक इलाज चलता रहा, पर बीमारी ज्यों की त्यों बरकरार रही। कई तरह की जाँच के बाद भी डॉक्टर यह समझ नहीं पाए कि हुआ क्या है।
🔴 इस बीच पढ़ाई जैसे- तैसे चलती रही। आठवीं से दसवीं में आ गया। बोर्ड की परीक्षा नजदीक आ गई। लेटे- लेटे ही पढ़ाई करता था। बैठकर पढ़ने का प्रयास करता तो नाक से खून आने लगता।
🔵 चिंता थी कि बोर्ड की परीक्षा कैसे दूँगा। यहाँ स्कूल में तो सारे ही शिक्षक अपने थे। उन्हें मेरे साथ हमदर्दी थी, इसलिए किसी तरह निभ गया। लेटे- लेटे ही परीक्षा देता रहा। लेकिन यहाँ बोर्ड परीक्षा में मेरी कौन सुनेगा? पिताजी को अपनी चिन्ता बताई। उन्होंने जैसे पहले से ही कुछ सोच रखा हो, वह बोले- देखता हूँ, कुछ तो रास्ता निकलेगा ही।
🔴 एडमिट कार्ड आ गया, तो पिताजी को दिखाया। वे उसे लेकर परीक्षा केंद्र में गए। प्रधानाध्यापक से मिलकर पूरी परिस्थिति बताई। उन्होंने सहयोग का आश्वासन दिया। बोले- मैं ऑफिस में उसके लिए ऐसी व्यवस्था कर दे सकता हूँ कि अकेले बैठकर या लेटे- लेटे ही परीक्षा दे सके। मैं खुश था चलो बोर्ड की परीक्षा छूटेगी नहीं।
🔵 १४ मार्च २००१ को परीक्षा आरंभ होने वाली थी। ठीक उसके एक दिन पहले ऐसा आभास हुआ कि गुरुदेव कह रहे हैं- तुम साधारण तरीके से सबके साथ बैठकर परीक्षा दोगे। डरो मत! हम तुम्हारे साथ हैं। परीक्षा के कुछ दिनों बाद तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाओगे।
🔴 मैंने देखा कि मेरे सामने गुरुदेव और माताजी अभय मुद्रा में हाथ उठाए मुस्करा रहे हैं। अगले ही पल मैं आत्मविश्वास से भर गया और तय कर लिया कि सबके साथ बैठकर परीक्षा दूँगा।
🔵 आश्चर्य की बात है कि परीक्षा के सारे ही पेपर मैंने साधारण तरीके से सब लड़कों के साथ बैठकर दिए। एक दिन भी कुछ नहीं हुआ। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जैसे- तैसे अध्ययन की प्रक्रिया चलते रहने के बावजूद इस परीक्षा में मुझे ७० प्रतिशत अंक मिले, जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी। घर के सभी लोग आश्चर्यचकित थे।
🔴 परीक्षा के बाद दिल्ली अस्पताल में मेरा इलाज हुआ। इलाज करने वाले चिकित्सक थे डॉक्टर खक्कड़ साहब, वे भी गायत्री साधक हैं।
🔵 उन्होंने मुझसे कहा- गुरुदेव पर भरोसा रखो, सब ठीक होगा। नियमित गायत्री का जप करना। उन्होंने दवा दी, जिसे ६० दिनों तक खाना था। एक टिकिया की कीमत मात्र २५ पैसे थी।
🔴 जैसा पूज्य गुरुदेव ने कहा था ठीक वैसा ही हुआ। नवम्बर तक मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। अब मैंने अपना जीवन पूज्य गुरुदेव को समर्पित कर दिया। आज मैं इक्कीस साल का हूँ और पटना प्रज्ञा युवा प्रकोष्ठ के सक्रिय सदस्यों में गिना जाता हूँ।
🌹 निशांत रंजन, सीवान (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/pariksha
🔴 एक साधारण किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। सन् १९९६ में हमारे गाँव में पंचकुण्डीय गायत्री यज्ञ का अनुष्ठान हुआ। अनुष्ठान तीन दिनों का था, जिसका आयोजन मेरे पिताजी ने ही किया था। इस अनुष्ठान में कई तरह के संस्कार भी सम्पन्न कराए गए। जिनमें विद्यारम्भ संस्कार और दीक्षा संस्कार कराने वालों की संख्या ही अधिक थी। मुझे भी उसी समय दीक्षा मिली। तब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।
🔵 तब मैं दीक्षा का मतलब समझने लायक तो नहीं था पर इतना याद है कि उस दिन मैं बहुत खुश था, ऐसा लग रहा था, जैसे मैं महत्त्वपूर्ण हो गया हूँ। सच बताऊँ, तो मैं भी कोई हूँ, इसका आभास पहली बार मिला। दीक्षा में मुझे गायत्री मंत्र दिया गया। मंत्र तो मैं पहले भी जानता था लेकिन बताई गई विधि के अनुसार साधना उसी समय से आरंभ हुई।
