शनिवार, 11 मार्च 2017
👉 हमारी होली
ऐसी होली जले ज्ञान की ज्योति जगत में भर दे।
कलुषित कल्मष जलें, नाश पापों तापों का कर दे॥
🔵 होलिकोत्सव का यह त्योहार उस प्यास की एक धुँधली तस्वीर है जिसकी इच्छा आदमी को हर समय बनी रहती है। मौज! आनंद! खुशी! प्रसन्नता! हर्ष! सुख! सौभाग्य! कितने सुन्दर शब्द हैं इनका चिन्तन करते ही नसों एक बिजली सी दौड़ जाती है। आदमी युगों से आनन्द की खोज कर रहा है उसका अन्तिम लक्ष्य ही अखण्ड आनन्द है। यह राजहंस मोतियों की तलाश में जगह-जगह भटकता फिरता है। विभिन्न प्रकार के पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूँदें उसे मोती दीखती हैं, उन्हें लेने के लिए बड़े प्रयत्न के साथ वहाँ तक पहुँचता है, पर चोंच खोलते ही यह गिर पड़ती हैं और राजहंस अतृप्त का अतृप्त ही बना रहता है।
🔴 एक पौधे को छोड़ कर दूसरे पर दूसरे को छोड़ कर तीसरे पर और तीसरे को छोड़ कर चौथे पर जाता है पर संतोष कहीं नहीं मिलता। वह भ्रमपूर्ण स्थिति में पड़ा हुआ है। जिन्हें वह मोती समझता है असल में ओस की वे बूँदें मोती हैं नहीं। वह तो मोतियों की एक झूठी तस्वीर मात्र हैं। तस्वीरों से आदमी टकरा रहा है। दर्पण की छाया को अपनी कार्य संचालक बनाना चाहता है। इस प्रयत्न में उसने असंख्य युगों का समय लगाया है। परन्तु तृप्ति अब तक नहीं मिल पाई है। मनोवाँछा अब तक पूरी नहीं हो सकी है।
🔵 आनंद की खोज में भटकता हुआ इंसान,दरवाजे दरवाजे पर टकराता फिरता है। बहुत सा रुपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, रमणियों से भोग करें, सुस्वादु भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढ़िया मकान और सवारियाँ हों, नौकर चाकर हों, पुत्र, पुत्रियों, वधुओं से घर भरा हो, उच्च अधिकार प्राप्त हो, समाज में प्रतिष्ठा हो, कीर्ति हो, यह चीजें आदमी प्राप्त करता है। जिन्हें यह चीजें उपलब्ध नहीं होतीं वे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जिनके पास हैं वे उससे भी अधिक लेने का प्रयत्न करते हैं। कितनी ही मात्रा में यह चीजें मिल जाएं पर पर्याप्त नहीं समझी जातीं जिससे पूछिये यही कहेगा ‘मुझे अभी और चाहिये।’ इसका एक कारण है, स्थूल बुद्धि तो समझ भी लेती है कि काम चलाने के लिये इतना काफी है, पर सूक्ष्म बुद्धि भीतर ही भीतर सोचती है यह चीजें अस्थिर हैं किसी भी क्षण इनमें से कोई भी चीज कितनी ही मात्रा में बिना पूर्व सूचना के नष्ट हो सकती है।
🔴 इसलिये ज्यादा संचय करो ताकि नष्ट होने पर भी कुछ बचा रहे। यही नष्ट होने की आशंका अधिक संचय के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी नाशवान चीजों का नाश होता ही है। यौवन ठहर नहीं सकता, लक्ष्मी किसी की दासी नहीं है, मकान, सवारी,घोड़े ,कपड़े भी स्थायी नहीं, भोजन और मैथुन का आनन्द कुछ क्षण ही मिल सकता है। हर घड़ी उसकी प्राप्ति होती रहना असंभव है। जिनकी आज कीर्ति छाई हुई है कल ही उनके माथे पर ऐसा काला टीका लग सकता है कि कहीं मुँह दिखाने को भी जगह न मिले। सारे आनंदों को भोगने के मूल साधन शरीर का भी तो कुछ ठिकाना नहीं। आज ही बीमार पड़ सकते हैं, कल अपाहिज होकर इस बात के मुहताज बन सकते हैं कि कोई मुँह में ग्रास रख दे तो खालें और कंधे पर उठा कर ले जाय तो टट्टी हो आवें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 4
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
कलुषित कल्मष जलें, नाश पापों तापों का कर दे॥
🔵 होलिकोत्सव का यह त्योहार उस प्यास की एक धुँधली तस्वीर है जिसकी इच्छा आदमी को हर समय बनी रहती है। मौज! आनंद! खुशी! प्रसन्नता! हर्ष! सुख! सौभाग्य! कितने सुन्दर शब्द हैं इनका चिन्तन करते ही नसों एक बिजली सी दौड़ जाती है। आदमी युगों से आनन्द की खोज कर रहा है उसका अन्तिम लक्ष्य ही अखण्ड आनन्द है। यह राजहंस मोतियों की तलाश में जगह-जगह भटकता फिरता है। विभिन्न प्रकार के पत्तों पर पड़ी हुई ओस की बूँदें उसे मोती दीखती हैं, उन्हें लेने के लिए बड़े प्रयत्न के साथ वहाँ तक पहुँचता है, पर चोंच खोलते ही यह गिर पड़ती हैं और राजहंस अतृप्त का अतृप्त ही बना रहता है।
