किसी रोज सन्ध्या समय विश्लेषण करने में जब मालूम हो जाय कि आज दिन भर हमने किसी की निन्दा नहीं की, कोई हीन बात नहीं बोले, किसी का तिरस्कार नहीं किया, चुगली नहीं की, तो समझ लो कि उस दिन तुम्हारा आध्यात्मिक विकास का बीजारोपण हो गया। शब्दों पर अधिकार रखकर अब तुम आगे उन्नति कर सकोगे।
यदि तुम किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति की आलोचना, चुगली या तिरस्कार सुनो तो उस पर ध्यान मत दो, उसे मत मानो। वह निन्दक अपनी ही आत्महीनता का परिचय दे रहा है- उसमें स्वयं कितनी बुराइयाँ हैं उसे वह नहीं देखता और नहीं दूर करता। वह दूसरों के छिद्र देखता है- उसकी बात सुनकर उससे कहो, “मुझे आलोचना या चुगली मत सुनाओ। इससे तुम्हें या मुझे क्या लाभ ? मुझे यह बताओ कि उस व्यक्ति में अच्छे गुण क्या हैं, और वे अच्छे गुण तुम में हैं या नहीं ? तथा उसकी अपेक्षा तुम कितना अच्छा काम कर सकते हो यह सिद्ध करो।” तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर उसकी दुबारा चुगली करने की हिम्मत नहीं होगी।
तुम भी यदि चुगली या वार्ता सुनो, दूसरों की चर्चा सुनो तो उसे दूसरों को मत सुनाओ-इससे व्यर्थ बकवाद बढ़ता है, व्यर्थ के विचार फैलते हैं, जूठा खाकर उसे उगलना कोई अच्छी बात नहीं है- यह तो कुत्तों से भी बुरा काम है। उस बात को छोड़ दो विचार करो कि क्या वह व्यक्ति सत्य कह रहा है? क्या ऐसा कह देना आवश्यक है? यदि मैं यह बात अमुक व्यक्ति को कह दूँ तो इसका क्या नतीजा होगा? इससे किसको लाभ होगा और न कह देने से किसको हानि? इन बातों में प्रेम कितना है? घृणा कितनी है? इत्यादि बातों पर विचार कर लो तब कोई सुनी हुई बात अपनी ओठों पर से दूसरे के कान में डालो फिर इसका क्या परिणाम होता है- तुम्हें पश्चाताप न होगा और दोष नहीं लगेगा, गवाही नहीं देनी होगी।
यदि तुम्हें किसी व्यक्ति का व्यवहार संकीर्ण मालूम पड़े और तुम उसका तिरस्कार करना चाहो तो पहले विचार कर लो-तुममें उसका तिरस्कार करने की प्रेरणा क्यों हो रही है ? उसमें जो संकीर्णता और बुराई है, क्या वह हममें नहीं है? यदि हममें भी वही बात है तो पहले स्वयं आत्मशुद्धि की आवश्यकता है तभी दूसरे पर दोष लगाने का अधिकार होगा। जब तक तुममें वही बुराई है तब तक तुम दोनों बराबरी की श्रेणी में हो। यदि तुममें वह संकीर्णता और बुराई नहीं है तो तुम शुद्ध हो परन्तु उसका तिरस्कार करने से तुममें हीनता आ जायगी। उसको शुद्ध करो। फूल मिट्टी में पड़ कर उसे भी सुगंधित कर देता है। उसे मत कहो, “तुम निकृष्ट और नीच हो, दुष्ट बेईमान हो।” वरन् उसे इन शब्दों की कल्पना ही न होने दो। उससे महानता और ईमानदारी की बात करो।
“अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया”, “अमुक बात अब तक नहीं हुई”, “अमुक कार्य हो जाय तब हम दूसरा काम करें”, “ऐसा हो जाता हो हम भी ऐसा करते”, इत्यादि बातें आलसी व्यक्ति किया करते हैं। जो कुछ तुम्हें करना है उसके लिए दूसरी भूमिकाओं पर ठहरने की क्या आवश्यकता? भूतकाल की अपूर्णताओं पर कुढ़ते रहने की अपेक्षा वर्तमान को पूर्ण कर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। भूतकाल की घटना तो मुर्दा हो गयी, उसकी कब्र खोदकर हड्डियाँ निकालने से क्या लाभ ? चेतन तत्व का आविष्कार करो जिससे तुम्हारा और संसार का निर्माण हो।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 24
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