सोमवार, 16 दिसंबर 2019

Todo Nahi Jodo | तोड़ो नहीं जोड़ो | Motivational Stories



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👉 सरलता ही भक्ति का एक मात्र स्रोत

एक आलसी लेकिन भोलाभाला युवक था आनंद। दिन भर कोई काम नहीं करता बस खाता ही रहता और सोए रहता। घर वालों ने कहा चलो जाओ निकलो घर से, कोई काम धाम करते नहीं हो बस पड़े रहते हो। वह घर से निकल कर यूं ही भटकते हुए एक आश्रम पहुंचा। वहां उसने देखा कि एक गुरुजी हैं उनके शिष्य कोई काम नहीं करते बस मंदिर की पूजा करते हैं। उसने मन में सोचा यह बढिया है कोई काम धाम नहीं बस पूजा ही तो करना है।

गुरुजी के पास जाकर पूछा, क्या मैं यहां रह सकता हूं, गुरुजी बोले हां, हां क्यों नहीं? लेकिन मैं कोई काम नहीं कर सकता हूं गुरुजी: कोई काम नहीं करना है बस पूजा करनी होगी आनंद : ठीक है वह तो मैं कर लूंगा...

अब आनंद महाराज आश्रम में रहने लगे। ना कोई काम ना कोई धाम बस सारा दिन खाते रहो और प्रभु मक्ति में भजन गाते रहो। महीना भर हो गया फिर एक दिन आई एकादशी। उसने रसोई में जाकर देखा खाने की कोई तैयारी नहीं। उसने गुरुजी से पूछा आज खाना नहीं बनेगा क्या गुरुजी ने कहा नहीं आज तो एकादशी है

तुम्हारा भी उपवास है। उसने कहा नहीं अगर हमने उपवास कर लिया तो कल का दिन ही नहीं देख पाएंगे हम तो.... हम नहीं कर सकते उपवास... हमें तो भूख लगती है आपने पहले क्यों नहीं बताया? गुरुजी ने कहा ठीक है तुम ना करो उपवास, पर खाना भी तुम्हारे लिए कोई और नहीं बनाएगा तुम खुद बना लो। मरता क्या न करता गया रसोई में, गुरुजी फिर आए ''देखो अगर तुम खाना बना लो तो राम जी को भोग जरूर लगा लेना और नदी के उस पार जाकर बना लो रसोई। ठीक है, लकड़ी, आटा, तेल, घी, सब्जी लेकर आंनद महाराज चले गए, जैसा तैसा खाना भी बनाया, खाने लगा तो याद आया गुरुजी ने कहा था कि राम जी को भोग लगाना है।

वह भजन गाने लगा...आओ मेरे राम जी, भोग लगाओ जी प्रभु राम आइए, श्रीराम आइए मेरे भोजन का भोग लगाइए..... कोई ना आया, तो बैचैन हो गया कि यहां तो भूख लग रही है और राम जी आ ही नहीं रहे। भोला मानस जानता नहीं था कि प्रभु साक्षात तो आएंगे नहीं। पर गुरुजी की बात मानना जरूरी है। फिर उसने कहा , देखो प्रभु राम जी, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आ रहे हैं। मैंने रूखा सूखा बनाया है और आपको तर माल खाने की आदत है इसलिए नहीं आ रहे हैं.... तो सुनो प्रभु ... आज वहां भी कुछ नहीं बना है, सबकी एकादशी है, खाना हो तो यह भोग ही खालो...