🔴 एक पौधे को छोड़ कर दूसरे पर दूसरे को छोड़ कर तीसरे पर और तीसरे को छोड़ कर चौथे पर जाता है पर संतोष कहीं नहीं मिलता। वह भ्रमपूर्ण स्थिति में पड़ा हुआ है। जिन्हें वह मोती समझता है असल में ओस की वे बूँदें मोती हैं नहीं। वह तो मोतियों की एक झूठी तस्वीर मात्र हैं। तस्वीरों से आदमी टकरा रहा है। दर्पण की छाया को अपनी कार्य संचालक बनाना चाहता है। इस प्रयत्न में उसने असंख्य युगों का समय लगाया है। परन्तु तृप्ति अब तक नहीं मिल पाई है। मनोवाँछा अब तक पूरी नहीं हो सकी है।
🔵 आनंद की खोज में भटकता हुआ इंसान,दरवाजे दरवाजे पर टकराता फिरता है। बहुत सा रुपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, रमणियों से भोग करें, सुस्वादु भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढ़िया मकान और सवारियाँ हों, नौकर चाकर हों, पुत्र, पुत्रियों, वधुओं से घर भरा हो, उच्च अधिकार प्राप्त हो, समाज में प्रतिष्ठा हो, कीर्ति हो, यह चीजें आदमी प्राप्त करता है। जिन्हें यह चीजें उपलब्ध नहीं होतीं वे प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। जिनके पास हैं वे उससे भी अधिक लेने का प्रयत्न करते हैं। कितनी ही मात्रा में यह चीजें मिल जाएं पर पर्याप्त नहीं समझी जातीं जिससे पूछिये यही कहेगा ‘मुझे अभी और चाहिये।’ इसका एक कारण है, स्थूल बुद्धि तो समझ भी लेती है कि काम चलाने के लिये इतना काफी है, पर सूक्ष्म बुद्धि भीतर ही भीतर सोचती है यह चीजें अस्थिर हैं किसी भी क्षण इनमें से कोई भी चीज कितनी ही मात्रा में बिना पूर्व सूचना के नष्ट हो सकती है।
🔴 इसलिये ज्यादा संचय करो ताकि नष्ट होने पर भी कुछ बचा रहे। यही नष्ट होने की आशंका अधिक संचय के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी नाशवान चीजों का नाश होता ही है। यौवन ठहर नहीं सकता, लक्ष्मी किसी की दासी नहीं है, मकान, सवारी,घोड़े ,कपड़े भी स्थायी नहीं, भोजन और मैथुन का आनन्द कुछ क्षण ही मिल सकता है। हर घड़ी उसकी प्राप्ति होती रहना असंभव है। जिनकी आज कीर्ति छाई हुई है कल ही उनके माथे पर ऐसा काला टीका लग सकता है कि कहीं मुँह दिखाने को भी जगह न मिले। सारे आनंदों को भोगने के मूल साधन शरीर का भी तो कुछ ठिकाना नहीं। आज ही बीमार पड़ सकते हैं, कल अपाहिज होकर इस बात के मुहताज बन सकते हैं कि कोई मुँह में ग्रास रख दे तो खालें और कंधे पर उठा कर ले जाय तो टट्टी हो आवें।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 4
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 अभिभावक की गलती का दंड भी उसे ही
🔴 बात बहुत दिनों की है, जब गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम में रहते थे। आश्रम के नियमानुसार विद्यार्थियों को कई-कई दिन का अस्वाद व्रत कराया जाता था। कौन, कब और कितने दिन का अस्वाद व्रत करेगा इसका निश्चय गाँधीजी ही किया करते थे।
🔵 एक दिन भोजन मे खिचडी के साथ कढी़ भी बनी। खिचडी बिना नमक की थी; जिन्हें अस्वाद व्रत करना था, उन्हें केवल खिचड़ी दी जानी थी; जिन्हें अस्वाद व्रत नहीं करना था, वे कढी भी ले सकते थे।
🔴 आश्रम में दूध-दही का प्रयोग कम होता था, इसलिए हर विद्यार्थी की यह इच्छा थी कि हमें भी कढी़ खाने को मिले, लेकिन गाँधी जी अपने निश्चय के बडे पक्के थे। उन्होंने कहा-व्रत तोड़ने से आत्मा कमजोर होती है, इसलिये जीभ के स्वाद के लिये व्रत नहीं तोड़ा जा सकता जो लोग उसका कडा़ई से पालन नहीं कर सकते उनके लिए उचित था, वे पहले से ही व्रत न लेते, पर व्रत लेकर बीच मे भंग करना तो एक तरह का पाप है।