🔴 यह घटना उन दिनों की है जब, मैं आठवीं कक्षा में था। एक दिन अचानक मेरी तबियत खराब हुई। पेट में जोरों का दर्द होने लगा। इसके बाद दो- चार दिन बाद नाक से खून गिरने लगा। धीरे- धीरे यह एक सिलसिला बन गया।
🔵 अक्सर ही नाक से खून गिरने लगता और मैं पकड़कर चित लिटा दिया जाता। जब उठकर कुछ इधर- उधर चलने फिरने का प्रयास करता, तो सिर में चक्कर आने लगता और मैं गिर पड़ता। कई डॉक्टरों को दिखाया गया, तीन साल तक इलाज चलता रहा, पर बीमारी ज्यों की त्यों बरकरार रही। कई तरह की जाँच के बाद भी डॉक्टर यह समझ नहीं पाए कि हुआ क्या है।
🔴 इस बीच पढ़ाई जैसे- तैसे चलती रही। आठवीं से दसवीं में आ गया। बोर्ड की परीक्षा नजदीक आ गई। लेटे- लेटे ही पढ़ाई करता था। बैठकर पढ़ने का प्रयास करता तो नाक से खून आने लगता।
🔵 चिंता थी कि बोर्ड की परीक्षा कैसे दूँगा। यहाँ स्कूल में तो सारे ही शिक्षक अपने थे। उन्हें मेरे साथ हमदर्दी थी, इसलिए किसी तरह निभ गया। लेटे- लेटे ही परीक्षा देता रहा। लेकिन यहाँ बोर्ड परीक्षा में मेरी कौन सुनेगा? पिताजी को अपनी चिन्ता बताई। उन्होंने जैसे पहले से ही कुछ सोच रखा हो, वह बोले- देखता हूँ, कुछ तो रास्ता निकलेगा ही।
🔴 एडमिट कार्ड आ गया, तो पिताजी को दिखाया। वे उसे लेकर परीक्षा केंद्र में गए। प्रधानाध्यापक से मिलकर पूरी परिस्थिति बताई। उन्होंने सहयोग का आश्वासन दिया। बोले- मैं ऑफिस में उसके लिए ऐसी व्यवस्था कर दे सकता हूँ कि अकेले बैठकर या लेटे- लेटे ही परीक्षा दे सके। मैं खुश था चलो बोर्ड की परीक्षा छूटेगी नहीं।
🔵 १४ मार्च २००१ को परीक्षा आरंभ होने वाली थी। ठीक उसके एक दिन पहले ऐसा आभास हुआ कि गुरुदेव कह रहे हैं- तुम साधारण तरीके से सबके साथ बैठकर परीक्षा दोगे। डरो मत! हम तुम्हारे साथ हैं। परीक्षा के कुछ दिनों बाद तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाओगे।
🔴 मैंने देखा कि मेरे सामने गुरुदेव और माताजी अभय मुद्रा में हाथ उठाए मुस्करा रहे हैं। अगले ही पल मैं आत्मविश्वास से भर गया और तय कर लिया कि सबके साथ बैठकर परीक्षा दूँगा।
🔵 आश्चर्य की बात है कि परीक्षा के सारे ही पेपर मैंने साधारण तरीके से सब लड़कों के साथ बैठकर दिए। एक दिन भी कुछ नहीं हुआ। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जैसे- तैसे अध्ययन की प्रक्रिया चलते रहने के बावजूद इस परीक्षा में मुझे ७० प्रतिशत अंक मिले, जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी। घर के सभी लोग आश्चर्यचकित थे।
🔴 परीक्षा के बाद दिल्ली अस्पताल में मेरा इलाज हुआ। इलाज करने वाले चिकित्सक थे डॉक्टर खक्कड़ साहब, वे भी गायत्री साधक हैं।
🔵 उन्होंने मुझसे कहा- गुरुदेव पर भरोसा रखो, सब ठीक होगा। नियमित गायत्री का जप करना। उन्होंने दवा दी, जिसे ६० दिनों तक खाना था। एक टिकिया की कीमत मात्र २५ पैसे थी।
🔴 जैसा पूज्य गुरुदेव ने कहा था ठीक वैसा ही हुआ। नवम्बर तक मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया। अब मैंने अपना जीवन पूज्य गुरुदेव को समर्पित कर दिया। आज मैं इक्कीस साल का हूँ और पटना प्रज्ञा युवा प्रकोष्ठ के सक्रिय सदस्यों में गिना जाता हूँ।
🌹 निशांत रंजन, सीवान (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/pariksha
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