👉 नैतिकता की नीति, स्वास्थ्य की उत्तम डगर
नैतिकता की नीति पर चलते हुए स्वास्थ्य के अनूठे वरदान पाए जा सकते हैं। इसकी अवहेलना जिन्दगी में सदैव रोग- शोक, पीड़ा- पतन के अनेकों उपद्रव खड़े करती है। अनैतिक आचरण से बेतहाशा प्राण ऊर्जा की बर्बादी होती है। साथ ही वैचारिक एवं भावनात्मक स्तर पर अनगिनत ग्रन्थियाँ जन्म लेती हैं। इसके चलते शारीरिक स्वास्थ्य के साथ चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार का सारा ताना- बाना गड़बड़ा जाता है। आधुनिकता, स्वच्छन्दता एवं उन्मुक्तता के नाम पर इन दिनों नैतिक वर्जनाओं व मर्यादाओं पर ढेरों सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। इसे पुरातन ढोंग कहकर अस्वीकारा जा रहा है। नयी पीढ़ी इसे रूढ़िवाद कहकर दरकिनार करती चली जा रही है। ऐसा होने और किए जाने के दूषित दुष्परिणाम आज किसी से छुपे नहीं हैं।
हालाँकि नयी पीढ़ी के सवाल नैतिकता क्यों? की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देते हुए उन्हें इसके वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रभावों का बोध कराया जाना चाहिए। प्रश्र कभी भी गलत नहीं होते, गलत होती है प्रश्रों की अवहेलना व उपेक्षा। इनके उत्तर न ढूँढ पाने के किसी भी कारण को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे प्रत्येक युग अपने सवालों के हल मांगता है। नयी पीढ़ी अपने नए प्रश्रों के ताजगी भरे समाधान चाहती है। नैतिकता क्यों? यह युग प्रश्र है। इस प्रश्र के माध्यम से नयी पीढ़ी ने नए समाधान की मांग की है। इसे परम्परा की दुहाई देकर टाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से नैतिकता की नीति उपेक्षित होगी। और इससे होने वाली हानियाँ बढ़ती जाएँगी।
नैतिकता की नीति पर चलते हुए स्वास्थ्य के अनूठे वरदान पाए जा सकते हैं। इसकी अवहेलना जिन्दगी में सदैव रोग- शोक, पीड़ा- पतन के अनेकों उपद्रव खड़े करती है। अनैतिक आचरण से बेतहाशा प्राण ऊर्जा की बर्बादी होती है। साथ ही वैचारिक एवं भावनात्मक स्तर पर अनगिनत ग्रन्थियाँ जन्म लेती हैं। इसके चलते शारीरिक स्वास्थ्य के साथ चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार का सारा ताना- बाना गड़बड़ा जाता है। आधुनिकता, स्वच्छन्दता एवं उन्मुक्तता के नाम पर इन दिनों नैतिक वर्जनाओं व मर्यादाओं पर ढेरों सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। इसे पुरातन ढोंग कहकर अस्वीकारा जा रहा है। नयी पीढ़ी इसे रूढ़िवाद कहकर दरकिनार करती चली जा रही है। ऐसा होने और किए जाने के दूषित दुष्परिणाम आज किसी से छुपे नहीं हैं।
हालाँकि नयी पीढ़ी के सवाल नैतिकता क्यों? की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देते हुए उन्हें इसके वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रभावों का बोध कराया जाना चाहिए। प्रश्र कभी भी गलत नहीं होते, गलत होती है प्रश्रों की अवहेलना व उपेक्षा। इनके उत्तर न ढूँढ पाने के किसी भी कारण को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे प्रत्येक युग अपने सवालों के हल मांगता है। नयी पीढ़ी अपने नए प्रश्रों के ताजगी भरे समाधान चाहती है। नैतिकता क्यों? यह युग प्रश्र है। इस प्रश्र के माध्यम से नयी पीढ़ी ने नए समाधान की मांग की है। इसे परम्परा की दुहाई देकर टाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से नैतिकता की नीति उपेक्षित होगी। और इससे होने वाली हानियाँ बढ़ती जाएँगी।
नैतिकता क्यों? इस प्रश्र का सही उत्तर है- ऊर्जा के संरक्षण एवं ऊर्ध्वगमन हेतु। इस प्रक्रिया में शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के सभी रहस्य समाए हैं। अनैतिक आचरण से प्राण ऊर्जा के अपव्यय की बात सर्वविदित है। हो भी क्यों नहीं- अनैतिकता से एक ही बात ध्वनित होती है- इन्द्रिय विषयों का अमर्यादित भोग। स्वार्थलिप्सा, अहंता एवं तृष्णा की अबाधित तुष्टि। फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। प्राण की सम्पदा जब तक है- तब तक यह सारा खेल चलता रहता है। लेकिन इसके चुकते ही जीवन ज्योति बुझने के आसार नजर आने लगते हैं।
इतना ही नहीं, ऐसा करने से जो वर्जनाएँ टूटती हैं, मर्यादाएँ ध्वस्त होती हैं, उससे अपराध बोध की ग्रन्थि पनपे बिना नहीं रहती। वैचारिक एवं भावनात्मक तल पर पनपी हुई ग्रन्थियों से अन्तर्चेतना में अनगिन दरारें पड़ जाती हैं। समूचा व्यक्तित्व विशृंखलित- विखण्डित होने लगता है। दूसरों को इसका पता तब चलता है, जब बाहरी व्यवहार असामान्य हो जाता है। यह सब होता है अनैतिक आचारण की वजह से। अभी हाल में पश्चिमी दुनिया के एक विख्यात मनोवैज्ञानिक रूडोल्फ विल्किन्सन ने इस सम्बन्ध में एक शोध प्रयोग किया है। उन्होंने अपने निष्कर्षों को ‘साइकोलॉजिकल डिसऑडर्स ः कॉज़ एण्ड इफेक्ट’ नाम से प्रकाशित किया है। इस निष्कर्ष में उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा है कि नैतिकता की नीति पर आस्था रखने वाले लोग प्रायः मनोरोगों के शिकार नहीं होते। इसके विपरीत अनैतिक जीवन यापन करने वालों को प्रायः अनेक तरह के मनोरोगों के शिकार होते देखा गया है।
समाज मनोविज्ञानी एरिक फ्रॉम ने अपने ग्रन्थ ‘मैन फॉर- हिमसेल्फ’ में भी यही सच्चाई बयान की है। उनका कहना है कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों एवं भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। योगिवर भतृहरि ने वैराग्य शतक में इसकी चर्चा में कहा है- ‘भोगे रोग भयं’ यानि कि भोगों में रोग का भय है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि भोग होंगे तो रोग पनपेंगे ही। नैतिक वर्जनाओं की अवहेलना करने वाला निरंकुश भोगवादी रोगों की चपेट में आए बिना नहीं रहता। इनकी चिकित्सा नैतिकता की नीति के सिवा और कुछ भी नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति