गुरुवार, 14 मार्च 2019

👉 Charity परोपकार Paropkar:-

एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में जन कल्याणकारी कार्यो के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग उसे काफी इज्जत देते थे।

उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति था नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था। जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यो का लेखा-जोखा पूछा। सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएं दीं।

धनिक ने क्रोधित होकर पूछा- “यह भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाया और इसने तेल का दीपक रखा। वह भी अंधेरी गली में, न कि भगवान के समक्ष?”

तब यमराज ने समझाया- “पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। जबकि इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला। उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। तुमने तो अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक जलाया था।“

सार यह है कि ईश्वर के प्रति स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है क्योंकि ‘स्व’ से ‘पर’ सदा वंदनीय होता है।

इसके अतिरिक्त कुछ लोग सिर्फ मंदिर को ही भगवान का घर और विषेश आवरण धारीयों को ही ईश्वर के निकटवर्ती मान लेते हैं। जबकी इतनी बडी दुनिया बनाने वाले का सिर्फ मंदिर में समेट देना उचित नहीं।

मंदिर पूजा गृह हैं जहाँ हम अपने अंतःवासी भगवान से मिलते हैं, अतः मंदिर में दिया स्वयं को दिया हो जाता है... पर भगवान कण-कण वासी हैं उनकी सेवा के लिये मंदिर के बाहर आना होगा, और जीव मात्र, चर-अचर जगत की सेवा और सत्कार का भाव तन-मन में जगाना होगा।

👉 जटायु व गिलहरी चुप नहीं बैठे

पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान् राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया। स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए भगवान् राम ने कहा-तात्। तुम जानते थे रावण दुर्द्धर्ष और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया?

अपनी आँखों से मोती ढुलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा- प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती?

भगवान् राम ने कहा-तात्! तुम धन्य हो! तुम्हारी जैसी संस्कारवान् आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्गदर्शन मिलेगा।

गिलहरी पूँछ में धूल लाती और समुद्र में डाल आती। वानरों ने पूछा-देवि! तुम्हारी पूँछ की मिट्टी से समुद्र का क्या बिगडे़गा। तभी वहाँ पहुँचे भगवान् राम ने उसे अपनी गोद में उठाकर कहा 'एक-एक कण धूल एक-एक बूँद पानी सुखा देने के मर्म को समझो वानरो। यह गिलहरी चिरकाल तक सत्कर्म में सहयोग के प्रतीक रूप में सुपूजित रहेगी।

जो सोये रहते हैं वे तो प्रत्यक्ष सौभाग्य सामने आने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। जागृतात्माओं की तुलना में उनका जीवन जीवित-मृतकों के समान ही होता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 मन दर्पण


मन तो बस दर्पण है। यदि वह स्वच्छ है शुद्ध है तो इसमें असीम प्रतिद्वंद्वित हो सकता है। वह प्रतिबिंब असीम न होगा पर झलक जरूर होगी उसकी लेकिन यही झलक बाद में द्वार बन जाती है। प्रतिबिंब पीछे छूट जाता है ओेर अनन्त में प्रवेश मिल जाता है। बाहरी तौर पर यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है। भला कैसे इतने छोटे से मन से कोई सम्पर्क बन सकता है शाश्वत के साथ अनन्त के साथ। इस सच्चाई को कुछ यो समझा जा सकता है जेेसे कि खिड़की की छोटी सी चोेखट से असीम आकाश का दिखना। भले ही खिड़की से सारा आकाश नहीं दिखाई पड़ता लेकिन जो दिखाई देता है वह अकाश ही है।

कुछ इसी तरह स्वच्छ मन शुद्ध मन से परमात्मा की झलक मिलती है। दरअसल अपना मन भी गहरे में परमात्मा का ही हिस्सा है। मेरा तेरा के जटिल भाव ने इसे छोटा बना दिया है। परमात्मा के असीम व अनन्त स्वरूप के बारे मे उपनिषदों में बहुत कुछ विरोधाभासि बातें कही गई है। इनमें से एक बात है कि अन्श हमेशा पूर्ण के बराबर होता है क्योंकि अनन्त को बांटा नहीं जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि आकाश का विभाजन सम्भव नहीं है। कहने वाले भले ही कहते हैं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश मेरा तुम्हारे घर के ऊपर का आकाश तुम्हारा।

इस प्रकार के कथनों के बावजूद आकाश अविभाजित अनन्त विस्तार है। इसका न कोई आरम्भ है और न कोई अन्त। न यह मेरा है न तेरा न तो भारतीय है न ही चीनी या पाकिस्तानी। बस कुछ ऐसी ही बात मन के साथ है। मन के साथ जुड़ी मेरी तुम्हारी मनोदशा भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति के कारण ही मन सीमित हो गया है। सीमित होने की धारणा एक भ्रम है इसे ही तो मिटाना है।

अध्यात्म की समूची साधना इस लिए है। इसके पहले चरण में मन को स्वच्छ शुद्ध करना है। दूसरे चरण में मनोदशा के ढाचे को गिरा देना है। इसके गिरते ही बस परमात्मा की पूर्णता बचती है। तर्क भले ही कहता रहे कोई अन्श पूर्ण के बराबर केेसे हो सकता है। लेकिन ईशावस्य उपनिषद के रिशि का अनुभव कहता है कि पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण डालने पर भी पूर्ण बनता है। स्वच्छ व शुद्ध मन से जो अनुभव किया जाता है वह परमात्मा की पूर्णता का अनुभव ही है।

अखन्ड ज्योति जुलाई २०१४ पृष्ठ ३ 

👉 आज का सद्चिंतन 14 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 March 2019


👉 Donation of time - the supreme charity

There is no dearth of monetary donations. Money, while it can enable the construction of roads and rivers, it cannot elevate the level of human consciousness. That daunting task calls for noble souls donating their time with emotional commitment.

