🌹 राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे।
🔴 बूँदें अगल-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकतीं। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है, पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती हैं, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केंद्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।
🔵 धर्म सम्प्रदायों की विभाजन रेखा भी ऐसी ही है, जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि-वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उभरती रही है। अस्त्र-शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा-जोखा लिया जा सकता है, पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय इन कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुःखदायी नहीं रहे हैं। आगे भी इसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।
🔴 आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव सहिष्णुता, बिना टकराए अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है, काम चलाऊ नीति है। अंततः विश्व मानव का एक ही मानव धर्म होगा। उसके सिद्धांत चिंतन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलंबित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर कसने के उपरांत ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलंबित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो, पर वह समय दूर नहीं जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस वेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यही हैं आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ, जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.90
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.16
🔴 बूँदें अगल-अलग रह कर अपनी श्री गरिमा का परिचय नहीं दे सकतीं। उन्हें हवा का एक झोंका भर सुखा देने में समर्थ होता है, पर जब वे मिलकर एक विशाल जलाशय का रूप धारण करती हैं, तो फिर उनकी समर्थता और व्यापकता देखते ही बनती है। इस तथ्य को हमें समूची मानव जाति को एकता के केन्द्र पर केंद्रित करने के लिए साहसिक तत्परता अपनाते हुए संभव कर दिखाना होगा।
🔵 धर्म सम्प्रदायों की विभाजन रेखा भी ऐसी ही है, जो अपनी मान्यताओं को सच और दूसरों के प्रतिपादनों को झूठा सिद्ध करने में अपने बुद्धि-वैभव से शास्त्रार्थों, टकरावों के आ पड़ने पर उभरती रही है। अस्त्र-शस्त्रों वाले युद्धों ने कितना विनाश किया है, उसका प्रत्यक्ष होने के नाते लेखा-जोखा लिया जा सकता है, पर अपनी धर्म मान्यता दूसरों पर थोपने के लिए कितना दबाव और कितना प्रलोभन, कितना पक्षपात और कितना अन्याय इन कामों में लगाया गया है, इसकी परोक्ष विवेचना किया जाना संभव हो तो प्रतीत होगा कि इस क्षेत्र के आक्रमण भी कम दुःखदायी नहीं रहे हैं। आगे भी इसका इसी प्रकार परिपोषण और प्रचलन होता रहा तो विवाद, विनाश और विषाद घटेंगे नहीं बढ़ते ही रहेंगे। अनेकता में एकता खोज निकालने वाली दूरदर्शिता को सम्प्रदायवाद के क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए।
🔴 आरंभिक दिनों में सर्व-धर्म-समभाव सहिष्णुता, बिना टकराए अपनी-अपनी मर्जी पर चलने की स्वतंत्रता अपनाए रहना ठीक है, काम चलाऊ नीति है। अंततः विश्व मानव का एक ही मानव धर्म होगा। उसके सिद्धांत चिंतन, चरित्र और व्यवहार के साथ जुड़ने वाली आदर्शवादिता पर अवलंबित होंगे। मान्यताओं और परम्पराओं में से प्रत्येक को तर्क, तथ्य, प्रमाण, परीक्षण एवं अनुभव की कसौटियों पर कसने के उपरांत ही विश्व धर्म की मान्यता मिलेगी। संक्षेप में उसे आदर्शवादी व्यक्तित्व और न्यायोचित निष्ठा पर अवलंबित माना जाएगा। विश्व धर्म की बात आज भले ही सघन तमिस्रा में कठिन मालूम पड़ती हो, पर वह समय दूर नहीं जब एकता का सूर्य उगेगा और इस समय जो अदृश्य है, असंभव प्रतीत होता है, वह उस वेला में प्रत्यक्ष एवं प्रकाशवान होकर रहेगा। यही हैं आने वाली सतयुगी समाज व्यवस्था की कुछ झलकियाँ, जो हर आस्तिक को भविष्य के प्रति आशावान् बनाती हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.90
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.16