बुधवार, 14 अप्रैल 2021

👉 डॉ.भीम राव आंबेडकर


संविधान निर्माता,विधि के ज्ञाता,हम सब पर उपकार किया।।
दीन, दुःखी, दलितों, पतितों को, समता का अधिकार दिया।
जय भीम राव की जय हो, जय बाबासाब की जय हो।
जय आंबेडकर की जय हो, जय बाबासाब की जय हो।।
 
बचपन  से  ही थे तेजस्वी, कार्य  तुम्हारे परम ओजस्वी।
प्रतिभा के तो धनी रहे तुम,प्रखर विचारक,महामनस्वी।।
सभ्य समाज  के  सभ्य  मनुज हों, समदर्शी संसार दिया।
संविधान निर्माता,विधि के ज्ञाता,हम सब पर उपकार किया।।
 
छुआ - छूत और उंच - नीच से, जीवन भर एतराज जताया।
भूख और भय से मुक्त राष्ट्र कर,अछूतों को भी ताज दिलाया।।
सुदृढ़  संविधान  बनाया  जो,  हर वासी  ने  स्वीकार किया।
संविधान निर्माता,विधि के ज्ञाता,हम सब पर उपकार किया।।
 
सामाजिक  दुर्भाव  हटाने, बृहद  अभियान  चलाया  था ।
दलितों  के  उत्थान  के  लिए,  पूरा  जन्म  लगाया  था।।
ज्ञान,शील,स्वाभिमान जगाकर, पतितों का उद्धार किया।
संविधान निर्माता,विधि के ज्ञाता,हम सब पर उपकार किया।।
 
भारत  के  तुम  अमूल्य  रत्न  हो, कानून के निर्माता हो।
सत्य,अहिंसा,न्याय,प्रेम से,  सबके  भाग्य  विधाता  हो।।
न्याय सभी के लिए बराबर, यह सबको  अधिकार दिया।
संविधान निर्माता,विधि के ज्ञाता,हम सब पर उपकार किया।।

-उमेश यादव

👉 भक्तिगाथा (भाग ४)

वासनाओं के भावनाओं में रूपांतरण की कथा

आह्वान के स्वरों की गूँज हिमशिखरों में संव्याप्त होती हुई परा प्रकृति की सूक्ष्मता को स्पन्दित करने लगी। ये स्पन्दन क्रमिक रूप से तीव्र होते गये और फिर सहसा निरभ्र आकाश में एक नया चन्द्रोदय हुआ। इस चन्द्रमा का प्रकाश, आभा, सौन्दर्य स्वयं में सम्पूर्ण था। आकाश में दो चन्द्रमाओं की उपस्थिति ने एक बारगी सभी को अचरज में डाल दिया। परन्तु दूसरे ही क्षण ऋषि मण्डल ने आश्वस्ति की साँस ली। उन्होंने देखा कि यह नवोदित चन्द्रमा शनैः-शनैः हिमालय की उस दिव्य घाटी में अवतरित हो रहा था। उसके प्रकाश ने हिमालय के कण-कण को आच्छादित और आह्लादित कर दिया। वहाँ उपस्थित देवों एवं महर्षियों के अंतस् में भी पुलकन की पूर्णिमा चमक उठी।
    
उन्होंने अनुभव कर लिया था कि यह नवोदित चन्द्रोदय और कुछ नहीं स्वयं देवर्षि नारद का आगमन है। उनके इस हिमधरा पार आगमन के साथ ही सम्पूर्ण वातावरण प्रभुनाम से सम्पूरित सामगान के स्वरों से गूँज उठा। बड़ी मधुर और अलौकिक थी यह स्वर लहरी। इसकी यथार्थ अनुभूति तो वही कर सकते हैं, जो वहाँ स्वयं प्रत्यक्ष अथवा सूक्ष्म शरीर से उपस्थित थे। परन्तु जिन्हें अपनी भावनाओं में भी इसका अहसास हो सका वे भी देवर्षि का कृपाप्रसाद पाये बिना नहीं रह सके। देवर्षि की इस उपस्थिति का आभास पाते ही समूचा ऋषि मण्डल उनकी अभ्यर्थना के लिए खड़ा हो गया। उस दिव्य घाटी में पुनः एक बार फिर सुमधुर अनुगूँज उठी-
     अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्ति शाङ्र्गध्रन्वतः।
     गायन्माद्यन्निदं तन्भया रमयत्यातुरं जगत्॥
‘अहो! देवर्षि नारद आप धन्य हैं, जो वीणा बजाते, हरिगुण गाते और आनन्दित होते हुए इस दुःखी संसार को आनन्दित करते रहते हैं।’
    
