शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

👉 जैसा करनी वैसा फल

🔶 एक गांव में एक वैद्य रहता था। दवा लेने के लिए कई लोग उसके पास आते रहते हैं। लेकिन उसकी दवा के खाने से दो-तीन लोगों की मौत हो गई। इसलिए अब कोई व्यक्ति उस वैद्य से इलाज करवाने नहीं आता था।

🔷 ऐसे में वैद्य को भूखे ही सोना पढ़ता था। एक दिन एक गांव में जाने के बाद भी वैद्य को कोई रोगी नहीं मिला तो घर लौटने से पहले वह आराम करने के लिए एक पेड़ की छांह में बैठ गया। उस वृक्ष के कोटर में एक विषैला नाग रहता था।

🔶 उसे देखकर वैद्य के मन में एक विचार आया कि यह नाग अगर किसी व्यक्ति को काट ले तो संभव है कि इलाज के लिए कोई न कोई रोगी तो मिल ही जाएगा। वैद्य ने देखा कि कुछ ही दूरी पर, कुछ बच्चे खेल रहे थे।

🔷 वैद्य ने उन बच्चों को बुलाया और कहा कि देखो इस पेड़ के उस कोटर में मैना रहती है। बच्चे खुश हो गए। उन्होंने मैना की चाह में, उस पेड़ पर चढ़कर उस कोटर में हाथ डाल दिया। जिस बच्चे ने उस कोटर में हाथ डाला उसके हाथ में नाग की गरदन आ गई। बच्चे ने तुरंत उसे नीचे की ओर फेंक दिया।

🔶 नीचे कुछ बच्चों के साथ वैद्य भी खड़ा था। नाग सीधे, उसी वैद्य के ऊपर गिर गया और उसे कई जगहों पर काट लिया। जिसके कारण उसकी तुरंत मृत्यु हो गई।

संक्षेप में

🔷 इस कहानी का सार ये है कि जो व्यक्ति दूसरों के लिए गड्डा खोदता है, वह खुद ही उसमें गिर जाता है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 30 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (अन्तिम भाग)

🔷 अपने व्यक्तित्व का विकास उत्कृष्ठ चिन्तन और आदर्श कर्तव्य अपनाये रहने पर ही निर्भर है। उस साधना में चंचल मन और अस्थिर बुद्धि से काम नहीं चलता, इसमें तो संकल्पनिष्ठ, धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल हो सकते है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना है तो इसके लिए व्यक्तित्व में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्धन करना ही पड़ेगा।

🔶 आत्म-विकास अर्थात्‌ अपने आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित करते रहना। यदि हम अपनी स्थिति को देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी हमारे पास पर्याप्त समय और श्रम बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके। आत्मीयता का विस्तार किया जाय तो सभी कोई अपने शरीर और कुटुम्बियों की तरह अपनेपन की भाव श्रृंखला में बँध जाते हैं और सबका दुःख अपना दुःख तथा सबका सुख अपना सुख लगने लगता है। जो व्यवहार, सहयोग हम दूसरों से अपने लिए पाने की आकांक्षा करते हैं, फिर उसे दूसरों के लिए देने की भावना भी उमगने लगती है, लोक-मंगल और जन-कल्याण की, सेवा साधना की इच्छाएँ जगती हैं तथा उसकी योजनाएँ बनने लगती हैं। इस स्थिति में पहुँचा ,व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका कार्य क्षेत्र भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धक बन जाता है।

🔷 संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है, वे आत्म-विकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुए महानता के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं। चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के चार आधार यही हैं।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने? (भाग 2)

🔷 वस्तु एवं विषयों का बाहुल्य हो जाने के कारण मनुष्य की आवश्यकतायें एवं इच्छायें बहुत बढ़ गई हैं। समुपस्थित साधनों की अपेक्षा जनसंख्या की अपरिमित वृद्धि से मनुष्यों का स्वार्थ पराकाष्ठा पार कर गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण संसार की शक्तियों का सन्तुलन बिगड़ गया है, जिससे मनुष्यों के बीच पारस्परिक विश्वास समाप्त हो गया है। आधिक्य तथा अभाव की विषमता के कारण रोग, दोष, शोक, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लाभ आदि की प्रवृत्तियां बहुत बढ़ गई हैं। जीविका के लिये जीवन में अत्यधिक व्यस्तता बढ़ जाने के कारण मनुष्य एक निर्जीव यन्त्र बन गया है, उसके जीवन की सारी प्रसन्नता उल्लास, हर्ष एवं आशा आदिक विशेषतायें समाप्त हो गई हैं। मनुष्य निष्ठुर, नीरस, अनास्थावान एवं नास्तिक बन गया है। मन में कोई उत्साह न रहने के कारण धर्म उसके लिये ढोंग और संयमशीलता, रूढ़िवादिता के रूप में बदल गई है।