The creation of the new era needs time, faith, devotion, and enthusiasm, and not just money. For this daunting task, all those wads of money are of no real use. The true and supreme charity is one of time donation. It is possible to donate money to a cause with stinginess and reluctance, especially if it is for reasons of ego, prestige, and social pressure, even when we don't fully believe in the cause.

Donation of our precious time, however, often comes from a place of devotion and faith in the cause. Rich and poor alike may participate in this charity of conviction. The new era needs this supreme charity, let us hope that our community will not hold anything back and donate their time in abundance!

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (3.7)

👉 समय दान का महत्ता

धन का दान करने वाले बहुत हैं। धन के बल पर नहर, सडक़ बन सकती है। परन्तु लोकमानस को उत्कृष्ट नहीं बनाया जा सकता। यह कार्य सत्पुरुषों के भावनापूर्ण समय दान से ही सम्भव होगा।

युग-निर्माण के लिए धन की नहीं, समय की, श्रद्धा की, भावना की, उत्साह की आवश्यकता पड़ेगी। नोटों के बण्डल यहॉं कूड़े-करकट के समान सिद्ध होंगे। समय का दान ही सबसे बड़ा दान है, सच्चा दान है। धनवान लोग अश्रद्धा एवं अनिच्छा रहते हुए भी मान, प्रतिफल, दबाव या अन्य किसी कारण से उपेक्षापूर्वक भी कुछ पैसे दान खाते में फेंक सकते हैं, पर समय-दान केवल वही कर सकेगा जिसकी उस कार्य में श्रद्धा होगी।

इस श्रद्धायुक्त समय-दान में गरीब और अमीर समान रूप से भाग ले सकते हैं। युग-निर्माण के लिए इसी दान की आवश्यकता पड़ेगी और आशा की जाएगी कि अपने परिवार के लोगों में से कोई इस दिशा में कंजूसी न दिखायेगा।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.७)

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 40 से 45

गायत्री ब्रह्म विद्या है। उसी को कामधेनु कहते हैं। स्वर्ग के देवता इसी का पयपान करके सोमपान का आनन्द लेते और सदा निरोग, परिपुष्ट एवं युवा बने रहते हैं। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा गया है। इसका आश्रय लेने वाला अभावग्रस्त नहीं रहता। गायत्री ही पारस है। जिसका आश्रय, सान्निध्य लेने वाला लोहे जैसी कठोरता, कालिमा खोकर स्वर्ण जैसी आभा और गरिमा उपलब्ध करता है। गायत्री ही अमृत है। इसे अन्तराल में उतारने वाला अजर-अमर बनता है। स्वर्ग और मुक्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह दोनों ही गायत्री द्वारा साधक को अजस्र- अनुदान के रूप में अनायास ही मिलते हैं। मान्यता है कि गायत्री माता का सच्चे मन से आंचल पकड़ने वाला कभी कोई निराश नहीं रहता। संकट की घड़ी में वह तरण-तारिणी बनती है। उत्थान के प्रयोजनों में उसका समुचित वरदान मिलता है। अज्ञान के अन्धकार में भटकाव दूर करके और सन्मार्ग का सही रास्ता प्राप्त करके चरम प्रगति के लक्ष्य तक जा पहुँचना गायत्री माता का आश्रय लेने पर सहज सम्भव होता है।

प्रज्ञा व्यक्तिगत जीवन को अनुप्राणित करती है, इसे 'ऋतम्भरा' अर्थात् श्रेष्ठ में ही रमण करने वाली कहते हैं। महाप्रज्ञा इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। उसे दूरदर्शिता, विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सद्भावना, उदारता के रूप में प्राणियों पर अनुकम्पा बरसाते और पदार्थो को गतिशील, सुव्यवस्थित एवं सौन्दर्य युक्त बनाते देखा जा सकता है। परब्रह्म की वह धारा जो मात्र मनुष्य के काम आती एवं आगे बढ़ाने, ऊँचा उठाने की भूमिका निभाती है- 'महाप्रज्ञा' है। ईश्वरीय अगणित विशेषताओं एवं क्षमताओं से प्राणि-जगत एवं पदार्थ-जगत उपकृत होते हैं, किन्तु मनुष्य को जिस आधार पर ऊर्ध्वगामी बनने-परमलक्ष्य तक पहुँचने का अवसर मिलता है, उसे महाप्रज्ञा ही समझा जाना चाहिए। इसका जितना अंश जिसे, जिस प्रकार भी उपलब्ध हो जाता है वह उतने ही अंश में कृत-कृत्य बनता है।

मनुष्य में देवत्व का, दिव्य क्षमताओं का उदय-उद्भव मात्र एक ही बात पर अवलम्बित है कि महाप्रज्ञा की अवधारणा उसके लिए कितनी मात्रा में संभव हो सकी। महाप्रज्ञा का ब्रह्म विद्या पक्ष अन्त:करण को उच्चस्तरीय आस्थाओं से आनन्दविभोर करने के काम आता है। दूसरा पक्ष साधना है, जिसे विज्ञान या पराक्रम कह सकते हैं, इसके अन्तर्गत आस्था को उछाला और परिपुष्ट किया जाता है। मात्र ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता। कर्म के आधार पर उसे संस्कार, स्वभाव, अभ्यास के स्तर तक पहुँचाना होता है। साधना का प्रयोजन श्रद्धा को निष्ठा में-निर्धारण की-अभ्यास की-स्थिति में पहुँचाना है। इसलिए अग्रदूतों, तत्वज्ञानियों, जीवनमुक्तों एवं जागृत आत्माओं को भी साधना का अभ्यास क्रम नियमित रूप से चलाना होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 20

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...