रविवार, 10 सितंबर 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 63)

🌹  राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।

🔴 बूँदें अगल-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकतीं। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है, पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती हैं, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केंद्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।
 
🔵 धर्म सम्प्रदायों की विभाजन रेखा भी ऐसी ही है, जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि-वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उभरती रही है। अस्त्र-शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा-जोखा लिया जा सकता है, पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय इन कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुःखदायी नहीं रहे हैं। आगे भी इसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।

🔴 आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव सहिष्णुता, बिना टकराए अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है, काम चलाऊ नीति है। अंततः विश्व मानव का एक ही मानव धर्म होगा। उसके सिद्धांत चिंतन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलंबित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर कसने के उपरांत ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलंबित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो, पर वह समय दूर नहीं जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस वेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यही हैं आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ, जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती हैं।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.90

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.16

👉 Only Determination Leads Your Rise. (Part 3)

🔵 ‘Determination’ must be developed. What is ‘Determination’? Determination is one of the so many faculties of mind, where we become committed to do one thing and not to do the other at any cost. If you determine like that for anything, then believe that your mental firmness will lead you to proceed on the way you intend to. If you do not have any such determination or willpower, your dreams of flying high will lead you reach nowhere. Your dreams that- I will do this, will study, will start doing exercise and doing this or that will come out to be mere imaginations. You can never do anything in absence of determination. No imagination singly has so far been come true of anyone whereas no determination has so far been left unfulfilled of any one. So let your determination lead your genuine imagination.
 
🔴 That is why you must pledge to get support of power of determination. Be pledged. To do some good job, to proceed on way to progress you must determine in your mind that you will do this.

🔵 Many persons impose conditions on themselves that they will not do that unless they do this. For example no salt, no ghee etc. etc. what is this? To see these things look unimportant. What is relation of salt with doing that work and if you stop consuming ghee, what difference it will make? Meaning, these things do not have. But what matters is your so tough decision that you have taken to do a job in a planned way. Then believe your job will not be left unfinished. CHANKAYA determined not to comb his hairs until & unless he had destroyed lineage of NAND. It is a way of symbolizing one’s determination. Determinations are often forgotten by people, but an outside discipline attached with it does not allow this to happen.

🌹 to be continue...
🌹 Pt Shriram Sharma Aachrya

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 138)

🌹  स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण

🔵 यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाए, यह सम्भव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र सम्बन्धित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उससे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीर पहले से ही परिष्कृत हो चुका होता है। सूक्ष्म शरीर को उच्चस्तरीय क्षमता-सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं, उसी से दूसरों की सेवा सहायता करते हैं, किन्तु शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गए हैं जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है।

🔴 शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए सम्भव नहीं क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ऐसी नहीं है जो पदार्थ विज्ञान की सीमा मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता तो उसने वैज्ञानिकों की चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्याय अवश्य ही जोड़ता। किम्वदन्तियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जाएगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणिक किए बिना किसी की गति नहीं।

🔵 प्रश्न सूक्ष्मीकरण साधना का है, जो हम इन दिनों कर रहे हैं। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर के रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरांत भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थतियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग-पुरुषार्थ के, तप-साधना के सम्भव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।

🔴 इसके लिए किसे क्या करना होता है, यह इसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर होता है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता। किंतु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है, अंडा जब तक पक नहीं जाता तब तक एक खोखले में बंद रहता है इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने-फिरने और दौड़ने-उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं, जो हमने पिछले दिनों किए हैं। प्राचीनकाल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v2.156

http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.20

👉 आत्मचिंतन के क्षण 10 Sep 2017

🔵 अपने गुण और दोष देखने में जब तक ईमानदारी और सच्चा दृष्टिकोण नहीं अपनाते संस्कार परिवर्तन में तभी तक परेशानी रहती है। मनुष्य आत्म दुर्बल तभी तक रहता है जब तक वह आत्म विवेचन का सच्चा स्वरूप ग्रहण नहीं करता। झूठे प्रदर्शनों और स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण ही जीवन में परेशानियाँ आती हैं। सच्चाई की मस्ती ही अनुपम है। उसकी एक बार जो क्षणिक अनुभूति कर लेता है वह उसे जीवनपर्यन्त छोड़ता नहीं। सत्य मनुष्य को ऊँचा उठाता है, साधारण स्थिति से उठाकर परमात्मा के समीप पहुँचा देता है।