श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर बड़े मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हो गए। भक्त असमंजस में। गुरुजी ने तो कहा था कि राम जी आएंगे पर यहां तो माता सीता भी आईं है और मैंने तो भोजन बस दो लोगों का बनाया हैं। चलो कोई बात नहीं आज इन्हें ही खिला देते हैं। बोला प्रभु मैं भूखा रह गया लेकिन मुझे आप दोनों को देखकर बड़ा अच्छा लग रहा है लेकिन अगली एकादशी पर ऐसा न करना पहले बता देना कि कितने जन आ रहे हो, और हां थोड़ा जल्दी आ जाना। राम जी उसकी बात पर बड़े मुदित हुए। प्रसाद ग्रहण कर के चले गए। अगली एकादशी तक यह भोला मानस सब भूल गया। उसे लगा प्रभु ऐसे ही आते होंगे और प्रसाद ग्रहण करते होंगे। फिर एकादशी आई। गुरुजी से कहा, मैं चला अपना खाना बनाने पर गुरुजी थोड़ा ज्यादा अनाज लगेगा, वहां दो लोग आते हैं। गुरुजी मुस्कुराए, भूख के मारे बावला है। ठीक है ले जा और अनाज लेजा। अबकी बार उसने तीन लोगों का खाना बनाया। फिर गुहार लगाई प्रभु राम आइए, सीताराम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए...

प्रभु की महिमा भी निराली है। भक्त के साथ कौतुक करने में उन्हें भी बड़ा मजा आता है। इस बार वे अपने भाई लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न और हनुमान जी को लेकर आ गए। भक्त को चक्कर आ गए। यह क्या हुआ। एक का भोजन बनाया तो दो आए आज दो का खाना ज्यादा बनाया तो पूरा खानदान आ गया। लगता है आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। सबको भोजन लगाया और बैठे-बैठे देखता रहा। अनजाने ही उसकी भी एकादशी हो गई। फिर अगली एकादशी आने से पहले गुरुजी से कहा, गुरुजी, ये आपके प्रभु राम जी, अकेले क्यों नहीं आते हर बार कितने सारे लोग ले आते हैं? इस बार अनाज ज्यादा देना। गुरुजी को लगा, कहीं यह अनाज बेचता तो नहीं है देखना पड़ेगा जाकर। भंडार में कहा इसे जितना अनाज चाहिए दे दो और छुपकर उसे देखने चल पड़े।

इस बार आनंद ने सोचा, खाना पहले नहीं बनाऊंगा, पता नहीं कितने लोग आ जाएं। पहले बुला लेता हूं फिर बनाता हूं। फिर टेर लगाई प्रभु राम आइए , श्री राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए... सारा राम दरबार मौजूद... इस बार तो हनुमान जी भी साथ आए लेकिन यह क्या प्रसाद तो तैयार ही नहीं है। भक्त ठहरा भोला भाला, बोला प्रभु इस बार मैंने खाना नहीं बनाया, प्रभु ने पूछा क्यों? बोला, मुझे मिलेगा तो है नहीं फिर क्या फायदा बनाने का, आप ही बना लो और खुद ही खा लो.... राम जी मुस्कुराए, सीता माता भी गदगद हो गई उसके मासूम जवाब से... लक्ष्मण जी बोले क्या करें प्रभु... प्रभु बोले भक्त की इच्छा है पूरी तो करनी पड़ेगी। चलो लग जाओ काम से। लक्ष्मण जी ने लकड़ी उठाई, माता सीता आटा सानने लगीं। भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। माता सीता रसोई बना रही थी तो कई ऋषि-मुनि, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने आने लगे। इधर गुरुजी ने देखा खाना तो बना नहीं भक्त एक कोने में बैठा है। पूछा बेटा क्या बात है खाना क्यों नहीं बनाया? बोला, अच्छा किया गुरुजी आप आ गए देखिए कितने लोग आते हैं प्रभु के साथ..... गुरुजी बोले, मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा तुम्हारे और अनाज के सिवा भक्त ने माथा पकड़ लिया, एक तो इतनी मेहनत करवाते हैं प्रभु, भूखा भी रखते हैं और ऊपर से गुरुजी को दिख भी नहीं रहे यह और बड़ी मुसीबत है। प्रभु से कहा, आप गुरुजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं? प्रभु बोले : मैं उन्हें नहीं दिख सकता। बोला : क्यों  वे तो बड़े पंडित हैं, ज्ञानी हैं विद्वान हैं उन्हें तो बहुत कुछ आता है उनको क्यों नहीं दिखते आप? प्रभु बोले, माना कि उनको सब आता है पर वे सरल नहीं हैं तुम्हारी तरह। इसलिए उनको नहीं दिख सकता....