🔶 मनुष्य को परेशान करने वाली परिस्थितियों के विकटतम जाल चारों ओर फैल गये हैं। इन परेशानियों में फंसा-फंसा जब वह ऊब उठता है तो नवीनता तथा ताजगी लाने के लिये निकृष्ट मनोरंजनों तथा मद्यादिक व्यसनों की ओर भाग पड़ता है।

🔷 ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, स्वार्थ एवं संघर्ष आज के समय का वास्तविक जीवन बन गया है। इतनी दुष्ट प्रवृत्तियों एवं परिस्थितियों के रहते हुये मनुष्य परेशान न हो यह कैसे हो सकता है? क्या अनपढ़ और क्या पढ़ा लिखा, क्या धनवान और क्या निर्धन, क्या मालिक और क्या मजदूर, बच्चा-बूढ़ा, स्त्री-पुरुष सब समान रूप से अपनी-अपनी तरह परेशान देखे जाते हैं।

🔶 ऐसा नहीं कि मनुष्य अपनी इन परेशानियों का इतना अभ्यस्त हो गया हो कि इनकी ओर से उदासीन रह रहा हो, बल्कि वह इन व्यग्रताओं से इतना दुःखी हो उठा है कि उसे जीवन में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं रही, जिसके फलस्वरूप समाज में अपराधों, विकृतियों एवं कुरूपताओं की बाढ़ सी आ गई है। मानव-जीवन के लक्ष्य ‘‘सत्यं शिवम्, सुन्दरम्’’ का पूर्ण रूपेण तिरोधान हो गया है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.6

👉 The Joy of Service is better than Heaven

🔶 The divine king Indra was very pleased with the devotion of saint Arishtnemi. He sent down an angel to invite him to heaven. The Angel approached the saint and said, "Sir, the king of heaven, Indra has sent me to you. It is his request that you accompany me to the heaven and stay there." But, the purpose of the saint's devotion was self-realization and social service, he had never wished for a place in heaven. So he replied, "Dear Angel! I have made a little heaven for myself right here on Earth. I have no need for the amenities in heaven. The gratification I will get in heaven is already available to me by serving the needy. The pleasures in your heaven are feeble as compared to the joy of service."

📖 From Pragya Puran

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 6)

🔷 मित्रो ! मंदिर जन-जागरण के केंद्र बनाए जा सकते हैं। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है, क्योंकि उसके पास इमारत होती है। इमारत तो हर सेवा केंद्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का, निवासियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब आजीविका के स्रोतों से जनता में इसके लिए त्यागवृत्ति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता है। त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा होती है। उस धन के एक केंद्र पर इकट्ठा होने से समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते हैं।

🔶 प्राचीन काल में मंदिर इसी उद्देश्य से बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृत्तियों का विकास वास्तव में भगवान की सेवा का एक बहुत बड़ा काम है, लेकिन आज मैं क्या कहूँ, मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज मंदिर पर मंदिर बनते चले जा रहे हैं। करोड़ों रुपया खरच होता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि करोड़ों रुपयों से बनने वाली इमारतों को इस ढंग से बनाया गया होता कि वहाँ लोकसेवा की प्रवृत्तियों के लिए गुंजाइश रहती और भगवान के निवास की भी एक छोटी -सी जगह बना दी गई होती। अब तो सारी-की-सारी इमारतें इस काम के लिए बनाई जाती है कि उसमें केवल भगवान ही बैठें। भगवान को इतनी जगह की क्या जरूरत है? भगवान को चाहो, तो एक कोने में बिठा दो, तो भी वे मौज करेंगे। भगवान को इतने बड़े भव्य निर्माण से क्या लेना-देना? उनके लिए तो इतना बड़ा आसमान विद्यमान है।