पीत वस्त्र पहने, हाथों में वीणा थामे देवर्षि का यह स्वरूप बड़ा मनोहर था। उन्होंने ऋषियों की अभ्यर्थना का उत्तर एक पवित्र मुस्कान के साथ दिया। ‘‘आज आप सब महर्षियों ने मुझे क्यों स्मरण किया’’- देवर्षि के इन स्वरों में बड़ा सुमधुर आध्यात्मिक संगीत था। इसका उत्तर वेदव्यास ने दिया- ‘‘हे देवर्षि! आपने सदा ही मानव एवं मानवता का मार्गदर्शन किया है। जब भी कोई कहीं भटका, आपने उसे राह दिखाई। मनुष्य की भावनात्मक भटकन आपने ही दूर की है। आपके संसर्ग एवं संस्पर्श से कितने ही भटके हुए मनुष्य महर्षि बने हैं। आज कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि समूचा समुदाय ही भटक गया है।’’
    
‘‘महर्षि व्यास का कथन सर्वथा उचित है देवर्षि’’, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपनी बात कहना प्रारम्भ की। उनकी वाणी में स्वाभाविक प्रखरता थी। वह कह रहे थे कि ‘‘आज भावनाओं की सार्थकता ही खो गयी है। त्याग एवं तप के स्थान पर स्वार्थ एवं वासना इसका पर्याय बन गये हैं। प्रेम के ढाई अक्षरों की पवित्रता आज लुप्त है। यह तो बस दैहिक वासनाओं की तृप्ति का पर्याय है। वासनाओं में डूबे हुए लोग स्वयं को प्रेम पुजारी मानते हैं। कथाएँ प्यार की कही जाती हैं-कर्म नफरत भरे किये जाते हैं। भावनाओं में घुली वासनाओं की इस कालिख ने लगभग सभी की अंतर्चेतना को ग्रंथियों से भर दिया है। सभी अर्थ खो गये हैं, बस अनर्थ ही अनर्थ है।’’
    
‘‘भगवती गायत्री कल्याण करेंगी ब्रह्मर्षि! जगन्माता अपनी संतानों को सम्हालेंगी अवश्य। हाँ! यह सच है कि अभी स्थिति विकट है।’’ देवर्षि ने ब्रह्मर्षि को उत्तर देने के साथ ही सभी को समझाते हुए कहा- ‘‘भक्ति के बिना वासनाओं का भावनाओं में परिवर्तन सम्भव नहीं। माँ गायत्री भी भक्ति का अर्घ्य चढ़ाने पर ही वरदायी होती हैं। गायत्री के चौबीस अक्षरों में समायी चौबीस महाशक्तियाँ भक्ति से ही जाग्रत होती हैं।’’ देवर्षि के इस कथन पर ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने अपनी सहमति प्रदान की। महर्षि पुलह एवं क्रतु ने भी उनका अनुमोदन करते हुए कहा- ‘‘देवर्षि आप भक्ति तत्त्व की व्याख्या करें। इस तत्त्व का मर्मज्ञ भला आपसे अधिक और कौन हो सकता है। जिस तरह से ब्रह्मर्षि विश्वामित्र गायत्री महाविद्या के आचार्य हैं, ठीक उसी भाँति आप भक्ति के आचार्य हैं। मानव कल्याण के लिए आज दोनों का सुखमय संयोग आवश्यक है।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४)

👉 मान्यताओं पर निर्भर निष्कर्ष

हमारा बुद्धि संस्थान केवल अपेक्षाकृत स्तर की जानकारियां दे सकने में ही समर्थ हैं। इतने से ही यदि सन्तोष होता हो तो यह कहा जा सकता है कि हम जो जानते या मानते हैं वह सत्य है। किन्तु अपनी मान्यताओं को ही यदि नितान्त सत्य की कसौटी पर कसने लगें तो प्रतीत होगा कि यह बुद्धि संस्थान ही बेतरह भ्रम ग्रसित हो रहा है फिर उसके सहारे नितान्त सत्य को कैसे प्राप्त किया जाय? यह एक ऐसा विकट प्रश्न है जो सुलझाये नहीं सुलझता।

