मंगलवार, 3 सितंबर 2019
👉 झूठा अभिमान
एक मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’
हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है । हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछ चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो।
सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें। धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि तुम कुछ विशिष्ट हो, ना की साधारण।
तुम मिट्टी से ही बने हो और फिर मिट्टी में मिल जाओगे, तुम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हो वरना तो तुम बस एक मिट्टी के पुतले हो और कुछ नहीं। अहंकार सदा इस तलाश में है–वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।
याद रखना आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए अपना झूठा अहंकार छोड़ दो और सब का सम्मान करो क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।
हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के बिदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है । हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी? वह चाहती थी हाथी स्वीकार करे, तू भी है; तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछ चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले तो नहीं जी सक रहा है। दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है। इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें; उपेक्षा न हो।
सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें। धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये। दूसरे देखें और स्वीकार करें कि तुम कुछ विशिष्ट हो, ना की साधारण।
तुम मिट्टी से ही बने हो और फिर मिट्टी में मिल जाओगे, तुम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हो वरना तो तुम बस एक मिट्टी के पुतले हो और कुछ नहीं। अहंकार सदा इस तलाश में है–वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।
याद रखना आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए अपना झूठा अहंकार छोड़ दो और सब का सम्मान करो क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ६१)
👉 अति विलक्षण स्वाध्याय चिकित्सा
इस विधि के चार मुख्य बिन्दु है। इसके पहले क्रम में हम उन ग्रन्थों- विचारों का चयन करते हैं, जिन्हें स्व की अनुभूति से सम्पन्न महामानवों ने सृजित किया है। ध्यान रखें कोई भी पुस्तक या विचार स्वाध्याय की सामग्री नहीं बन सकता। इसके लिए जरूरी है कि यह पुस्तक या विचार किसी महान् तपस्वी अध्यात्मवेत्ता के द्वारा सृजित हो। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद् अथवा परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा लिखित ग्रन्थों का चयन किया जा सकता है। इस चयन के बाद दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। इस क्रम में हम इन महान् विचारों के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को देखते हैं, ऑकलन करते हैं। इस सत्य पर विचार करते हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं? क्या सोचना चाहिए और क्या सोच रहे हैं?
यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण क्रम है। इसी स्तर पर हम अपने स्वयं के चिन्तन तंत्र की विकृतियों व विकारों को पहचानते हैं। उनका भली प्रकार निदान करते हैं। गड़बड़ियाँ कहाँ है- और उनके प्रभाव कहाँ पड़ रहे हैं, आगे कहाँ पड़ने की उम्मीद है। इन सभी बातों पर विचार करते हैं। यह सच है कि निदान सही हो सका तो समाधान की नीति भी सही तय होती है। स्वाध्याय चिकित्सा का तीसरा मुख्य बिन्दु यही है। विचार, भावनाओं, विश्वास, आस्थाओं, मान्यताओं, आग्रहों से समन्वित अपने दृष्टिकोण को ठीक करने की नीति तय करना। इसकी पूरी प्रकिया को सुनिश्चित करना। हम कहाँ से प्रारम्भ करें और किस रीति से आगे बढ़ें। इसकी पूरी विधि- विज्ञान को इस क्रम में बनाना और तैयार करना पड़ता है।
इसके बाद चौथा बिन्दु है, इस विधि- विज्ञान के अनुसार व्यवहार। यानि कि स्वाध्याय को औषधि के रूप में ग्रहण करके स्वयं के परिष्कार का साहसिक कार्य। यह काम ऐसा है, जिसे जुझारू एवं संघर्षशील लोग ही कर पाते हैं। क्योंकि किसी सत्य की वैचारिक स्वीकारोक्ति कर लेना आसान है, पर उसके अनुसार जीवन जीने लगना कठिन है। इसमें आदतों एवं संस्कारों की अनेक बाधाएँ आती हैं। अहंकार अनगिन अवरोध खड़ा करता है। इन्हें दूर करने का एक ही उपाय है हमारी जुझारू एवं साहसिक वृत्ति। जो अपने अहंकार को अपने ही पाँवों के नीचे रौंदने का साहस करते हैं, उनसे बड़ा साहसी इस सृष्टि में और कोई नहीं। सचमुच ही जो अपने को जीतता है, वह महावीर होता है। स्वाध्याय की औषधि का सेवन करने वाले को ऐसा ही साहसी होना पड़ता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८४
इस विधि के चार मुख्य बिन्दु है। इसके पहले क्रम में हम उन ग्रन्थों- विचारों का चयन करते हैं, जिन्हें स्व की अनुभूति से सम्पन्न महामानवों ने सृजित किया है। ध्यान रखें कोई भी पुस्तक या विचार स्वाध्याय की सामग्री नहीं बन सकता। इसके लिए जरूरी है कि यह पुस्तक या विचार किसी महान् तपस्वी अध्यात्मवेत्ता के द्वारा सृजित हो। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद् अथवा परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा लिखित ग्रन्थों का चयन किया जा सकता है। इस चयन के बाद दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। इस क्रम में हम इन महान् विचारों के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को देखते हैं, ऑकलन करते हैं। इस सत्य पर विचार करते हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं? क्या सोचना चाहिए और क्या सोच रहे हैं?
यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण क्रम है। इसी स्तर पर हम अपने स्वयं के चिन्तन तंत्र की विकृतियों व विकारों को पहचानते हैं। उनका भली प्रकार निदान करते हैं। गड़बड़ियाँ कहाँ है- और उनके प्रभाव कहाँ पड़ रहे हैं, आगे कहाँ पड़ने की उम्मीद है। इन सभी बातों पर विचार करते हैं। यह सच है कि निदान सही हो सका तो समाधान की नीति भी सही तय होती है। स्वाध्याय चिकित्सा का तीसरा मुख्य बिन्दु यही है। विचार, भावनाओं, विश्वास, आस्थाओं, मान्यताओं, आग्रहों से समन्वित अपने दृष्टिकोण को ठीक करने की नीति तय करना। इसकी पूरी प्रकिया को सुनिश्चित करना। हम कहाँ से प्रारम्भ करें और किस रीति से आगे बढ़ें। इसकी पूरी विधि- विज्ञान को इस क्रम में बनाना और तैयार करना पड़ता है।
इसके बाद चौथा बिन्दु है, इस विधि- विज्ञान के अनुसार व्यवहार। यानि कि स्वाध्याय को औषधि के रूप में ग्रहण करके स्वयं के परिष्कार का साहसिक कार्य। यह काम ऐसा है, जिसे जुझारू एवं संघर्षशील लोग ही कर पाते हैं। क्योंकि किसी सत्य की वैचारिक स्वीकारोक्ति कर लेना आसान है, पर उसके अनुसार जीवन जीने लगना कठिन है। इसमें आदतों एवं संस्कारों की अनेक बाधाएँ आती हैं। अहंकार अनगिन अवरोध खड़ा करता है। इन्हें दूर करने का एक ही उपाय है हमारी जुझारू एवं साहसिक वृत्ति। जो अपने अहंकार को अपने ही पाँवों के नीचे रौंदने का साहस करते हैं, उनसे बड़ा साहसी इस सृष्टि में और कोई नहीं। सचमुच ही जो अपने को जीतता है, वह महावीर होता है। स्वाध्याय की औषधि का सेवन करने वाले को ऐसा ही साहसी होना पड़ता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ८४
👉 स्वाध्याय, जीवन विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता (भाग २)
नित्य ही तो न्यायालयों में देखा जा सकता है कि कोई एक वकील तो धारावाहिक रूप में बोलता और नियमों की व्याख्या करता जाता है और कोई टटोलकर भूलता याद करता हुआ सा कुछ थोड़ा-बहुत बोल पाता है। दोनों वकीलों ने एक समान ही कानून की परीक्षा पास की, उनके अध्ययन का समय भी बराबर रहा, पैसा और परिश्रम भी परीक्षा पास करने में लगभग एक सा ही लगाया और न्यायालयों में पक्ष प्रतिपादन का अधिकार भी समान रूप से ही मिला है- तब यह ध्यानाकर्षण अन्तर क्यों? इस अन्तर का अन्य कोई कारण नहीं एक ही अन्तर है और वह है स्वाध्याय। जो वकील धारावाहिक रूप में बोल कर न्यायालय का वायु-मण्डल प्रभावित कर अपने पक्ष का समर्थन जीत लेता है -वह निश्चय ही बिलाना। घंटों स्वाध्याय का व्रती होगा। इसके विपरीत जो वकील अविश्वासपूर्ण विश्रृंखल प्रतिपादन करता हुआ दिखलाई दे, विश्वास कर लेना चाहिए कि वह स्वाध्याय शील नहीं है।
योंहीं अपनी पिछली योग्यता, स्मृति शक्ति के आधार पर पक्ष प्रतिपादन का असफल प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार के स्वाध्याय हीन वकील अथवा प्रोफेसर अपने काम में सफल नहीं हो पाते और प्रगति की दौड़ में पीछे पड़े हुये घिसटते रहते हैं। उनको अपने पेशे में कोई अभिरुचि नहीं रहती और शीघ्र ही वे उसे छोड़कर भाग जाने की सोचने लगते है।
