मंगलवार, 10 जनवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 4) 11 Jan
🌹 अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना
🔴 गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वह वैसा ही है; जो अपने को जैसा मानता है, वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्त्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है, उसे अपना अस्तित्त्व मानवी गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा।
🔵 परमात्मा सब कुछ करने मे समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्री वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्मविस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तुस्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को साँप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध से उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में भी विलम्ब नहीं लगता।
🔴 भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह-शावक की कथा सर्वविदित है। अपने ईद-गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है, तब पता चलता है कि आत्मसत्ता शुद्धोऽसि-बुद्धोऽसि-निरंजनोऽसि के सिद्धान्त को अक्षरश: चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’ इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाये तो समझना चाहिये कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया।
🔵 मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचिन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिये जाला अपने भीतर का द्रव निकालकर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग उठती है तो उस जाले को समेट-बटोरकर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गईं। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं, आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर है। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान् बना जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो, वह वैसा ही है; जो अपने को जैसा मानता है, वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्त्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है, उसे अपना अस्तित्त्व मानवी गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा।
🔵 परमात्मा सब कुछ करने मे समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्री वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्मविस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तुस्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को साँप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध से उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में भी विलम्ब नहीं लगता।
🔴 भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह-शावक की कथा सर्वविदित है। अपने ईद-गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है, तब पता चलता है कि आत्मसत्ता शुद्धोऽसि-बुद्धोऽसि-निरंजनोऽसि के सिद्धान्त को अक्षरश: चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’ इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाये तो समझना चाहिये कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया।
🔵 मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचिन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिये जाला अपने भीतर का द्रव निकालकर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग उठती है तो उस जाले को समेट-बटोरकर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गईं। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं, आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर है। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान् बना जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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