🔷 मित्रो! मंदिरों की इमारतों को अगर इस ढंग से बनाया गया होता कि जिनमें मदिर के साथ-साथ पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा-कीर्तन का कक्ष भी बना होता, उसके आस-पास व्यायामशाला भी होती और थोड़ी-सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता, बच्चों के खेलने की भी जगह होती। इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की अनेक प्रवृत्तियों का एक केंद्र अगर वहाँ बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरीके से उपयोग होता। ऐसी स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 5)

👉 सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना

🔷 महादेव शिव के कथन का अन्तिम सत्य यह है कि ‘गुरु ही ब्रह्म है।’ यह संक्षिप्त कथन बड़ा ही सारभूत है। इसे किसी बौद्धिक क्षमता से नहीं भावनाओं की गहराई से समझा जा सकता है। इसकी सार्थक अवधारणा के लिए शिष्य की छलकती भावनाएँ एवं समर्पित प्राण चाहिए। जिसमें यह पात्रता है, वह आसानी से भगवान् भोलेनाथ के कथन का अर्थ समझ सकेगा। ‘गुरु ही ब्रह्म है’ में अनेकों गूढ़ार्थ समाए हैं। जो गुरुतत्त्व को समझ सका, वही ब्रह्मतत्त्व का भी साक्षात्कार कर पाएगा। सद्गुरु कृपा से जिसे दिव्य दृष्टि मिल सकी, वही ब्रह्म का दर्शन करने में सक्षम हो सकेगा। इस अपूर्व दर्शन में द्रष्टा, दृष्टि, एवं दर्शन सब एकाकार हो जाएँगे अर्थात् शिष्य, सद्गुरु एवं ब्रह्मतत्त्व के बीच सभी भेद अपने आप ही मिट जाएँगे। यह सत्य सूर्य प्रभाव की तरह उजागर हो जाएगा कि सद्गुरु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही अपने सद्गुरु के रूप में साकार हुए हैं।

भगवान् शिव कहते हैं, सद्गुरु की कृपा दृष्टि के अभाव में-

वेदशास्त्रपुराणानि इतिहासादिकानि च।
मंत्रयंत्रादि विद्याश्च स्मृतिरुच्चाटनादिकम्॥ ६॥
शैवशाक्तागमादीनि अन्यानि विविधानि च।
अपभ्रंशकराणीह जीवानां भ्रान्तचेतसाम्॥ ७॥

🔶 वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, मंत्र, यंत्र, उच्चाटन आदि विद्याएँ, शैव-शाक्त, आगम आदि विविध विद्याएँ केवल जीव के चित्त को भ्रमित करने वाली सिद्ध होती हैं।
  
🔷 विद्या कोई हो, लौकिक या आध्यात्मिक उसके सार तत्त्व को समझने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। विद्या के विशेषज्ञ गुरु ही उसका बोध कराने में सक्षम और समर्थ होते हैं। गुरु के अभाव में अर्थवान् विद्याएँ भी अर्थहीन हो जाती हैं। इन विद्याओं के सार और सत्य को न समझ सकने के कारण भटकन ही पल्ले पड़ती है। उच्चस्तरीय तत्त्वों के बारे में पढ़े गए पुस्तकीय कथन केवल मानसिक बोझ बनकर रह जाते हैं। भारभूत हो जाते हैं। जितना ज्यादा पढ़ो, उतनी ही ज्यादा भ्रान्तियाँ घेर लेती हैं। गुरु के अभाव में काले अक्षर जिन्दगी में कालिमा ही फैलाते हैं। हाँ, यदि गुरुकृपा साथ हो, तो ये काले अक्षर रोशनी के दीए बन जाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 14

👉 भाग्य बनाना अपने हाथ की बात है:-


🔶 प्रायः टालस्टाय कहा करते थे- “भाग्य बनाना तो हमारे हाथ की बात है। ईश्वर ने हमारे शरीर, हमारे मस्तिष्क और हमारी आत्मा में वे अद्भुत शक्तियाँ भर दी हैं जिनका हमें कुछ ज्ञान नहीं है। यदि हम इन अद्भुत शक्तियों के विकास में लग जायें, तो भाग्य की लकीरों को निश्चय ही बदल सकते हैं।” एक नहीं अनेकों व्यक्तियों ने भाग्य बदला है।

🔷 एक बार घोड़ा हाँकने वाले ने अपना भाग्य बदला था। क्या आपको उसकी कहानी मालूम है। यदि नहीं तो लीजिये उसे तरोताजा कर लीजिये-