🔵 विद्यार्थी मन मारकर रह गये। कढ़ी उन्हें ही मिली जो नमक ले सकते थे। शेष के लिए गाँधी जी ने घोषणा कर दी कि जिस दिन उनका व्रत पूरा हो जायेगा उनके लिए कढ़ी बनवा दी जायेगी। लड़के चुप पड़ गए। जिसे जो निर्धारित था भोजन कर लिया।
🔴 लेकिन गाँधी जी के पुत्र देवदास अड गये कि मुझे तो आज ही कडी़ चाहिए। गाँधी जी के पास खबर पहुँची तो उन्होंने देवदास को बुलाकर पूछा- अभी तुम्हारा अस्वाद व्रत कितने दिन चलेगा आठ दिन देवदास बोले-लेकिन मैं नौ दिन, दस दिन कर लूँगा पर आज तो मुझे कडी़ मिलनी ही चाहिए। मेरा कडी़ खाने का मन हो रहा है।
🔵 दुःखी होकर गाँधी जी बोले-बेटा दूध, दही, टमाटर, रोटी, तेल जो कुछ चाहिए ले लो नमक वाली कडी तो आज तुझे नहीं मिलेगी। तू ही आश्रम के नियमों का पालन न करेगा तो और विद्यार्थियो में वह दृढता कहाँ से आयेगी ?
🔴 गाँधी जी की सीख का भी देवदास पर कोइ प्रभाव नहीं पडा। वे वहीं खडे-खडे रोने लगे। सारे आश्रमवासी खडे कौतूहलवश देख रहे थे कि आगे क्या होता है?
🔵 देवदास का रोना देखकर गाँधी जी बडे दुःखी हुए। एक बार तो उनके मन में आया कि देवदास को दंड दिया जाए, पर तभी उनके मन में विचार आया कि कुछ दिन पहले वे स्वयं भी ऐसे ही किया करते थे। घर में अक्सर अच्छी चीजो के लिए मचल जाया करते थे, तब उन्हें ऐसा करते बालक देवदास भी देखा करता था, यह उसी का तो फल है कि आज देवदास भी वही कर रहा है।
🔴 अभिभावक जो काम लड़कों के लिए पसंद नहीं करते पहले उन्हे अपने से वह आदत दूर करनी चाहिए। अपनी भूल को न सुधारा जाए तो लडकों को आदर्शवादी नहीं बनाया जा सकता। इसमें दोष देवदास का नहीं मेरा है, फिर दंड भी देवदास को क्यों दिया जाए ?
🔵 घबराते हुए गाँधी जी ने, सबके सामने अपने गाल पर जोर-जोर से दो तमाचे मारे और कहा-देवदास यह मेरी भूल का परिणाम है, जो तू आज यों मचल रहा है, अपनी भूल की सजा तुझे कैसे दे सकता हूँ उसे तो मुझे ही भोगना चाहिए।
🔴 इस बात का देवदास पर ऐसा प्रभाव पडा कि फिर कढी़ के लिए उसने एक शब्द भी नहीं कहा और अपना अस्वाद व्रत नियमपूर्वक पूरा किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 77, 78
🔵 एक दिन भोजन मे खिचडी के साथ कढी़ भी बनी। खिचडी बिना नमक की थी; जिन्हें अस्वाद व्रत करना था, उन्हें केवल खिचड़ी दी जानी थी; जिन्हें अस्वाद व्रत नहीं करना था, वे कढी भी ले सकते थे।
🔴 आश्रम में दूध-दही का प्रयोग कम होता था, इसलिए हर विद्यार्थी की यह इच्छा थी कि हमें भी कढी़ खाने को मिले, लेकिन गाँधी जी अपने निश्चय के बडे पक्के थे। उन्होंने कहा-व्रत तोड़ने से आत्मा कमजोर होती है, इसलिये जीभ के स्वाद के लिये व्रत नहीं तोड़ा जा सकता जो लोग उसका कडा़ई से पालन नहीं कर सकते उनके लिए उचित था, वे पहले से ही व्रत न लेते, पर व्रत लेकर बीच मे भंग करना तो एक तरह का पाप है।
🔵 विद्यार्थी मन मारकर रह गये। कढ़ी उन्हें ही मिली जो नमक ले सकते थे। शेष के लिए गाँधी जी ने घोषणा कर दी कि जिस दिन उनका व्रत पूरा हो जायेगा उनके लिए कढ़ी बनवा दी जायेगी। लड़के चुप पड़ गए। जिसे जो निर्धारित था भोजन कर लिया।
🔴 लेकिन गाँधी जी के पुत्र देवदास अड गये कि मुझे तो आज ही कडी़ चाहिए। गाँधी जी के पास खबर पहुँची तो उन्होंने देवदास को बुलाकर पूछा- अभी तुम्हारा अस्वाद व्रत कितने दिन चलेगा आठ दिन देवदास बोले-लेकिन मैं नौ दिन, दस दिन कर लूँगा पर आज तो मुझे कडी़ मिलनी ही चाहिए। मेरा कडी़ खाने का मन हो रहा है।
🔵 दुःखी होकर गाँधी जी बोले-बेटा दूध, दही, टमाटर, रोटी, तेल जो कुछ चाहिए ले लो नमक वाली कडी तो आज तुझे नहीं मिलेगी। तू ही आश्रम के नियमों का पालन न करेगा तो और विद्यार्थियो में वह दृढता कहाँ से आयेगी ?