🔴 सत् संस्कारों का बल, कुसंस्कारों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक होता है किन्तु कुसंस्कारों में जो क्षणिक सुख और तृप्ति दिखाई देती है उसी के कारण लोग दुष्कर्मों की ओर बड़ी जल्दी खिंच जाते हैं। अतएव जब कभी ऐसे अनिष्टकारी विचार मस्तिष्क में उठें तब उनसे भागने या शीघ्र निर्णय का प्रयत्न करना चाहिए। किसी बुराई से डरने या भागने से वह जीवन का अंग बन जाती हैं किन्तु जब विचारों में मौलिक परिवर्तन करते हैं और बुराई की गहराई तक छान-बीन करते हैं तो अन्तःकरण की दिव्य ज्योति के समक्ष सच और झूठ की स्वतः अभिव्यक्ति हो जाती है।

🔵 आप जिस कार्य के लिये भी पूर्ण रुचि लगन और तत्परता के साथ काम करेंगे उसमें सफलता अवश्य मिलेगी। बुराइयों से बचाव और अच्छाइयों को धारण करने के लिये अपनी संपूर्ण चेष्टाओं को एकत्रित करके ही कुछ कार्यक्रम चलाये जा सकते है उन्हीं से स्थायी लाभ मिलता है। अपने जीवन में अशुभ संस्कारों के निवारण के लिए स्मृतियों, अनुभवों और आदतों का विश्लेषण करना चाहिए ताकि वस्तुस्थिति का सच्चा ज्ञान मिले। मनुष्य प्रायः अज्ञान में ही बुराइयाँ करता है। इसलिए वह दुख भी पाता है। बुरे संस्कारों का परिणाम भी सदैव दुःखदाई ही होता है। इसलिए बुराई त्याग करने के लिए साहस और धैर्य का आत्म विवेचन करते रहना चाहिए।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 10 Sep 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 10 Sep 2017


👉 वैभव की दुर्गंध:-


🔴 अवंतिका देश का ‘राजा रवि सिंह’ ‘महात्मा आशुतोष’ पर बड़ी ही श्रद्धा रखते थे। वह उनसे मिलने रोज कुटिया में जाते थे, लेकिन हर बार जब महात्मा को राजा अपने महल में आने के लिए आमंत्रित करते तो महात्मा मना कर देते।

🔵 एक दिन राजा रवि सिंह ने जिद पकड़ ली। तब महात्मा ने कहा- ‘मुझे तुम्हारे महल में दुर्गंध महसूस होती है।’

🔴 रवि सिंह अपने महल लौट आए लेकिन काफी देर तक महात्मा की बातों पर विचार करते रहे।

🔵 कुछ दिनों बाद जब राजा फिर से महात्मा के पास पहुंचे तो महात्मा राजा को पास के ही गांव में घुमाने ले गए। दोनों जंगल को पार करते हुए एक गांव में पहुंचे। उस गांव में कई पशु थे। उनके चमड़े के कारण दुर्गंध आ रही थी।

🔴 जब दुर्गंध सहन करने योग्य नहीं रह गई तो राजा ने महात्मा से कहा- ‘चलिए महात्मा यहां से, मुझसे ये दुर्गंध बर्दाश्त नहीं हो रही।’ तब महात्मा ने कहा- ‘यहां सभी हैं लेकिन दुर्गंध आप को ही आ रही है।’

🔵 राजा ने कहा- ‘ये लोग आदी हो चुके हैं, मैं नहीं।’

🔴 तब महात्मा ने कहा- ‘राजन! यही हाल तुम्हारे महल का है। जहां भोग और विषय की गंध फैली रहती है। तुम इसके आदी हो चुके हो लेकिन मुझे वहां जाने की कल्पना से ही कष्ट होने लगता है।’

🔵 जब हम अपनी जिंदगी में किसी वातावरण, व्यवहार के आदी हो जाते हैं तो उसकी भली-भांति परीक्षा करने की क्षमता खो देते हैं। हमारी दृष्टि संकुचित हो जाती है। इसलिए जब तक वातावरण से दूर होकर विचार, कर्म और जीवन की गतिविधियों का चिंतन नहीं किया जाता तब तक हमें सही गलत का ज्ञान नहीं होता है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...