🔶 उसका नाम लावेल था। फूटे नसीब को चुनौती देकर वह फ्राँस का प्रधान सचिव बन गया था।

🔷 गरीबी से उसके पाँव जकड़े थे। अभाव उसे चारों ओर से बाँधे हुये थे। रोटी- कपड़े और पढ़ने की समस्त असुविधाएँ उसके पास थी। उन्नति के कोई भी साधन उसके पास नहीं थे।

🔶 जब वह छोटा था, तो एक दिन पिता ने बाग में घूमते हुये एक सुन्दर फल को दिखा कर उससे कहा था,

🔷''देखो पुत्र ! उस सुन्दर पुष्प को देखो। पूरे उद्यान में उसका सौरभ और सौन्दर्य फैल रहा है। दिशाएँ सुगंध से जैसे भर गई हैं। मन उसकी ओर खिंचा जाता है। क्या तुम्हें मालूम है कि पूर्ण विकसित स्थिति में आने लिये इस पुष्प को कितने कष्ट उठाने पड़े, कितनी एक से एक बड़ी तकलीफें सहनी पड़ी ?? उसके चारों ओर काँटे ही काँटे हैं। तनिक सी हवा चलते ही इसका शरीर काँटों सेविंध जाता है। हिलने तक के लिये स्थान नहीं है। लेकिन फिर भी यह फूल अपना सौन्दर्य और सौरभ बिखेर रहा है। तुमको भी इसी प्रकार जीवन में एक दिन खिलना है, एक दिन गरीबी, अभावों, विषमताओं, विरोधों के नुकीले काँटों में बढ़ना है। सफलता प्राप्त करना है। इस सफलता के लिये हर प्रकार के काँटों का आलिंगन करना है। हमेशा याद रखना है कि जीवन क सफल निर्माण पुष्पों की शय्या पर नहीं होता, बल्कि काँटों की सेज पर होता है। भाग्य बदलने का एकमात्र उपाय उन्नति के लिये हर प्रकार का सच्चा और निरन्तर संघर्ष ही है।''

🔷 बालक लावेल पर इन शब्दों का जादू जैसा असर हुआ। उसने निरन्तर भाग्य के चक्र को बदल डालने के लिये सतत प्रत्यन किया। अब उसके जीवन का एक नया अध्याय खुला।

🔶 वह घोड़ा हाँकता, पर साथ ही पुस्तकें रखता। जो भी थोड़ा- सा अवकाश मिलता, उसी में पुस्तकें पढ़ने बैठ जाता। एक ओर घोड़ा की सेवा और जीविका उपार्जन का कुटिल वक्त, दूसरी ओर अध्ययन और भाग्य को बदल डालने का दृढ़ प्रयत्न, उसके लिये सतत उद्योग। उसकी रोजी कम होने लगी। पढ़ने लिखने में लगे रहने से ताँगे की कमाई में कमी आना अवश्यम्भावी था।

🔷 इधर उसे पढ़ाई में मजा आने लगा था। उसे फाके मस्ती करना मंजूर था, पर अध्ययन छोड़ना मंजूर न था। कभी- कभी वह तांगा हांकने की छुट्टीकर देता, पास के पैसे घोड़े पर व्यय कर देता। स्वयं पूरे दिन उपवास कर डालता। रात में पढ़ने के लिये रोशनी का प्रबन्ध न होता। विवश होकर उसे सड़क की लालटेन के नीचे पढ़ना पढ़ा। पुस्तक खरीदने के लिये उसके पास पैसा नहीं था। वह उन्हें उधार माँगता और पढ़ कर लौटा देता। जब तक एक पुस्तक याद न कर लेता, तब तक उसे न छोड़ता ।। कभी -कभी बारिश के पानी में भी पड़ता ही रहता ।। तूफान या ठन्ड से भी न डरता। वर्षों परिश्रम करते- करते वह विद्वान बन गया और अपनी विद्वत्ता के बल पर सफलता की उच्चतम मंजिल पर पहुँचा।

अखंड ज्योति जनवरी 1961 से

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 Dec 2017

👉 आज का सद्चिंतन 29 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (भाग 2)