🔴 गाँधी जी की सीख का भी देवदास पर कोइ प्रभाव नहीं पडा। वे वहीं खडे-खडे रोने लगे। सारे आश्रमवासी खडे कौतूहलवश देख रहे थे कि आगे क्या होता है?
🔵 देवदास का रोना देखकर गाँधी जी बडे दुःखी हुए। एक बार तो उनके मन में आया कि देवदास को दंड दिया जाए, पर तभी उनके मन में विचार आया कि कुछ दिन पहले वे स्वयं भी ऐसे ही किया करते थे। घर में अक्सर अच्छी चीजो के लिए मचल जाया करते थे, तब उन्हें ऐसा करते बालक देवदास भी देखा करता था, यह उसी का तो फल है कि आज देवदास भी वही कर रहा है।
🔴 अभिभावक जो काम लड़कों के लिए पसंद नहीं करते पहले उन्हे अपने से वह आदत दूर करनी चाहिए। अपनी भूल को न सुधारा जाए तो लडकों को आदर्शवादी नहीं बनाया जा सकता। इसमें दोष देवदास का नहीं मेरा है, फिर दंड भी देवदास को क्यों दिया जाए ?
🔵 घबराते हुए गाँधी जी ने, सबके सामने अपने गाल पर जोर-जोर से दो तमाचे मारे और कहा-देवदास यह मेरी भूल का परिणाम है, जो तू आज यों मचल रहा है, अपनी भूल की सजा तुझे कैसे दे सकता हूँ उसे तो मुझे ही भोगना चाहिए।
🔴 इस बात का देवदास पर ऐसा प्रभाव पडा कि फिर कढी़ के लिए उसने एक शब्द भी नहीं कहा और अपना अस्वाद व्रत नियमपूर्वक पूरा किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 77, 78
👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 19)
🌹 परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान
🔴 साधारण लोगों की प्रतिभा उभारकर साहस के धनी लोगों ने बड़े-बड़े काम करा लिए थे। चन्द्रगुप्त बड़े साम्राज्य का दायित्व सँभालने के योग्य अपने को पा नहीं रहा था, पर चाणक्य ने उसमें प्राण फूँके और अपने आदेशानुसार चलने के लिए विवश कर दिया। अर्जुन भी महाभारत की बागडोर सँभालने में सकपका रहा था, पर कृष्ण ने उसे वैसा ही करने के लिए बाधित कर दिया जैसा कि वे चाहते थे।
🔵 समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता यदि उच्चस्तर की नहीं रही होती, तो शिवाजी की परिस्थितियाँ गजब का पराक्रम करा सकने के लिए उद्यत न होने देतीं। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने विवेकानन्द को एक साधारण विद्यार्थी से ऊँचा उठाकर विश्वभर में भारतीय संस्कृति का सन्देशवाहक बना दिया। दयानन्द की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानन्द के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया था। साथियों और मार्गदर्शकों की प्रतिभा, जिस किसी पर अपना आवेश हस्तान्तरित कर दे, वही कुछ से कुछ बन जाता है।
🔴 औजारों-हथियारों को ठीक तरह काम करने के लिए उनकी धार तेज रखने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उन्हें पत्थर पर रगड़कर शान पर चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। पहलवान भी चाहे जब दंगल में जाकर कुश्ती नहीं पछाड़ लेते, इसके लिए उन्हेें मुद्दतों अखाड़े में अभ्यास करना पड़ता है। प्रतिभा भी यकायक परिष्कृत स्तर की नहीं बन जाती, इसके लिए आए दिन अवाञ्छनीयताओं से जूझना और सुसंस्कारी आदर्शवादिता के अभिवर्धन का प्रयास निरन्तर जारी रखना पड़ता है। समाज सेवा के रूप में अन्यान्यों के साथ यह प्रयत्न जारी रखा जा सकता है।
