बुधवार, 17 नवंबर 2021

👉 कर्म फल

पुराने समय में एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबारियों और मंत्रियों की परीक्षा लेता रहता था। एक दिन राजा ने अपने तीन मंत्रियों को दरबार में बुलाया और तीनो को आदेश दिया कि एक एक थैला लेकर बगीचे में जायें और वहाँ से अच्छे अच्छे फल तोड़ कर लायें। तीनो मंत्री एक एक थैला लेकर अलग अलग बाग़ में गए। बाग़ में जाकर एक मंत्री ने सोचा कि राजा के लिए अच्छे अच्छे फल तोड़ कर ले जाता हूँ ताकि राजा को पसंद आये। उसने चुन चुन कर अच्छे अच्छे फलों को अपने थैले में भर लिया। दूसरे मंत्री ने सोचा “कि राजा को कौनसा फल खाने है?” वो तो फलों को देखेगा भी नहीं। ऐसा सोचकर उसने अच्छे बुरे जो भी फल थे, जल्दी जल्दी इकठ्ठा करके अपना थैला भर लिया। तीसरे मंत्री ने सोचा कि समय क्यों बर्बाद किया जाये, राजा तो मेरा भरा हुआ थैला ही देखेगे। ऐसा सोचकर उसने घास फूस से अपने थैले को भर लिया। अपना अपना थैला लेकर तीनो मंत्री राजा के पास लौटे। राजा ने बिना देखे ही अपने सैनिकों को उन तीनो मंत्रियों को एक महीने के लिए जेल में बंद करने का आदेश दे दिया और कहा कि इन्हे खाने के लिए कुछ नहीं दिया जाये। ये अपने फल खाकर ही अपना गुजारा करेंगे।

अब जेल में तीनो मंत्रियों के पास अपने अपने थैलो के अलावा और कुछ नहीं था। जिस मंत्री ने अच्छे अच्छे फल चुने थे, वो बड़े आराम से फल खाता रहा और उसने बड़ी आसानी से एक महीना फलों के सहारे गुजार दिया। जिस मंत्री ने अच्छे बुरे गले सड़े फल चुने थे वो कुछ दिन तो आराम से अच्छे फल खाता रहा रहा लेकिन उसके बाद सड़े गले फल खाने की वजह से वो बीमार हो गया। उसे बहुत परेशानी उठानी पड़ी और बड़ी मुश्किल से उसका एक महीना गुजरा। लेकिन जिस मंत्री ने घास फूस से अपना थैला भरा था वो कुछ दिनों में ही भूख से मर गया।

दोस्तों ये तो एक कहानी है। लेकिन इस कहानी से हमें बहुत अच्छी सीख मिलती है कि हम जैसा करते हैं, हमें उसका वैसा ही फल मिलता है। ये भी सच है कि हमें अपने कर्मों का फल ज़रूर मिलता है। इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में हमें अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। एक बहुत अच्छी कहावत हैं कि जो जैसा बोता हैं वो वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे।

मतलब कि अगर हमने कोई गलत काम किया है या किसी को दुःख पहुँचाया है या किसी को धोखा दिया है या किसी के साथ बुरा किया है, तो हम कभी भी खुश नहीं रह सकते। कभी भी सुख से, चैन से नहीं रह सकते। हमेशा किसी ना किसी मुश्किल परेशानी से घिरे रहेंगे।

👉 भक्तिगाथा (भाग ८६)

दुर्लभ है महापुरुषों का संग

देवर्षि के इस सूत्र को सभी ने सुना। परन्तु महर्षि वाल्मीकि तो जैसे इसमें डूब गए। उन्हें याद आने लगे अपने वे पल, जिन्होंने उन्हें भक्त बना दिया था। इन स्मृतियों ने उन्हें थोड़ा विकल किया और पुलकित भी। इस विकलता भरी पुलकन के अहसास से उनकी आँखें भर आयीं। पर वह बोले कुछ नहीं, बस उन्होंने सूर्यदेव की ओर ताका और फिर शून्य में रम से गए। उन्हें इस तरह मौन होते देख ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहने लगे- ‘‘देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आप करें।’’ वशिष्ठ के इस कथन के उत्तर में उन्होंने देवर्षि की ओर देखा। महर्षि वाल्मीकि को इस तरह अपनी ओर देखते हुए देखकर देवर्षि ने भी आग्रह किया- ‘‘अवश्य ऋषिश्रेष्ठ! इस सूत्र की व्याख्या आप करें। आपके मुख से इसकी व्याख्या सुनकर हम सभी अनुग्रहीत होंगे।’’

