शनिवार, 1 अगस्त 2020

👉 भोगे बिना छुटकारा नहीं

वह दोनों सगे भाई थे। गुरु और माता पिता के द्वारा शिक्षा पाई थी, पूजनीय आचार्यों से प्रोत्साहन पाया था, मित्रों द्वारा सलाह पाई थी। उन्होंने वर्षों के अध्ययन, चिन्तन और अन्वेषण के पश्चात जाना था कि दुनिया में सबसे बड़ा काम जो मनुष्य के करने का है वह यह है कि अपनी आत्मा का उद्धार करे। मूर्ख इसे नहीं जानते। वे पत्ते-पत्ते को सींचते फिरते हैं फिर भी पेड़ मुरझाता ही चला जाता है। संसार की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक शारीरिक सभी प्रकार की समस्यायें इसी एक बात पर निर्भर हैं कि आदमी ईमानदार बने, सदाचारी हो, आत्म कल्याण करे।

वे दोनों भाई शंख और लिखित इस तत्व को भली प्रकार जान लेने के बाद तपस्या करने लगे। पास पास ही दोनों के कुटीर थे। मधुर फलों के वृक्षों से वह स्थान और भी सुन्दर एवं सुविधाजनक बन गए। ये दोनों भाई अपनी-अपनी तपोभूमि में तप करते और यथा अवसर आपस में मिलते-जुलते थी।

एक दिन लिखित भूखे थे। वे भाई के आश्रम में गये और वहाँ से कुछ फल तोड़ लाये। उन्हें खा रहे थे कि शंख भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पूछा यह फल तुम कहाँ से लाये ? लिखित ने उन्हें हंसकर उत्तर दिया-तुम्हारे आश्रम से।

शंख यह सुनकर बड़े दुखी हुए। फल स्वयं कोई बहुत मूल्यवान वस्तु न थे। दोनों भाई आपस में फल लेते देते भी रहते थे किन्तु चोरी से बिना पूछे नहीं उन्होंने कहा-भाई ! यह तुमने बुरा किया। किसी की वस्तु बिना पूछे लेने से तुम्हें चोरी का पाप लग गया। लिखित को अब पता चला कि वास्तव में उन्होंने पाप किया है और पाप के फल का बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता।

दोनों भाई इस समस्या में उलझ गये कि अब क्या करना चाहिए। पाप का फल तुरंत ही मिल जाय तो ठीक अन्यथा प्रारब्ध में जाकर वह बढ़ता ही रहता है। और आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। निश्चय हुआ कि इस पाप का फल शीघ्र ही भोग लिया जाय। चूँकि दंड देने का अधिकार राजा को होता है इसलिए लिखित अपने कार्य का दंड पाने के लिए राजा सुद्युम्न के पास पहुँचे।

इस तेज मूर्ति तपस्वी को देखकर राजा सिंहासन से उठ खड़े हुए और बड़े आदर के साथ उन्हें उच्च सिंहासन पर बिठाया। तदुपरान्त राजा ने हाथ जोड़कर तपस्वी से पूछा-महाराज कहिये मेरे योग्य क्या आज्ञा है ? लिखित ने कहा-राजन्! मैंने अपने भाई के पेड़ से चोरी करके फल खाये हैं सो मुझे दंड दीजिए इसीलिए आपके पास आया हूँ।
राजा बड़े असमंजस में पड़ा। इस छोटे से अपराध पर इतने बड़े तपस्वी को वह क्या दंड दे। और वह भी ऐसे समय जबकि वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार करते हुए दंड पाने के लिए आया है। राजा कुछ भी उत्तर न दे सका।

तपस्वी ने उसके मन की बात जान ली। और उन्होंने न्यायाधिपति से स्वयं ही पूछा कि बताइये शास्त्र के अनुसार चोरों को क्या दंड दिया जाता है? न्यायाधीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे शास्त्र का चोर प्रकरण निकाल लाये। उसमें विधान था कि चोर के हाथ काट लिये जायें।

‘यही दंड मुझे मिलना चाहिए।’ तपस्वी ने कहा - न्याय दंड किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। व्यक्तियों का ख्याल किये बिना निष्पक्ष भाव से जो व्यवहार किया जाता है वही सच्चा न्याय है। राजन् तुमने मुझसे आते समय यह पूछा था मेरे योग्य क्या आज्ञा है? मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि शीघ्र ही मेरे दोनों हाथ कटवा डालो।’ राजा विवश था, उसे तपस्वी की आज्ञा पालन करनी पड़ी।

अपने अपराध का दंड पाकर तपस्वी लिखित प्रसन्नतापूर्वक आश्रम को लौट आये। अपने भाई की कर्त्तव्य परायणता और कष्ट सहनशीलता को देखकर शंख का गला भर आया और वे उनके गले से लिपट गये। शंख ने कहा-अपराधी हाथों को लेकर जीने की अपेक्षा बिना हाथों के जीना अधिक श्रेष्ठ है। लिखित ! पाप का फल पाकर अब तुम विशुद्ध हो गये।

शंख की आज्ञानुसार लिखित ने पास की नदी में जाकर स्नान किया। स्नान करते ही उनके दोनों हाथ फिर वैसे ही उग आये। वे दौड़े हुए भाई के पास गए और उन नये हाथों को आश्चर्य पूर्वक दिखाया।

शंख ने कहा-भैया, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम लोगों की तपस्या के कारण ही यह क्षतिपूर्ति हुई है। तब लिखित ने और अधिक अचंभित होकर पूछा-यदि हम लोगों की इतनी तपस्या है तो क्या उसके बल से उस छोटे से पाप को दूर नहीं किया जा सकता था?

