शनिवार, 20 जुलाई 2019
👉 यह भी नहीं रहने वाला 🙏🌹
एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका। आनंद ने साधू की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।
साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।" साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।" साधू आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।
दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है। साधू आनंद से मिलने गया।
आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे। साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे है? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान् इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।"
साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू हूँ। सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।" कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।
साधू ने आनंद से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया। भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।" यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"
साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।
साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।
साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ। लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"
साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"
साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा।
साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।" साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला ।" साधू आनंद की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।
दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है। साधू आनंद से मिलने गया।
आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे। साधू कहने लगा - "हे भगवान् ! ये तूने क्या किया?"
आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे है? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान् इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।"
साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू हूँ। सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।" कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।
साधू ने आनंद से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया। भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।" यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"
साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला?"
आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"
आनंद की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।
साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।
साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ। लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"
साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"
साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा।
👉 अन्त का परिष्कार, प्रखर उपासना से ही संभव (अन्तिम भाग)
उत्थान से पतन और पतन से उत्थान के अचानक परिवर्तनों के अगणित प्रमाण, उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर विद्यमान हैं। आरंभिक परिस्थितियों से अन्तिम उपलब्धि तक क्रमिक गति से चलते हुए आकाश- पाताल जितना अन्तर उत्पन्न करने वाली घटनाएँ तो अपनी आँखों के सामने ही असंख्यों देखी जा सकती हैं। इसका मूल कारण एक ही है अंतःक्षेत्र की प्रबल आस्था और प्रचण्ड आकांक्षा। इतना भर सार तत्त्व जहाँ भी होगा, वहाँ विपरीत परिस्थितियाँ काई की तरह फटती चली जायेंगी और टिड्डी दल की तरह परामर्शों सहयोगों और अनुकूलताओं का समूह एकत्रित होता चला जायेगा। पतित, सामान्य और महान जीवनों के अन्तरों में परिस्थिति नहीं मनःस्थिति ही आधारभूत कारण रही है।
अन्तःकरण के कठोर क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का तत्व दर्शन और साधना उपचार ही प्रभावी सिद्ध होता है। योग साधना और तपश्चर्या का समूचा कलेवर इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुआ है। कठोर चट्टानें हीरे की नोंक वाले बरमे के अतिरिक्त और किसी औजार से छेदी नहीं जाती। अन्तःकरण में जमी अवांछनीयता को निरस्त करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना के लिए अध्यात्म विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ेगा। उसी विद्या में पारंगत इंजीनियर अध्यात्मवेत्ता इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान कर सकेगा। विकृत विपन्नताओं के स्थान पर परिष्कृत परिस्थितियों की स्थापना यदि सचमुच हो तो उसका हल अध्यात्म विद्या का अवलम्बन लिये बिना और किसी प्रकार निकलेगा नहीं। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही दिशा निर्धारण और सार्थक श्रम करने में सुविधा रहेगी।
व्यक्ति निर्माण के लिए भौतिक उपायों की सार्थकता तब है जब अन्तःकरण के स्तर में परिवर्तन हो- दृष्टिकोण सुधरे। यह कार्य प्रशिक्षण मात्र से नहीं हो सकेगा। आस्थाओं का स्पर्श आस्थाएँ करती है। भावनाओं को भावनाओं से छुआ जाता है। काँटा काँटे से निकलता है और विष, विष से ही मारा जाता है। आस्था अन्तःकरण की अत्यन्त गहरी परतों में अपनी जड़ जमाये बैठी रहती है। उन तक पहुँचना और सुधार परिवर्तन करना सामान्य प्रयासों से सम्भव नहीं, उसके लिए उच्च स्तर के प्रयत्न करने पड़ते है। इनमें उपासनात्मक उपचारों के अतिरिक्त अन्य प्रयत्न अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं करते।
उपासना की प्रक्रिया को अन्तःकरण की वरिष्ठ चिकित्सा समझा जाना चाहिए। कुसंस्कारों की, कषाय कल्मषों की महाव्याधि से छुटकारा पाने के लिए मात्र यही रामबाण औषधि है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग 32)
यही है आज के युग का सच। ऐसे आडम्बर से भरे एवं घिरे आध्यात्मिक चिकित्सकों की इस समय बाढ़ आयी हुई है। टी.वी. में प्रचार, अखबारों में विज्ञापन, लच्छेदार प्रवचन, बात- बात में अपनी प्रशंसा, ऐसे लोग और कुछ भले हों, आध्यात्मिक चिकित्सक कभी नहीं हो सकते। क्योंकि इसके लिए बौद्धिक चतुराई या चालाकी नहीं कठिन तप साधनाएँ चाहिए। वेष नहीं आचरण चाहिए। लुभावनी वाणी की बजाय उदार हृदय चाहिए। दिखावे और आडम्बर से यहाँ कोई काम चलने वाला नहीं है। ऐसे लोग भोले- भाले पीड़ित जनों को ठगकर खुद माला- माल तो हो सकते हैं, पर उनका कोई भी हित साधन नहीं कर सकते। इस तरह के धूर्तों के चंगुल में फंसने वाले स्वास्थ्य लाभ करने के स्थान पर दुःख, दारिद्रय, विपन्नता व विषाद ही हासिल करते हैं।
आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो कठोर तपकर्म ही उनके जीवन की परिभाषा होता है। शरीर, मन और वचन से ये कभी भी तप साधना से नहीं डिगते। इनका जीवन अपने आप में उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगशाला होता है। जिसमें कठिन आध्यात्मिक प्रयोगों की शृंखला हमेशा चलती रहती है। इनके रोम- रोम में आध्यात्मिक ऊर्जा की सरिताएँ उफनती है। इनका व्यक्तित्व आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुञ्ज होता है। जिनके अन्दर ऐसी योग्यता होती है, वही आध्यात्मिक चिकित्सक होने के लिए सुपात्र- सत्पात्र होते हैं।
आध्यात्म विद्या- अस्तित्व के समग्र बोध का विज्ञान है। जो इसमें निष्णात हैं, उनकी दृष्टि पारदर्शी होती है।
वे व्यक्तित्व की सूक्ष्मताओं, गहनताओं व गुह्यताओं को समझने में सक्षम होते हैं। उनके लिए किसी के अन्तर में प्रविष्ट होना उसकी समस्याओं को जान लेना बेहद आसान होता है। वे औरों को उसी तरह से देखने में समर्थ होते हैं- जैसे हम सब किसी शीशे की अलमारी में बन्द सामान को देखते हैं। यह सामान क्या है? किस तरह से रखा है? पारदर्शी शीशे से साफ- साफ नजर आता है। कुछ इसी तरह से आध्यात्मिक चिकित्सक को अपने रोगी के रहस्य नजर आते हैं। उसके लिए जितना प्रत्यक्ष व्यवहार होता है, उतने ही प्रत्यक्ष संस्कार होते हैं। वह जितनी आसानी से वर्तमान जीवन को जान सकता है, उतनी आसानी से पूर्वजन्मों को भी निहार सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 47
आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो कठोर तपकर्म ही उनके जीवन की परिभाषा होता है। शरीर, मन और वचन से ये कभी भी तप साधना से नहीं डिगते। इनका जीवन अपने आप में उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगशाला होता है। जिसमें कठिन आध्यात्मिक प्रयोगों की शृंखला हमेशा चलती रहती है। इनके रोम- रोम में आध्यात्मिक ऊर्जा की सरिताएँ उफनती है। इनका व्यक्तित्व आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुञ्ज होता है। जिनके अन्दर ऐसी योग्यता होती है, वही आध्यात्मिक चिकित्सक होने के लिए सुपात्र- सत्पात्र होते हैं।
आध्यात्म विद्या- अस्तित्व के समग्र बोध का विज्ञान है। जो इसमें निष्णात हैं, उनकी दृष्टि पारदर्शी होती है।
वे व्यक्तित्व की सूक्ष्मताओं, गहनताओं व गुह्यताओं को समझने में सक्षम होते हैं। उनके लिए किसी के अन्तर में प्रविष्ट होना उसकी समस्याओं को जान लेना बेहद आसान होता है। वे औरों को उसी तरह से देखने में समर्थ होते हैं- जैसे हम सब किसी शीशे की अलमारी में बन्द सामान को देखते हैं। यह सामान क्या है? किस तरह से रखा है? पारदर्शी शीशे से साफ- साफ नजर आता है। कुछ इसी तरह से आध्यात्मिक चिकित्सक को अपने रोगी के रहस्य नजर आते हैं। उसके लिए जितना प्रत्यक्ष व्यवहार होता है, उतने ही प्रत्यक्ष संस्कार होते हैं। वह जितनी आसानी से वर्तमान जीवन को जान सकता है, उतनी आसानी से पूर्वजन्मों को भी निहार सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 47
👉 Swami Vivekananda
One day, Swami Vivekananda was returning from temple of Ma Kali. On the path, Swamiji saw a number of monkeys who were not allowing him to pass through it. Whenever Swamiji would take a step forward, those monkeys would make a lot of noise and make angry face, showing their anger by shrieking near his feet.
As Swami Vivekananda took a step forward, monkeys got close to him. Swamiji began to run and the monkeys started chasing him. Faster Swamiji ran, bolder monkey got and tried to catch him and bite him.
Just then an old Sanyasi shouted from a distance, "Face them…"
Those words brought Swamiji to senses and he stopped running. He turned back to boldly face them. As soon as Swamiji did that, the monkeys ran away and left.
Moral: We should not run away from challenges; instead we should face them boldly.
As Swami Vivekananda took a step forward, monkeys got close to him. Swamiji began to run and the monkeys started chasing him. Faster Swamiji ran, bolder monkey got and tried to catch him and bite him.
Just then an old Sanyasi shouted from a distance, "Face them…"
Those words brought Swamiji to senses and he stopped running. He turned back to boldly face them. As soon as Swamiji did that, the monkeys ran away and left.
Moral: We should not run away from challenges; instead we should face them boldly.
👉 परिवार निर्माणः-
(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान मे सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे सांचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढांचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।
(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।
(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।
(४) पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं, जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें।
(५) उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन मे यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण- पोषण, शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ है। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सहायता के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते ही आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बियों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों की छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते।
(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चे को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।
(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।
(४) पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं, जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें।
(५) उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन मे यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण- पोषण, शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ है। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सहायता के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते ही आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बियों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों की छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते।
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