देवर्षि की यह बात सुनकर महर्षि वाल्मीकि मुस्कराए और कहने लगे- ‘‘अनुग्रहीत तो मैं हूँ देवर्षि। आपके संग ने, आपकी कृपा ने मुझे अनुग्रहीत किया। आज का यह महर्षि वाल्मीकि कभी दस्यु रत्नाकर हुआ करता था। इस अपकर्म को करते हुए जीवन के कितने वर्ष गुजर गए। तभी अचानक भगवान की अहैतुकी कृपा मुझ पर हुई और देवर्षि मिले। परन्तु मैं हतभाग्य इन्हें पहचान न सका। इनकी करूणा के उत्तर में मैंने इन्हें डराया, धमकाया, यहाँ तक कि एक वृक्ष से बांध दिया। परन्तु देवर्षि को तनिक भी क्रोध नहीं आया। वे तो बस मुस्कराते रहे, उनके नेत्रों से करूणा बरसती रही। इन्होंने तो बस इतना कहा, तुम यह सब क्यों करते हो? मैंने कहा- अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए। तब उस समय देवर्षि ने मुझसे कहा था- क्या तुम्हारे परिवार के स्वजन तुम्हारे इस कर्मफल के भी भागीदार होंगे? मैंने सहज ही कह दिया था- अवश्य।

लेकिन परमज्ञानी देवर्षि ने मुझसे कहा- ऐसे नहीं, तुम उन लोगों से पूछकर मुझे अपना उत्तर दो। देवर्षि को एक पेड़ से बांधकर मैं उनसे उत्तर पूछने गया। उनके जवाब पर मुझे हैरत और हैरानी हुई। क्योंकि सभी लोगों ने मुझे एक स्वर से मना करते हुए कहा- अपने कर्मफल का भोग तुम्हें स्वयं भोगना पड़ेगा। तुम्हारे कर्म को भला हम सब क्यों भोगेंगे? उनके इस उत्तर ने मुझे हैरानी में डाल दिया। मैं भागा-भागा देवर्षि की शरण में आया। उनके बन्धन खोले-क्षमा मांगी, और कहा- हे भगवान! आप मुझे मार्ग बतायें।

देवर्षि ने मुझे ‘राम’ नाम जपने का आदेश दिया परन्तु मैं अभागा, मुझे राम कहना ही न आया। पूर्व दस्युकर्म ने मुझे ‘मरा’ कहना अवश्य सिखाया था। देवर्षि ने कहा- कोई बात नहीं तुम यही जपो। देवर्षि के आदेश से मैंने ‘मरा’ का जप प्रारम्भ किया। मर्यादापुरुषोत्तम का यह ‘उल्टा नाम’ मेरे लिए अमोघ मन्त्र बन गया। ‘मरा’ कब ‘राम’ में परिवर्तित हुआ पता ही न चला। मैंने जप तो प्रारम्भ कर दिया, परन्तु पिछले कर्म भला कैसे पीछा छोड़ते? लोकनिन्दा, अपमान, तिरस्कार सभी कुछ चलता रहा। मेरे द्वारा दी गयी पीड़ा-यातनाएँ उलट कर मेरे पास आती रहीं परन्तु राम का नाम मेरी रक्षा करता रहा।

इस क्रम में सालों-साल बीत गए। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सभी से बेखबर मैं बस राम-राम जपता रहा। कितनी बार कितने ही तरह की शारीरिक-मानसिक यातनाएँ मुझे मिलीं, मेरा मन घबराया, टूटा-बिखरा। हताशा-निराशा के बवण्डर आए, परन्तु कृपालु देवर्षि हर बार मुझे धीरज बंधाते रहे। उन्होंने मुझे बताया तुम धीरज खोए बिना बस प्रभु को पुकारते रहो। तुम्हारे जीवन का समस्त अंधकार प्रभु की कृपा के सामने तुच्छ है। देवर्षि की वाणी मेरा सदा सम्बल बनी रही। समय बीतता गया। साथ ही चंचल मन की लहरें थमती गयीं। अन्तः का सघन अन्धकार घटना प्रारम्भ हुआ। प्रकाश की क्षीण किरणें चमकीं। परिवर्तन का क्रम आरम्भ हुआ। राम रटन, भक्ति भजन बन गयी और एक दिन मेरी भावनाएँ-काव्य की पंक्तियाँ बन गयीं। मेरे स्वयं के इस परिवर्तन ने मुझे बता दिया, कि सचमुच ही महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य एवं अमोघ होता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १५९

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