ऐसे असफल न जाने कितने वकील एवं प्रोफेसर देखने को मिल सकते हैं, जो स्वाध्याय-हीनता के दोष के कारण अपना-अपना स्थान छोड़कर छोटी-मोटी नौकरी में चले गये है। ऐसे विशाल एवं सम्मानित क्षेत्र को अपने अवांछनीय दोष के कारण भाग खड़ा होना मनुष्य के लिए बड़ी लज्जाप्रद असफलता है।
इतना ही नहीं वर्षों पुराने, अनुभवी और मजबूती से जमे हुए अनेक वकील प्रमाद के कारण नये-नये आये हुए वकीलों द्वारा उखाड़ फेंके जाते देखे जा सकते हैं। पुराने लोग अपने विगत स्वाध्याय, जमी प्रेक्टिस, प्रमाणित प्रतिभा और लम्बे अनुभव के अभिमान में आकर यह सोच कर दैनिक स्वाध्याय में प्रमाद करने लगते हैं कि हम तो इस क्षेत्र में महारथी हैं, इस विषय के सर्वज्ञ है, कोई दूसरा हमारे सामने खड़े होने का साहस ही नहीं कर सकता। किन्तु नया आया हुआ वकील नियमपूर्वक अपने विषय का अनुदैनिक स्वाध्याय करता और ज्ञान को व्यापक बनाता और माँजता रहता है। प्रमाद एवं परिश्रम का जो परिणाम होना है, वह दोनों के सामने उसी रूप में आता है। निदान वकील पीछे पड़ जाता है और नया आगे निकल जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
योंहीं अपनी पिछली योग्यता, स्मृति शक्ति के आधार पर पक्ष प्रतिपादन का असफल प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार के स्वाध्याय हीन वकील अथवा प्रोफेसर अपने काम में सफल नहीं हो पाते और प्रगति की दौड़ में पीछे पड़े हुये घिसटते रहते हैं। उनको अपने पेशे में कोई अभिरुचि नहीं रहती और शीघ्र ही वे उसे छोड़कर भाग जाने की सोचने लगते है।
ऐसे असफल न जाने कितने वकील एवं प्रोफेसर देखने को मिल सकते हैं, जो स्वाध्याय-हीनता के दोष के कारण अपना-अपना स्थान छोड़कर छोटी-मोटी नौकरी में चले गये है। ऐसे विशाल एवं सम्मानित क्षेत्र को अपने अवांछनीय दोष के कारण भाग खड़ा होना मनुष्य के लिए बड़ी लज्जाप्रद असफलता है।
इतना ही नहीं वर्षों पुराने, अनुभवी और मजबूती से जमे हुए अनेक वकील प्रमाद के कारण नये-नये आये हुए वकीलों द्वारा उखाड़ फेंके जाते देखे जा सकते हैं। पुराने लोग अपने विगत स्वाध्याय, जमी प्रेक्टिस, प्रमाणित प्रतिभा और लम्बे अनुभव के अभिमान में आकर यह सोच कर दैनिक स्वाध्याय में प्रमाद करने लगते हैं कि हम तो इस क्षेत्र में महारथी हैं, इस विषय के सर्वज्ञ है, कोई दूसरा हमारे सामने खड़े होने का साहस ही नहीं कर सकता। किन्तु नया आया हुआ वकील नियमपूर्वक अपने विषय का अनुदैनिक स्वाध्याय करता और ज्ञान को व्यापक बनाता और माँजता रहता है। प्रमाद एवं परिश्रम का जो परिणाम होना है, वह दोनों के सामने उसी रूप में आता है। निदान वकील पीछे पड़ जाता है और नया आगे निकल जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च १९६९ पृष्ठ २४
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/March/v1.24
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