🔵 समाज में ऐसे अवसर निरन्तर नहीं मिलते। निजी जीवन और परिवार-परिकर का क्षेत्र ऐसा है, जिसमें सुधार-परिष्कार के लिए कोई-न कोई कारण निरन्तर विद्यमान रहते हैं। रोज घर में बुहारी लगाने की, नहाने, कपड़े धोने की आवश्यकता पड़ती है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में कहीं न कहीं से मलीनता घुस पड़ती है, उनका निराकरण करना नित्य ही आवश्यक होता है। मन में, स्वभाव में पूर्वसञ्चित कुसंस्कारों, परिचितों के सम्पर्कों से मात्र अनौचित्य ही पल्ले बँधता है। उसका निराकरण अपने आप से जूझे बिना, समझाने से लेकर धमकाने तक का प्रयोग करने के अतिरिक्त स्वच्छता, शालीनता बनाए बिना नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त आदर्शों का परिपालन भी स्वभाव का अङ्ग बनाना पड़ता है। इसके लिए दूसरों से तो यत्किञ्चित् सहायता ही मिल पाती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 साधारण लोगों की प्रतिभा उभारकर साहस के धनी लोगों ने बड़े-बड़े काम करा लिए थे। चन्द्रगुप्त बड़े साम्राज्य का दायित्व सँभालने के योग्य अपने को पा नहीं रहा था, पर चाणक्य ने उसमें प्राण फूँके और अपने आदेशानुसार चलने के लिए विवश कर दिया। अर्जुन भी महाभारत की बागडोर सँभालने में सकपका रहा था, पर कृष्ण ने उसे वैसा ही करने के लिए बाधित कर दिया जैसा कि वे चाहते थे।
🔵 समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता यदि उच्चस्तर की नहीं रही होती, तो शिवाजी की परिस्थितियाँ गजब का पराक्रम करा सकने के लिए उद्यत न होने देतीं। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने विवेकानन्द को एक साधारण विद्यार्थी से ऊँचा उठाकर विश्वभर में भारतीय संस्कृति का सन्देशवाहक बना दिया। दयानन्द की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानन्द के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया था। साथियों और मार्गदर्शकों की प्रतिभा, जिस किसी पर अपना आवेश हस्तान्तरित कर दे, वही कुछ से कुछ बन जाता है।
🔴 औजारों-हथियारों को ठीक तरह काम करने के लिए उनकी धार तेज रखने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उन्हें पत्थर पर रगड़कर शान पर चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। पहलवान भी चाहे जब दंगल में जाकर कुश्ती नहीं पछाड़ लेते, इसके लिए उन्हेें मुद्दतों अखाड़े में अभ्यास करना पड़ता है। प्रतिभा भी यकायक परिष्कृत स्तर की नहीं बन जाती, इसके लिए आए दिन अवाञ्छनीयताओं से जूझना और सुसंस्कारी आदर्शवादिता के अभिवर्धन का प्रयास निरन्तर जारी रखना पड़ता है। समाज सेवा के रूप में अन्यान्यों के साथ यह प्रयत्न जारी रखा जा सकता है।
🔵 समाज में ऐसे अवसर निरन्तर नहीं मिलते। निजी जीवन और परिवार-परिकर का क्षेत्र ऐसा है, जिसमें सुधार-परिष्कार के लिए कोई-न कोई कारण निरन्तर विद्यमान रहते हैं। रोज घर में बुहारी लगाने की, नहाने, कपड़े धोने की आवश्यकता पड़ती है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में कहीं न कहीं से मलीनता घुस पड़ती है, उनका निराकरण करना नित्य ही आवश्यक होता है। मन में, स्वभाव में पूर्वसञ्चित कुसंस्कारों, परिचितों के सम्पर्कों से मात्र अनौचित्य ही पल्ले बँधता है। उसका निराकरण अपने आप से जूझे बिना, समझाने से लेकर धमकाने तक का प्रयोग करने के अतिरिक्त स्वच्छता, शालीनता बनाए बिना नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त आदर्शों का परिपालन भी स्वभाव का अङ्ग बनाना पड़ता है। इसके लिए दूसरों से तो यत्किञ्चित् सहायता ही मिल पाती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 बदली हुई दृष्टि ने जीवन बदल दिया
🔵 मथुरा में १९५८ में यज्ञ का कार्यक्रम था। मेरी माँ अलीगढ़ जिले के नदरोई गाँव के आसपास की बहुत सारी महिलाओं को साथ ले जाकर प्रचार-प्रसार में जुटी थीं। मैं भोपाल में शिक्षा विभाग में मिडिल स्कूल के हेडमास्टर के पद पर कार्यरत था। यद्यपि मेरे कानों में यह बात जरूर थी कि मथुरा में एक विशाल यज्ञ का आयोजन हो रहा है, पर मैं वहाँ जाने का मन नहीं बना सका। मैंने यही सोचा था कि मथुरा में बहुत से पण्डे हैं और वे खाने कमाने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। यह भी कुछ ऐसा ही उपक्रम होगा, इसलिए ध्यान नहीं दिया।