शंख ने कहा- ‘न’ पाप का परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसे बिना भोगे छुटकारा नहीं मिल सकता।
(महाभारत)

👉 चाहिए साहसी, जिम्मेदार:-

युग निर्माण योजना, शतसूत्री कार्यक्रमों में बँटी हुई है। वे यथास्थान, यथास्थिति, यथासंभव कार्यान्वित भी किए जा रहे हैं, पर एक कार्यक्रम अनिवार्य है और वह यह कि इस विचारधारा को जन-मानस में अधिकाधिक गहराई तक प्रविष्ट कराने, उसे अधिकाधिक व्यापक बनाने का कार्यक्रम पूरी तत्परता के साथ जारी रखा जाए। हम थोड़े व्यक्ति युग को बदल डालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। धीरे-धीरे समस्त मानव समाज को सद्भावना सम्पन्न एवं सन्मार्ग मार्गी बनाना होगा और यह तभी संभव है जब यह विचारधारा गइराई तक जन-मानस में प्रविष्ट कराई जा सके। इसलिए अपने आस-पास के क्षेत्र में इस प्रकाश को व्यापक बनाए रखने का कार्य तो परिवार के प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को करते ही रहना होगा।
  
अन्य कोई कार्यक्रम कहीं चले या न चले, पर यह कार्य तो अनिवार्य है कि इस विचारधारा से अधिकाधिक लोगों को प्रभावित करने के लिए निरंतर समय, श्रम, तन एवं मन लगाया जाता रहे। जो ऐसा कर सकते हैं, जिनमें ऐसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई है, उन्हें हम अपना उत्तराधिकारी कह सकते हैं। धन नहीं, लक्ष्य हमारे हाथ में है, उसे पूरा करने का उत्तरदायित्व भी हमारे उत्तराधिकार में किसी को मिल सकता है। उसे लेने वाले भी कोई बिरले ही होंगे। इसलिए उनकी खोज तलाश आरंभ करनी पड़ रही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, दिसम्बर १९६४, पृष्ठ ४९, ५०

👉 Freedom of Karma

Among all the life-forms, only human form is the one in which the being is given freedom of actions (karma). The marvelous faculties of conscious and unconscious mind, intellect, and the sense of self-identity are gifted to a human mainly so that he could make best use of these in his actions – intellect is given for reasoning; mind for thinking and pondering over the reasoned thoughts and testing every action whether it is good or bad, weather it is worth one’s dignity as a human. If one does not make sane use of this unique privilege, he shall not only be the loser but also a culprit of defying the preeminent duty assigned by the Supreme Creator.

Freedom of karma is a birth right of every human being. But, no one has the freedom to escape the karmas. The system of Nature is such that every creature has to do its essential karmas for survival. Nature does not allow any other creature to do anything against its nature. Humans, because of the liberty of karmas, can attempt diversified actions. But not doing any karma is impossible for everyone. Nature will automatically pull one towards some karma as per one’s intrinsic tendencies. This is what Lord Krishna reminds Arjuna in the holy Gita.

The Omnipresent Consciousness of God is present in every soul. Those who escape from their karmas and those who try going against the Law of Karma are further entrapped in the illusion of HIS maya.

📖  Akhand Jyoti, Oct. 1946

👉 स्वप्न सत्य

• “एक किसान को बुढ़ापे में एक लड़का हुआ था। लड़के को वह बहुत यत्न से पालता था। धीरे धीरे लड़का बडा़ हुआ। एक दिन जब किसान खेत में काम कर रहा था, किसी ने आकर उसे खबर दी कि तुम्हारा लड़का बहुत बीमार है अब तब हो रहा है। उसने घर में आकर देखा, लड़का मर गया है। स्त्री खूब रो रही है; पर किसान की आँखों में आँसू तक नहीं। उसकी स्त्री अपनी पडो़सिनों के पास इसलिए और भी शोक करने लगी कि ऐसा लड़का चला गया, पर इनकी आँखों में आँसू का नाम नहीं! बडी़ देर बाद किसान ने अपनी स्त्री को पुकारकर कहा, 'मैं क्यों नहीं रोता, जानती हो? मैंने कल स्वप्न में देखा कि राजा हो गया हूँ और सात लड़कों का बाप बना हूँ। स्वप्न में ही देखा कि वे लड़के रूप और गुण में अच्छे हैं। क्रमशः वे बडे़ हुए और विद्या तथा धर्म उपार्जन करने लगे। इतने में ही नींद खुल गयी। अब सोच रहा हूँ कि तुम्हारे इस एक लड़के के लिए रोऊँ या अपने उन सात लड़कों के लिए?' ज्ञानियों के मत से स्वप्न की अवस्था जैसी सत्य है, जाग्रत अवस्था भी वैसी ही सत्य है। “ईश्वर ही कर्ता हैं, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है।"

📖 रामकृष्ण वचनामृत से

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