आनंद ने गुरुजी से कहा, गुरुजी प्रभु कह रहे हैं आप सरल नहीं है इसलिए आपको नहीं दिखेंगे, गुरुजी रोने लगे वाकई मैंने सबकुछ पाया पर सरलता नहीं पा सका तुम्हारी तरह, और प्रभु तो मन की सरलता से ही मिलते हैं। प्रभु प्रकट हो गए और गुरुजी को भी दर्शन दिए। इस तरह एक भक्त के कहने पर प्रभु ने रसोई भी बनाई, भक्ति का प्रथम मार्ग सरलता है!

👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (भाग १)

अपने चारों ओर फैला हुआ संसार हमें न जाने प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से क्या-क्या सिखाता रहता है और अनायास ही न जाने किधर से किधर घसीटता रहता है। आँखें सर्वत्र धन वैभव की चमक-दमक देखती हैं और सम्पन्न लोगों को मौज-मजा करते हुए पाती हैं। भले ही कोई कुछ कहता न हो, पर यह वैभव हमारी अन्तःचेतना को अनायास ही सम्पत्तिवान बनने के लिए आकर्षित करता है।

धन के संग्रह और अभिवर्धन का जहाँ तक सम्बन्ध है नीति शास्त्र ने उसे सदा निरुत्साहित किया है। धर्म और अध्यात्म का, मानवीय आदर्शवादिता का प्रतिपादन धनियों के लिए अपरिग्रहण है। सौ हाथों से कमाया जाय किन्तु साथ ही उसे हजार हाथ से खर्च भी कर दिया जाय। कोई व्यक्ति अधिक कमा तो सकता है पर उसे अपने लिए उस देश के नागरिकों के सामान्य स्तर से अधिक खर्च अपने लिए नहीं करना चाहिए। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए, पिछड़े हुओं को ऊँचा उठाने के लिये उस उपार्जन को दान रूप में समाज को ही वापिस कर देना चाहिए। आदर्श यही है। पर इसे मानता कौन है? किसी भी तरीके से उचित अनुचित को ध्यान में रखे बिना अधिक से अधिक कमाया जाय और उससे अधिक से अधिक ठाट-बाट का विलासिता का उपयोग किया जाय, अधिक से अधिक शान-शौकत भरी अहन्ता का रोपण किया जाय। आज सर्वत्र यही हो रहा है।

विलासिता के इतने अधिक आकर्षण बढ़ते जाते हैं और उनका उपभोग करने वाले इतने चहकने लगते हैं कि अपना मन भी अनायास उसी ओर लालायित होता है। बाहर से आदर्शवाद की बातें कहने वाले भी भीतर-भीतर उसी लिप्सा में डूबे रहते हैं। जीवन का वास्तविक आनन्द विलास है। उसे प्राप्त करना हो तो नीति-अनीति का विचार छोड़ देना चाहिए। नीति से वैभव कैसे जुड़ेगा। उदारता बरतने से अपने पास क्या रहेगा? इसलिये निष्ठुर, विलासी, दुष्ट एवं अपराधी बनकर भी वैभव और विलास को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना चाहिए, यही आज के वातावरण का हर व्यक्ति के लिए शिक्षण है। उस समर्थन में भाषण नहीं किये जाते, लेख नहीं छपते तो क्या, प्रस्तुत परिस्थितियों की प्रत्येक तरंग मस्तिष्क को यही सिखाती है। सो आमतौर से मनुष्य उसी भीख को स्वीकार भी करते हैं। लोक प्रवाह को हम उसी धारा में प्रवाहित होते हुए देखते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्वर्ग - नरक