🔴 जब मैं गर्मियों की छुट्टी में गाँव आया, तो मेरी माता जी ने फटकार भरे शब्दों में मुझसे कहा-यज्ञ में इतने सारे लोग दूर-दूर से आए, तुम क्यों नहीं आ सके। जब उन्होंने यज्ञ का विवरण देना शुरू किया तो सुनकर मैं पश्चात्ताप में डूबता चला गया। उसी समय मंैने यह निर्णय कर लिया कि आचार्य जी से मिलने जरूर जाऊँगा। पहले मैं अपने गाँव से भोपाल, आगरा होकर ही जाता था। इस बार बजाय आगरा के मथुरा होकर जाने का निश्चय किया। जब मैंने प्रथम बार गायत्री तपोभूमि मथुरा में आचार्यश्री के दर्शन किये, तो मैं उनके साधारण से बाह्य व्यक्तित्व के कारण प्रभावित नहीं हुआ और उनसे मिलकर भोपाल चला गया।
🔵 लेकिन उस मुलाकात के बाद से ही मन में उथल-पुथल मची रहती थी। इसी दौरान भोपाल में कुछ ऐसे व्यक्ति टकराए, जिन्होंने मुझसे पूज्य गुरुदेव के साहित्य की चर्चाएँ कीं। उसमें से एक व्यक्ति ने दो-तीन किताबें भी भेंट कीं। बस किताबों का पढ़ना था कि ठीक वैसी स्थिति बन गई, जैसी ड्रिल के समय एबाउट टर्न का आदेश होते ही किसी जवान की होती है। मेरे जीवन की पूरी दिशा ही बदल गई। फिर क्या था? तड़पन बढ़ती गई और मथुरा के चक्कर लगते गए।
🔴 मैं गुरुदेव के पास बैठा-बैठा उन वार्त्ताओं को सुनता जो वे और लोगों के साथ करते थे। इच्छा तो होती थी कि मैं भी कुछ कहूँ पर मैं कुछ कह नहीं पाता था। उनके पास जो आता, उससे पहला प्रश्न यही करते-बता तेरी कोई समस्या तो नहीं है? और वह जैसे ही अपनी समस्या सुनाता बड़ी सरलता से कह देते-हाँ बेटा, सब ठीक हो जाएगा। तब मेरा शंकालु मन सिर उठाने लगता। ये सभी फालतू की बातें हैं। ऐसा कह देने भर से कहीं समस्याएँ हल हो जाती हैं? समय बीतने के साथ ही लोगों से ये सुनने को मिलता रहा कि उनके जीवन का भारी संकट गुरुदेव की कृपा से टल गया। एक व्यक्ति ने तो यहाँ तक बताया कि जब बड़े-बड़े डॉक्टरों के कई सालों से किए जा रहे उपचार फेल हो गए तब गुरुदेव के कहने मात्र से मेरा असाध्य रोग एक ही दिन में समाप्त हो गया। मुझे पूज्य गुरुदेव ने ही यह नया जीवन दिया है। यह सब सुनकर मेरे विश्वास ने पलटा खाया, और मंै शंकाओं की धूल झाड़कर खड़ा हो गया।
🔵 बदली हुई दृष्टि के साथ १९६२ ई. में गायत्री तपोभूमि मथुरा पहुँचा। गर्मियों के दिन थे। सुबह के आठ बजने को थे। पूज्यवर का व्याख्यान शुरू होने वाला था। श्रोताओं की संख्या बहुत नहीं थी। व्याख्यान का विषय था-अपव्यय। गुरुदेव ने कहा-अपव्यय अनेक समस्याओं की जड़ है। जब आदमी फिजूलखर्ची करता है, तो खर्च को पूरा करने के लिए रिश्वत लेता है, बेइमानी करता है, चोरी-ठगी करता है और इन सब के पीछे अनेक कुसंस्कार उसके जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। उन्होंने कहा कि अपव्यय एक ओछापन है। इससे मनुष्य का व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है। जिन्हें अपने व्यक्तित्व की जरा भी चिंता हो वे ढोंग, दिखावा और अपव्यय से बचें।
🔴 प्रवचन क्रम में उनका एक वाक्य था-लोग कमाना तो जानते हैं, पर खर्च करना नहीं जानते। परिणाम यह होता है कि वे जीवन में सुख-शांति के बजाय दुःख और दरिद्रता मोल ले लेते हैं। व्याख्यान समाप्त हो जाने के बाद भी पूज्य गुरुदेव का यह वाक्य मेरे दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट करता रहा।
