🔶 आपको निम्न आदतें छोड़ देनी चाहिएं - निराशावादिता, कुढ़न, क्रोध, चुगली और ईर्ष्या। इनका आन्तरिक विष मनुष्य को कभी भी पनपने नहीं देता, समाज में निरादर होता है, आन्तरिक विद्वेष से मनुष्य निरन्तर दग्ध होता रहता है। बात को टालने की एक ऐसी गन्दी आदत है जिससे अनेक व्यक्ति अपना सब कुछ खो बैठे हैं। इनके स्थान पर सहानुभूति, आशावाद, प्रेम, सहनशीलता, संयम की आदतें लोक एवं परलोक दोनों में मनुष्य को सन्तुष्ट रखती हैं। यदि हम आत्मनिर्माण में अपना समय लगायें, तो हमारा जीवन बहुत ऊँचा उठ सकता है।
🔷 जीवन का लक्ष्य उन्नति है, बुरी बातों को अंदर से निकालना और अच्छी चीजें धारण करना। जिस धर्म में उन्नति नहीं होती वह छोड़ देने योग्य है। आर्य-समाज के नियमों में कहा गया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए-यह धर्म का तत्व है। दूसरी बात जो हम वृक्ष की अवस्था में देखते हैं वह यह है कि वृक्ष अपने जीवन के लिए ऊपर और नीचे दोनों ओर से भोजन लेता है। नीचे से जड़ें खुराक लेती हैं पत्ते वायु-मंडल से नमी और भोजन लेते हैं-इसी तरह धर्म नीचे और ऊपर दोनों ओर से जीवन ग्रहण करता है। धर्म वह है जिससे इहलोक और परलोक का भला होता है। जीते जागते धर्म का संबंध इहलोक और परलोक दोनों से है।
🔶 संसार के कितने ही व्यक्ति अपने जीवन को उचित, श्रेष्ठ और श्रेय के मार्ग पर नहीं लगाते। किसी एक उद्देश्य को स्थिर नहीं करते, न वे अपने मानसिक संकल्प को इतना दृढ़ ही बनाते है कि निज प्रयत्नों में सफल हो सकें। सोचते कुछ हैं करते कुछ और हैं। काम किसी एक पदार्थ के लिए करते हैं आशा किसी दूसरे की ही करते हैं। करील के वृक्ष बोकर आम खाने की अभिलाषा रखते हैं। हाथ में लिए हुए कार्य के विपरीत मानसिक भाव रखने से हमें अपनी निदिष्ट वस्तु कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। बल्कि हम इच्छित वस्तु से और भी दूर जा पड़ते हैं। तभी हमें नाकामयाबी, लाचारी, तंगी, क्षुद्रता प्राप्त होती है। अपने को भाग्यहीन समझ लेना, बेबसी की बातों को लेकर झोंकना और दूसरों की सिद्धि पर कुढ़ना हमें सफलता से दूर ले जाता है।
🔷 जीवन का लक्ष्य उन्नति है, बुरी बातों को अंदर से निकालना और अच्छी चीजें धारण करना। जिस धर्म में उन्नति नहीं होती वह छोड़ देने योग्य है। आर्य-समाज के नियमों में कहा गया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए-यह धर्म का तत्व है। दूसरी बात जो हम वृक्ष की अवस्था में देखते हैं वह यह है कि वृक्ष अपने जीवन के लिए ऊपर और नीचे दोनों ओर से भोजन लेता है। नीचे से जड़ें खुराक लेती हैं पत्ते वायु-मंडल से नमी और भोजन लेते हैं-इसी तरह धर्म नीचे और ऊपर दोनों ओर से जीवन ग्रहण करता है। धर्म वह है जिससे इहलोक और परलोक का भला होता है। जीते जागते धर्म का संबंध इहलोक और परलोक दोनों से है।
🔶 संसार के कितने ही व्यक्ति अपने जीवन को उचित, श्रेष्ठ और श्रेय के मार्ग पर नहीं लगाते। किसी एक उद्देश्य को स्थिर नहीं करते, न वे अपने मानसिक संकल्प को इतना दृढ़ ही बनाते है कि निज प्रयत्नों में सफल हो सकें। सोचते कुछ हैं करते कुछ और हैं। काम किसी एक पदार्थ के लिए करते हैं आशा किसी दूसरे की ही करते हैं। करील के वृक्ष बोकर आम खाने की अभिलाषा रखते हैं। हाथ में लिए हुए कार्य के विपरीत मानसिक भाव रखने से हमें अपनी निदिष्ट वस्तु कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। बल्कि हम इच्छित वस्तु से और भी दूर जा पड़ते हैं। तभी हमें नाकामयाबी, लाचारी, तंगी, क्षुद्रता प्राप्त होती है। अपने को भाग्यहीन समझ लेना, बेबसी की बातों को लेकर झोंकना और दूसरों की सिद्धि पर कुढ़ना हमें सफलता से दूर ले जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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