स्वर्ग और नरक की कथाओं से धर्मग्रन्थ भरे पड़े हैं। जहाँ स्वर्ग की चर्चा है, वहाँ खुशियों के अनगिनत साधन हैं। प्रसन्नतादायक दृश्य हैं, आह्लादकारी वस्तुएँ एवं परिस्थितियाँ हैं। इसके विपरीत नरक की चर्चा दुःखों के आँसुओं से भीगी है। वहाँ के दृश्य पीड़ादायक हैं एवं वस्तुएँ व परिस्थितियाँ भयावह हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि धर्मग्रन्थों को पढ़ने वाले के मन में स्वर्ग की चाहत और नरक की दहशत भर जाय। कुछ ऐसा ही शेख रमीज़ के साथ हुआ। धर्मग्रन्थों के इस विवरण को पढ़ने के बाद पहले तो वह सोचता रहा, फिर उसने हिम्मत जुटाकर बाबा फरीद से पूछा- बाबा! मैं इस बात की सच्चाई जानना चाहता हूँ कि वास्तव में स्वर्ग और नरक कैसे हैं?
  
उसके इस सवाल पर बाबा फरीद हँस कर बोले- बस इतनी सी बात, चलो आँखें बन्द करो और देखो। उसने आँखें बन्द की और शान्त शून्यता में चला गया। फिर बाबा फरीद बोले, ‘अब स्वर्ग देखो’ और फिर थोड़ी देर बाद बोले ‘अब नरक’। जब शेख रमीज़ ने आँखें खोली तो उनमें अचरज था। उनके गुरु ने उनसे पूछा, क्या देखा? वह बोला, स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी कि लोग चर्चा करते हैं। न तो वहाँ अमृत की नदियाँ थीं और न ही स्वर्ण के महल थे, वहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं था। इसी तरह नरक में भी वैसा कुछ नहीं था- न वहाँ अग्नि ज्वालाएँ थीं और न पीड़ितों का रुदन। इसका कारण क्या है? क्या मैंने स्वर्ग और नरक नहीं देखे, या फिर सारे धर्मग्रन्थ झूठे हैं।
  
बाबा फरीद अपने इस शिष्य की बात पर हल्के से मुस्करा दिए और कहने लगे धर्मग्रन्थ भी सच है और तुमने भी निश्चय ही स्वर्ग और नरक देखें हैं। लेकिन अमृत की नदियाँ और स्वर्ण के महल अथवा फिर अग्नि की ज्वालाएँ और पीड़ा का रुदन खुद को ही वहाँ ले जाने पड़ते हैं। वे वहाँ नहीं मिलते। जो हम अपने साथ ले जाते हैं, वही वहाँ हमें उपलब्ध हो जाता है। हम ही स्वर्ग हैं और हम ही नरक हैं। व्यक्ति जो अपने अन्तस में होता है, उसे ही अपने बाहर भी पाता है। बाहरी दुनियाँ, आन्तरिक जगत् का ही प्रक्षेपण है। भीतर स्वर्ग है तो बाहर भी स्वर्ग है। और भीतर नरक हो तो बाहर भी नारकीय यातनाएँ ही मिलती हैं। स्वयं में ही सब कुछ छिपा हुआ है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४३

👉 MISCONCEPTIONS ABOUT ELIGIBILITY FOR GAYATRI SADHANA (Part 6)

Q.6. Is Gayatri worship permissible for the non-vegetarians and those who take liquors?

Ans. It is said that Gayatri is a sacred Mantra and those who worship it should live a life of inner and outer purity. They should not take liquor, meat etc. It is good not to indulge in intoxicants. It is better to remain pure as far as possible. This, however, does not mean that no medicines should be given to a person living in unhealthy conditions. It is the speciality of Gayatri Mantra that by its worship, defects and vices of a person start falling off from the Sadhak’s nature. By taking a dip in the Ganga every living being becomes pure. None, not even a cow, buffalo, donkey, horse is prevented from entering into this sacred river. In the same way any person of any social status can perform Sadhana of Gayatri Mantra without any restrictions, whatsoever. His vices, defects will automatically go on reducing in the course of time. Just as the argument that a patient should not be given medicine is wrong, so also the statement that Gayatri Mantra should not be adopted if food and daily routine of a person are defective is fallacious.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 34

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...