🔷 आत्म-सुधार, अर्थात्‌ कुसंस्‍कारों को परास्त करना। अपने स्वभाव में सम्मिलित दुष्प्रवृत्तियाँ अभ्यास होने के कारण कुसंस्‍कार बन जाती हैं और व्यवहार में उभर-उभर कर आने लगती हैं। आत्म-सुधार प्रक्रिया के अन्तर्गत इसके लिए अभ्यास और विचार-संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करने चाहिए। अभ्यस्त कुसंस्‍कारों की आदत तोड़ने के लिए बाह्य क्रिया-कलापों पर नियंत्रण और उनकी जड़ें उखाड़ने के लिए विचार-संघर्ष की पृष्ठभूमि बनानी चाहिए। बुरी आदतें भूतकाल में किया गया अभ्यास ही हैं इस अभ्यास को अभ्यास बना कर तोड़ा जाए और कुसंस्‍कार सुसंस्कार निर्माण द्वारा नष्ट किये जायें। जैसे थल सेना से थल सेना ही लड़ती है और नभ सेना से लड़ने के लिए नभ सेना ही भेजी जाती है।

🔶 जो भी बुरी आदतें जब उभरें उसी से संघर्ष किया जाए। बुरी आदतें जब उभरने के लिए मचल रहीं हों तो उनके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा किया जाए और मनोबलपूर्वक अनुचित को दबाने तथा उचित को अपनाने का साहस किया जाय। मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना में सफलता ही मिलती है। इसके लिए छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए। उन्हें जब हरा दिया जायेगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा।

🔷 आत्म-निर्माण अर्थात्‌ जो सत्प्रवृतियाँ अभी अपने स्वभाव में नहीं हैं उनका योजनाबद्ध विकास करना। दुर्गणों को निरस्त कर दिया गया, उचित ही है पर व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाने के लिए, आत्म-विकास की अगली सीढ़ी चढ़ने के लिये सद्‌गुणों की सम्पदा एकत्रित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। बर्तन का छेद बन्द कर देना काफी नहीं है, जिस उद्देश्‍य के लिये बर्तन खरीदा गया है वह भी तो पूरा करना चाहिये। खेत में से कँटीली झाड़ियाँ, पुरानी फसल की सूखी जड़ें उखाड़ दी गई, पर इसी से तो खेती का उद्देश्‍य पूरा नहीं हो गया, यह कार्य तो अधूरा है। शेष आधी बात जब बनेगी तब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल-पोसकर बड़ा किया जाए।

.... शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने? (भाग 1)

🔷 आज संसार पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि मनुष्य परेशानियों का भंडार बना हुआ है। आज परेशानियों की जितनी बहुतायत है उतनी कदाचित पूर्वकाल में नहीं होगी। इसका मुख्य कारण यही समझ में आता है कि ज्यों-ज्यों संसार की जन-संख्या बढ़ती जाती है त्यों-त्यों नये विचारों, नई भावनाओं, नई इच्छाओं की वृद्धि होती जाती है। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन, वेश-भूषा और आहार-विहार विकसित होकर संसार में फैल गये हैं।

🔶 किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते है। किसी एक वर्ग का आहार-विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, विभिन्नता और बहुलता के कारण कदम-कदम पर संघर्ष पैदा होने लगा है। एक विचारधारा के लोग दूसरे की विचारधारा की आलोचना करते हैं, निन्दा करते हैं। हर मनुष्य अपने ही विचारों, विश्वासों एवं मान्यताओं के प्रति भावुक होता है। उनके विरोध में कुछ सुनना पसंद नहीं करता। किन्तु उसे सुनना ही पड़ता है।

🔷 साथ ही जब मनुष्य का मन-मस्तिष्क किसी एक मान्यता में केन्द्रित रहता है तब उसे कोई विशेष परेशानी नहीं होती। उसकी मान्यता जैसी भी अच्छी-बुरी होती है वह उस पर विश्वास रखता हुआ सन्तुष्ट रहता है। उसके मस्तिष्क में कोई तर्क-वितर्क का आन्दोलन नहीं चलता। किन्तु आज के युग में बुद्धिवाद इतना बढ़ गया है कि किसी एक विश्वास को अखण्ड बनाये रखना कठिन हो गया है। संसार में हजारों प्रकार की विचारधारायें विकसित हो गई हैं, तर्क का इतना प्राधान्य हो गया है कि किसी भी मान्यता का आसन हिलते देर नहीं लगती। विश्वासों के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया से भी कोई कम परेशानी नहीं होती।