वजन जिसके आधार पर वस्तुओं का विनिमय चल रहा है एक मान्यता प्राप्त तथ्य है। वजन के बिना व्यापार नहीं चल सकता। पर वजन सम्बन्धी हमारी मान्यताएं क्या सर्वथा सत्य हैं? इस पर विचार करते हैं तो पैरों तले से जमीन खिसकने लगती है। वजन का अपना कोई अस्तित्व नहीं। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का जितना प्रभाव जिस वस्तु पर पड़ रहा है उसे रोकने के लिए जितनी शक्ति लगानी पड़ेगी वही उसका वजन होता। तराजू बाटों के आधार पर हमें इसी बात का पता चलता है और उसी जानकारी को वजन मानते हैं, पर यह वजन तो घटता-बढ़ता रहता है। पृथ्वी पर जो वस्तु एक मन भारी है वह साड़े तीन मील ऊपर आकाश में उठ जाने पर आधी अर्थात् बीस सेर रह जायगी। इससे ऊपर उठने पर वह और हलकी होती चली जायगी। पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच एक जगह ऐसी आती है जहां पहुंचने पर उस वस्तु का वजन कुछ भी नहीं रहेगा। वहां अमर एक विशाल पर्वत भी रख दिया जाय तो वह बिना वजन का होने के कारण जहां का तहां लटका रहेगा। अन्य ग्रहों की गुरुता और आकर्षण शक्ति भिन्न है वहां पहुंचने पर अपनी पृथ्वी का भार माप सर्वथा अमान्य ठहराया जाय। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि वजन सापेक्ष है। किसी पूर्वमान्यता, स्थिति या तुलना के आधार पर ही उसका निर्धारण हो सकता है।

लोक व्यवहार की दूसरी इकाई है ‘गति’। वजन की तरह ही उसका भी महत्व है। गति ज्ञान के आधार पर ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने के विभिन्न साधनों का मूल्यांकन होता है, पर देखना यह है कि ‘गति’ के सम्बन्ध में हमारे निर्धारण नितान्त सत्य की कसौटी पर खरे उतरते हैं या नहीं।

हम अपना कुर्सी पर बैठे लिख रहे हैं और जानते हैं कि स्थिर हैं। पर वस्तुतः एक हजार प्रति घण्टा की चाल से हम एक दिशा में उड़ते चले जा रहे हैं। पृथ्वी की यही चाल है। पृथ्वी पर बैठे होने के कारण हम उसी चाल से उड़ने के लिए विवश हैं। यद्यपि यह तथ्य हमारी इन्द्रियजन्य जानकारी की पकड़ में नहीं आता और निरन्तर स्थ्रिता प्रतीत होती है। पैरों से या सवारी से जितना चला जाता है, उसी को गति मानते हैं।

पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, इसलिए इस क्षण जहां हैं वहां वापिस 24 घण्टे बाद हो आ सकेंगे। पर यह सोचना भी व्यर्थ है क्योंकि पृथ्वी 666000 मील प्रति घण्टा की चाल से सूर्य की परिक्रमा के लिए दौड़ी जा रही है। वह आकाश में जिस जगह है वहां लौटकर एक वर्ष बाद ही आ सकती है किन्तु यह मानना भी मिथ्या है क्योंकि सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है और पृथ्वी समेत अपने सौर परिवार के समस्त ग्रह उपग्रहों को लेकर और भी तीव्र गति से दौड़ता चला जा रहा है और वह महासूर्य अन्य किसी अति सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। यह सिलसिला न जाने कितनी असंख्य कड़ियों में जुड़ा होगा। अस्तु एक शब्द में यों कह सकते हैं कि जिस जगह आज हम हैं कम से कम इस जन्म में तो वहां फिर कभी लौटकर आ ही नहीं सकते। अपना आकाश छूटा तो सदा सर्वदा के लिए छूटेगा। इतने पर भी समझते यही रहते हैं कि जहां थे उसी क्षेत्र, देश या आकाश के नीचे कहीं जन्म भर बने रहेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६

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