🔵 दोपहर को गुरुदेव से व्यक्तिगत भेंट करने चला। रास्ते में फिजूलखर्ची की अपनी हद से ज्यादा बिगड़ी हुई आदत पर ग्लानि से गड़ा जा रहा था। मालदार बाप का बेटा होने के कारण मैं बचपन से ही खर्चीले स्वभाव का था, ऊपर से फैशन-परस्ती का नशा। सुबह एक ड्रेस पहनता था, तो शाम को दूसरी। चार-छह टाइयों से कम में काम नहीं चलता था। शाही जीवन शैली थी। लेकिन अब मुझे लग रहा था कि पिताजी के पैसे पानी की तरह बहाकर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है। झुका हुआ सिर लेकर मैं गुरुदेव के पास पहुँचा। उन्हें प्रणाम किया और बिना कुछ बोले मन ही मन यह संकल्प कर लिया-‘‘अब तक खाई सो खाई। अब की राम दुहाई’’ अब जीवन में कभी अपव्यय नहीं करूँगा।
🔴 नीचे उतरते ही एक किताब पढ़ने को मिल गई ‘अपव्यय का ओछापन’। गुरुदेव के प्रवचन ने तो पहले से ही दिमाग में हलचल मचा रखी थी, पुस्तक पढ़ने के बाद मैंने अपव्यय पर अंकुश लगाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने का निश्चय किया। इस संदर्भ में पत्नी से बात की। मेरी पत्नी भी मेरे विचार से सहमत हुईं और हम मुट्ठी भर साधन में बड़ी प्रसन्नता और संतोष के साथ जीवनयापन करने लगे।
🔵 अगर आत्मश्लाघा न कहें तो मैं यह बताता हूँ कि न कोई सिनेमा न कोई होटलबाजी और न कहीं दिखावा। सब छोड़ दिया। धीरे-धीरे हमने अपने जीवन की आवश्यकताएँ इतनी सीमित कर ली थीं, उसे सामान्य दृष्टि से अविश्वसनीय ठहराया जा सकता है। लेकिन इससे हमें जो लाभ हुआ, उसका लेखा-जोखा करना कठिन है। बच्चों के शादी-ब्याह, व्यापार, धन्धा, भोपाल में आलीशान घर ये सब बिना किसी से कोई कर्ज लिए ही बन गया। यह सब अपव्यय न करने का ही परिणाम है। यदि गुरुदेव की वह धारदार प्रेरणा न रही होती, तो सांसारिक दृष्टि से इस सफलता की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
🌹 डॉ. आर.पी. कर्मयोगी देवसंस्कृति विश्वशिद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/badali.2
🔴 जब मैं गर्मियों की छुट्टी में गाँव आया, तो मेरी माता जी ने फटकार भरे शब्दों में मुझसे कहा-यज्ञ में इतने सारे लोग दूर-दूर से आए, तुम क्यों नहीं आ सके। जब उन्होंने यज्ञ का विवरण देना शुरू किया तो सुनकर मैं पश्चात्ताप में डूबता चला गया। उसी समय मंैने यह निर्णय कर लिया कि आचार्य जी से मिलने जरूर जाऊँगा। पहले मैं अपने गाँव से भोपाल, आगरा होकर ही जाता था। इस बार बजाय आगरा के मथुरा होकर जाने का निश्चय किया। जब मैंने प्रथम बार गायत्री तपोभूमि मथुरा में आचार्यश्री के दर्शन किये, तो मैं उनके साधारण से बाह्य व्यक्तित्व के कारण प्रभावित नहीं हुआ और उनसे मिलकर भोपाल चला गया।
🔵 लेकिन उस मुलाकात के बाद से ही मन में उथल-पुथल मची रहती थी। इसी दौरान भोपाल में कुछ ऐसे व्यक्ति टकराए, जिन्होंने मुझसे पूज्य गुरुदेव के साहित्य की चर्चाएँ कीं। उसमें से एक व्यक्ति ने दो-तीन किताबें भी भेंट कीं। बस किताबों का पढ़ना था कि ठीक वैसी स्थिति बन गई, जैसी ड्रिल के समय एबाउट टर्न का आदेश होते ही किसी जवान की होती है। मेरे जीवन की पूरी दिशा ही बदल गई। फिर क्या था? तड़पन बढ़ती गई और मथुरा के चक्कर लगते गए।
🔴 मैं गुरुदेव के पास बैठा-बैठा उन वार्त्ताओं को सुनता जो वे और लोगों के साथ करते थे। इच्छा तो होती थी कि मैं भी कुछ कहूँ पर मैं कुछ कह नहीं पाता था। उनके पास जो आता, उससे पहला प्रश्न यही करते-बता तेरी कोई समस्या तो नहीं है? और वह जैसे ही अपनी समस्या सुनाता बड़ी सरलता से कह देते-हाँ बेटा, सब ठीक हो जाएगा। तब मेरा शंकालु मन सिर उठाने लगता। ये सभी फालतू की बातें हैं। ऐसा कह देने भर से कहीं समस्याएँ हल हो जाती हैं? समय बीतने के साथ ही लोगों से ये सुनने को मिलता रहा कि उनके जीवन का भारी संकट गुरुदेव की कृपा से टल गया। एक व्यक्ति ने तो यहाँ तक बताया कि जब बड़े-बड़े डॉक्टरों के कई सालों से किए जा रहे उपचार फेल हो गए तब गुरुदेव के कहने मात्र से मेरा असाध्य रोग एक ही दिन में समाप्त हो गया। मुझे पूज्य गुरुदेव ने ही यह नया जीवन दिया है। यह सब सुनकर मेरे विश्वास ने पलटा खाया, और मंै शंकाओं की धूल झाड़कर खड़ा हो गया।
