👉 सद्गुरू की कृपा से ही मिलती है मुक्ति
🔷 कुण्डलिनी के जागृत होते ही कीचड़ धुलने लगती है, कुसंस्कारों की काई छटने लगती है और तब उसे अनुभव होता है कि देह से परे भी उसकी सत्ता है। इस तरह ऐसा साधक कुण्डलिनी के जागरण एवं ऊर्घ्वगमन के साथ ही पिण्ड से मुक्त हो जाता है; परन्तु यह मुक्ति का पहला चरण है। इसके आगे की यात्रा तब सम्भव होती है, जब वह पद को पहचानता है। प्राण रूप हंस की सूक्ष्मताओं एवं विचित्रताओं से परिचित होता है। देह में जितने बन्धन है, वे सब के सब स्थूल हैं, परन्तु प्राण की प्रकृति देह की तुलना में सूक्ष्म है। इस प्राण को भलीभाँति जान लेने पर, इसे अपनी साधना से स्थिर कर लेने पर उसे पद मुक्ति के रूप में मुक्ति के दूसरे चरण का अनुभव होता है।
🔶 इस अवस्था में पहुँचे हुए योगी को वासनाएँ नहीं सताती, कुसंस्कारों की कीचड़ उसे कलुषित नहीं करती। वह भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है। परन्तु यहीं से उसके जीवन में ऋद्धियों का, सिद्धियों का सिलसिला प्रारम्भ होता है। परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक अलौकिक विभूतियों को जन्म देते हैं। हालाँकि इसमें स्थूल जैसा कुछ भी नहीं होता। परन्तु इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जगता ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक को परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक अलौकिक विभूतियों को जन्म देते हैं। हालाँकि इसमें स्थूल जैसा कुछ भी नहीं होता। परन्तु इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जगता ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक को के वल आत्म साक्षात्कार के बाद ही उपलब्ध होता है।
🔷 किन्तु यह तभी होता है, जब इसे बिन्दु रूप आत्मज्योति का दर्शन हो। यह दर्शन ही आत्म साक्षात्कार है। जो योग साधक इस आत्मरूप का साक्षात्कार करता है, वही मुक्ति के अगले चरण यानि कि रूप मुक्ति का आनन्द उठा सकता है। योग साधक की यह अवस्था पूर्णतः द्वन्द्वातीत होती है। न यहाँ सुख होता है और न दुःख। किसी तरह के सांसारिक- लौकिक कष्ट उसे कोई पीड़ा नहीं देते। गुण गुणों में बसते हैं, इस सत्य का अनुभव उसे इसी अवस्था में होता है। उपनिषदों में इसी को अंगुष्ठ मात्र आत्मज्योति का साक्षात्कार कहा गया है। इस ज्योति के दर्शन मात्र से योग साधक को स्वयं का ज्ञान एवं आत्मरूप में स्थिति की प्राप्ति हो जाती है। इस अवस्था का सच एक ऐसा सच है, जिसे अवुभवी ही जानते हैं। वही इसका सुख एवं आनन्द भोगते हैं।
🔶 मुक्ति की यह अवस्था पाने के बाद भी भेद बना रहता है। जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता के बीच पारदर्शी दीवार बनी रहती है। कुछ वैसा ही, जैसा कि लैम्प की ज्योति एवं देखने वाले के बीच शीशा आ खड़ा होता है। देखने वाला ज्योति को देखता है, परन्तु इसे छू नहीं सकता, इसमें समा नहीं सकता। कुछ इसी तरह आत्मज्योति में स्थिर हो जाने के बाद जीव सत्ता को परमात्मा की अनुभूति तो होने लगती है, परन्तु भेद करने वाली पारदर्शी दीवार नहीं ढहती। यह अवस्था आनन्ददायक होते हुए भी बड़ी पीड़ादायक एवं तड़पाने वाली है।
🔷 अनुभवी जनों को ही इसका अनुभव होता है। इस पारदर्शी दीवार को भेदना किसी साधनात्मक पुरूषार्थ से सम्भव नहीं है। कोई भी योग साधना, किसी तरह की तकनीक से यह कार्य नहीं हो सकता। इसके लिए तो बस भक्त की पुकार और भगवान् की कृपा का मेल चाहिए। शिष्य की तड़पन एवं सद्गुरु की कृपा से ही यह दीवार ढहती है- गिरती है। बड़ी कठिन एवं मार्मिक बात है यह ।। जो यहाँ लिखा और कहा जा रहा है, उसे पता नहीं कौन किस तरह से समझ सकेगा। पर यही सच है, यही सच है। जिसे अपने गुरू की यह कृपा मिल जाती है, उसी को रूपातीत निरूपित हो जाता है। यही सम्पूर्ण मुक्ति है। सद्गुरू की अपने शिष्य पर अनूठी कृपा है। इस कृपा को पाने वाला कौन होता है? इसे भगवान् सदाशिव अगले क्रम में बताते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 148