🔶 विभिन्न सभ्यताओं का विकास भी संघर्ष एवं अशान्ति का कारण बना हुआ है। हर राष्ट्र, हर मानव समुदाय संसार में अपनी सभ्यता का ही प्रसार देखना चाहता और उसके प्रयत्न में अन्य सभ्यताओं को अपदस्थ तक करने की कोशिश करता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.6

👉 Significance of donating the Time (Part 3)

🔶 The current time is just the same. At this time I request all of you to spare some span of time. How many times I have asked and published that please donate some time, donate some time. You all would have witnessed at the time of solar-eclipse and lunar-eclipse that a call is listened all round—donate something, donate something for the moon has been eclipsed, for the sun has been eclipsed. At this time also my only call is, time’s only call is and also MAHAKAAL’s only call is-donate some time, donate some time for the mass-mentality has been eclipsed. Donate time-donate time for the thoughts and minds of people have to be purified and de-eclipsed.

🔷 This world would have been a better place and more wellbeing, had the people living here been preferred thoughtfulness, far-sightedness and discreetness to money. The man would have become god by now and the atmosphere of the earth like that of heaven; but where is thoughtfulness? Where is discreetness? We should endeavor to induce discreetness in man’s mind. Only discreetness can lead to honesty. Honesty leads to dutifulness which ultimately leads to courageousness. All the four specifications of life are associated mutually. Therefore discreetness is the root while honesty, dutifulness and courageousness are its leaves, fruits, flowers and branches. That is why all our concentration should be on how to grow discreetness in ourselves leaving no stone unturned in doing so.

🔶 Very this is my request to all of you to spare as much time of your life as you can to employ the same in measures leading the discreetness in public-mind to grow. 
 
========= OM SHANTI =========

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 5)

🔷 साथियो! समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के सिर पर हाथ रखा और कहा कि भारतीय स्वाधीनता के लिए, भारतीय धर्म की रक्षा करने के लिए तुम्हें बढ़ चढ़कर काम करना चाहिए। शिवाजी ने कहा कि मेरे पास वैसी साधन सामग्री कहाँ है? मैं तो छोटे से गाँव का एक अकेला लड़का, इतने बड़े काम को कैसे कर सकता हूँ। समर्थ गुरु रामदास ने कहा, "मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था सात सौ गाँवों में महावीर मंदिर के रूप में बनाकर के रखी है। जहाँ जनता में काम करने वाले को प्रकाण्ड, समझदार एवं मनस्वी लोग काम करते हैं।" पुजारी पद का अर्थ मरा हुआ आदमी, बीमार, बुड्ढा, निकम्मा, बेकार और नशेबाज आदमी नहीं है। पुजारी का अर्थ-जिसे भगवान का नुमाइन्दा या भगवान का प्रतिनिधि कहा जा सके। जहाँ ऐसे समर्थ व्यक्ति हों, समझना चाहिए, वहाँ पुजारी की आवश्यकता पूरी हो गई।

🔶 मित्रों ! किसी आदमी को खाना दिया जाए और वह भी आधा-अधूरा, सड़ा-बुसा हुआ दिया जाए, तो उससे खाने वाले को भी नफरत होगी और उसके स्वास्थ्य की रक्षा भी नहीं होगी। इसी तरीके से भगवान की सेवा करने के लिए लँगड़ा-लूला, काना-कुबड़ा, मरा, अंधा, बिना पढा, जाहिल-जलील, गंदा आदमी रख दिया जाए, तो वह क्या कोई पुजारी है? पुजारी तो भगवान जैसा ही होना चाहिए। भगवान राम के पुजारी कौन थे? हनुमान जी थे। अतः कुछ इस तरह का पुजारी हो, तो कुछ बात भी बने। इसी तरह के पुजारी समर्थ गुरु रामदास ने सारे-के-सारे महाराष्ट्र में रखे थे। इन सात सौ समर्थ पुजारियों ने उस इलाके में जो फिजा, वो परिस्थितियाँ पैदा कीं कि छत्रपति शिवाजी के लिए जब सेना की आवश्यकता पड़ी, तो उन्हीं सात सौ इलाकों से बराबर उनकी सेना की आवश्यकता पूरी को जाती रही।