🔵 बदली हुई दृष्टि के साथ १९६२ ई. में गायत्री तपोभूमि मथुरा पहुँचा। गर्मियों के दिन थे। सुबह के आठ बजने को थे। पूज्यवर का व्याख्यान शुरू होने वाला था। श्रोताओं की संख्या बहुत नहीं थी। व्याख्यान का विषय था-अपव्यय। गुरुदेव ने कहा-अपव्यय अनेक समस्याओं की जड़ है। जब आदमी फिजूलखर्ची करता है, तो खर्च को पूरा करने के लिए रिश्वत लेता है, बेइमानी करता है, चोरी-ठगी करता है और इन सब के पीछे अनेक कुसंस्कार उसके जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। उन्होंने कहा कि अपव्यय एक ओछापन है। इससे मनुष्य का व्यक्तित्व धूमिल हो जाता है। जिन्हें अपने व्यक्तित्व की जरा भी चिंता हो वे ढोंग, दिखावा और अपव्यय से बचें।
🔴 प्रवचन क्रम में उनका एक वाक्य था-लोग कमाना तो जानते हैं, पर खर्च करना नहीं जानते। परिणाम यह होता है कि वे जीवन में सुख-शांति के बजाय दुःख और दरिद्रता मोल ले लेते हैं। व्याख्यान समाप्त हो जाने के बाद भी पूज्य गुरुदेव का यह वाक्य मेरे दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट करता रहा।
🔵 दोपहर को गुरुदेव से व्यक्तिगत भेंट करने चला। रास्ते में फिजूलखर्ची की अपनी हद से ज्यादा बिगड़ी हुई आदत पर ग्लानि से गड़ा जा रहा था। मालदार बाप का बेटा होने के कारण मैं बचपन से ही खर्चीले स्वभाव का था, ऊपर से फैशन-परस्ती का नशा। सुबह एक ड्रेस पहनता था, तो शाम को दूसरी। चार-छह टाइयों से कम में काम नहीं चलता था। शाही जीवन शैली थी। लेकिन अब मुझे लग रहा था कि पिताजी के पैसे पानी की तरह बहाकर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है। झुका हुआ सिर लेकर मैं गुरुदेव के पास पहुँचा। उन्हें प्रणाम किया और बिना कुछ बोले मन ही मन यह संकल्प कर लिया-‘‘अब तक खाई सो खाई। अब की राम दुहाई’’ अब जीवन में कभी अपव्यय नहीं करूँगा।
🔴 नीचे उतरते ही एक किताब पढ़ने को मिल गई ‘अपव्यय का ओछापन’। गुरुदेव के प्रवचन ने तो पहले से ही दिमाग में हलचल मचा रखी थी, पुस्तक पढ़ने के बाद मैंने अपव्यय पर अंकुश लगाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ने का निश्चय किया। इस संदर्भ में पत्नी से बात की। मेरी पत्नी भी मेरे विचार से सहमत हुईं और हम मुट्ठी भर साधन में बड़ी प्रसन्नता और संतोष के साथ जीवनयापन करने लगे।
🔵 अगर आत्मश्लाघा न कहें तो मैं यह बताता हूँ कि न कोई सिनेमा न कोई होटलबाजी और न कहीं दिखावा। सब छोड़ दिया। धीरे-धीरे हमने अपने जीवन की आवश्यकताएँ इतनी सीमित कर ली थीं, उसे सामान्य दृष्टि से अविश्वसनीय ठहराया जा सकता है। लेकिन इससे हमें जो लाभ हुआ, उसका लेखा-जोखा करना कठिन है। बच्चों के शादी-ब्याह, व्यापार, धन्धा, भोपाल में आलीशान घर ये सब बिना किसी से कोई कर्ज लिए ही बन गया। यह सब अपव्यय न करने का ही परिणाम है। यदि गुरुदेव की वह धारदार प्रेरणा न रही होती, तो सांसारिक दृष्टि से इस सफलता की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
🌹 डॉ. आर.पी. कर्मयोगी देवसंस्कृति विश्वशिद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/badali.2
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