🔷 इसी प्रकार जब उनको पैसे की आवश्यकता पड़ी, तो उन छोटे से देहातों से, जिनमें कि महावीर मंदिर स्थापित किए गए थे, वहाँ से पैसे की आवश्यकता को पूरा किया गया। अनाज भी वहाँ से आया। उसी इलाके में जो लोहार रहते थे, उन्होंने हथियार बनाए। इस तरह जगह-जगह छिटपुट हथियार बनते रहे। अगर एक जगह पर हथियार बनाने की बड़ी फैक्ट्री होती, तो शायद विरोधियों को पता चल जाता और उन्होंने उस स्थान को रोका होता। वे सावधान हो गए होते। मिलिट्री एक ही जगह रखी गई होती, तो विरोधियों को पता चल जाता और उसे रोकने की कोशिश की गई होती, लेकिन सात सौ गाँवों में पुजारियों के रूप में एक अलग तरह की छावनियाँ पड़ी हुई थीं। हर जगह इन सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाती थी। हर जगह इन छावनियों में १ ०-२ ० वालंटियर आते थे और वही से पैसा धन व अनाज आता था। इस तरीके से मंदिरों के माध्यम से समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के आगे करके इतना बड़ा काम कर दिखाया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 4)

👉 सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना

🔷 गुरुगीता साधक संजीवनी है। इस पुस्तक के प्रथम शीर्षक में गुरुतत्त्व की जिज्ञासा का प्रसंग आया है। साधकों की आदिमाता महादेवी पार्वती ने परमगुरु भगवान् शिव से यह जिज्ञासा की। आदिमाता की इस जिज्ञासा पर भगवान् शिव अति प्रसन्न हुए। उच्चतम तत्त्व के प्रति जिज्ञासा भी उच्चतम चेतना में अंकुरित होती है। उत्कृष्टता एवं पवित्रता की उर्वरता में ही यह अंकुरण सम्भव हो पाता है। जिज्ञासा- जिज्ञासु की भावदशा का प्रतीक है। इसमें उसकी अन्तर्चेतना प्रतिबिम्बित होती है। जिज्ञासा के स्वरूप में जिज्ञासु की तप-साधना, उसके स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व निदिध्यासन की झलक मिलती है। माता पार्वती की जिज्ञासा भी हम सब गुरुभक्तों की कल्याण कामना के उद्देश्य से उपजी थी। सर्वज्ञानमयी माँ ने अपनी सन्तानों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए देवेश्वर शिव से प्रश्न किया था।

उत्तर में भगवान् शिव बोले-ईश्वर उवाच

मम रूपासि देवित्वं त्वत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनाऽपि कृतः पुरा॥ ४॥
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तत्शृणुष्व वदाम्यहम्।
गुरुं विना ब्रह्म नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने॥ ५॥

🔶 हे देवि! आप तो मेरा अपना स्वरूप हैं। आपका यह प्रश्न बड़ा ही लोकहितकारी है। ऐसा प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं पूछा। आपकी प्रीति के कारण इसके उत्तर को मैं अवश्य कहूँगा। हे महादेवि! यह उत्तर भी तीनों लोकों में अत्यन्त दुर्लभ है; परन्तु इसे मैं कहूँगा। आप सुने, सद्गुरु के सिवाय कोई ब्रह्म (कोई अन्य उच्चतम तत्त्व) नहीं है। हे सुमुखि! यह सत्य है, सत्य है।

🔷 भगवान् शिव के इस कथन के प्रथम चरण में गुरु और शिष्य की अनन्यता, एकात्मता और तादात्म्यता है। गुरु और शिष्य अलग-अलग नहीं होते। बस उनके शरीर अलग-अलग दिखते भर हैं। उनकी अन्तर्चेतना आपस में घुली मिली होती है। सच्चा शिष्य गुरु का अपना स्वरूप होता है। उसमें सद्गुरु की चेतना प्रकाशित होती है। शिष्य के प्राणों में गुरु का तप प्रवाहित होता है। शिष्य के हृदय में गुरु की भावनाओं का उद्रेक होता है। शिष्य के विचारों में गुरु का ज्ञान प्रस्फुटित होता है। ऐसे गुरुगत प्राण शिष्य के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता। सद्गुरु उसे दुर्लभतम तत्त्व एवं सत्य बनाने के लिए सदा सर्वदा तैयार रहते हैं। शिष्य के भी समस्त क्रियाकलाप अपने सद्गुरु की अन्तर्चेतना की अभिव्यक्ति के लिए होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 13

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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