मंगलवार, 18 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य

जिनकी अन्तर्चेतना में शिष्यत्व जन्म ले चुका है, उन्हें महर्षि पतंजलि समाधिपाद के दूसरे सूत्र में योग के सत्य को समझाते हैं। इस दूसरे सूत्र में महर्षि कहते हैं-
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥ १/२॥
  
यही योग की मूलभूत एवं मौलिक परिभाषा है। इस सूत्र के शब्दों का अर्थ है- योगः= योग, चित्तवृत्तिनिरोधः= चित्त की वृत्तियों को रोकना (है)। लेकिन साधकों की दृष्टि में इस सूत्र का अर्थ है- योग मन की समाप्ति है। परम पूज्य गुरुदेव योग साधना के इस सत्य को समझाते हुए कहा करते थे- ‘साधक का मन मिटे, तो उसे योग की सच्चाई समझ में आए।’ महर्षि पतंजलि एवं गुरुदेव दोनों ही खरे वैज्ञानिक हैं, एकदम गणितज्ञ। वे इधर-उधर की बातें करके न अपना समय खराब करते हैं और न ही साधकों का।
  
उन्होंने पहले भी प्रथम सूत्र में एक वाक्य कहा था- ‘अब योग का अनुशासन’- और बस बात समाप्त। इस एक वाक्य में उन्होंने परख लिया कि साधकों में सच्चाई कितनी है, उनमें खरापन कितना है। यदि वे सच्चे और खरे हैं, योग में उनकी सचमुच में रुचि है- आशा, अभिलाषा के रूप में नहीं, अनुशासन के रूप में, जीवन के रूपान्तरण के रूप में, अभी और यहाँ। ऐसे खरे और सच्चे साधकों को वे योग की परिभाषा देते हैं, योग मन की समाप्ति है। मन मिटे, तो बात बने।
  
यही योग की परिभाषा है, सही और सटीक। अलग-अलग आचार्यों ने, शास्त्रों ने योग को कई तरह से परिभाषित किया है। उन्होंने अनेकों परिभाषाएँ ढूँढी और बतायी हैं। कुछ का मत है—योग दिव्य सत्ता के साथ मिलन है। इनके अनुसार योग का मतलब ही मिलना, दो का जुड़ना। कई कहते हैं—योग का मतलब है—अहंकार का ढह जाना। उनके अनुसार अहंकार बीच में दीवार है, जिस क्षण यह दीवार ढह जाती है, साधक दिव्य सत्ता से जुड़ जाता है। दरअसल यह जुड़ाव, तो पहले से ही था वह अहंकार के कारण भेद लगता रहा।
  
ऐसी और भी अनेकों व्याख्याएँ हैं, परिभाषाएँ हैं। जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में ‘समत्वं योग उच्यते’ तथा ‘योगः कर्मसुकौशलम्’ कहकर योग को परिभाषित किया गया है, लेकिन महर्षि पतंजलि इन सभी आचार्यों-शास्त्रकारों से कहीं ज्यादा वैज्ञानिक हैं। वे पत्ते और टहनियाँ नहीं, सीधे जड़ पकड़ते हैं। गीता में बतायी गयी समता एवं कर्मकुशलता मिलेगी कैसे? दिव्य सत्ता से साधक के अस्तित्व का जुड़ाव होगा किस तरह? महर्षि पतंजलि की परिभाषा में इन सभी सवालों का सटीक जवाब है। वे कहते हैं, जब मन का अवसान हो जाएगा, जब मन मिट जाएगा। उनके अनुसार योग अ-मन की दशा है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 मानसिक स्वच्छता का महत्व

काश, मनुष्य मन की स्वच्छता का महत्व समझ पाया होता तो उसका जीवन कितने आनंद और उल्लास के साथ व्यतीत हुआ होता दूसरों की श्रेष्ठता को देखने वाली, उसमें अच्छाइयाँ तलाश करने वाली यदि अपनी प्रेम−दृष्टि जग पड़े तो बुरे लोगों में भी बहुत कुछ आनन्ददायक, बहुत कुछ अच्छा, बहुत कुछ अनुकरणीय हमें दीख पड़े। दत्तात्रेय ऋषि ने जब अपनी दोष−दृष्टि त्याग कर श्रेष्ठता ढूँढ़ने वाली वृत्ति जागृत कर ली तो उन्हें चील, कौए, कुत्ते, मकड़ी, मछली जैसे तुच्छ प्राणी भी गुणों के भाण्डागार दीख पड़े और वे ऐसे ही तुच्छ जीवों को अपना गुरु बनाते गये, उनसे बहुत कुछ सीखते गये।

हम चाहें तो चोरों से भी सावधानी, सतर्कता, साहस, लगन, ढूँढ़ खोज जैसे अनेक गुणों को सीख सकते हैं। इस दृष्टि से वे हम से कहीं अधिक आगे होते हैं। पाप की उपेक्षा कर पुण्य को और अशुभ की उपेक्षा कर शुभ को तलाश करने का हमारा स्वभाव यदि बन जाय तो इस संसार में हमें सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर चमकता नजर आवे। उसकी इस पुण्य कृति में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द झरता दीखने लगे। सारी दुनियाँ हमारे लिए उपकार, सहयोग, स्नेह और सद्भावना का उपहार लिए खड़ी है, पर हम उसे देख कहाँ पाते हैं। मन की मलीनता तो हमें केवल दुर्गन्ध सूँघने और गंदगी और ढूँढ़ने के लिए ही विवश किये रहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 ‘Balamupaswa’ – Worship Power

If there is any misery in your life, it is due to some weakness within you. Physical infirmity causes diseases, mental weakness gives rise to worries and if the intellectual abilities are poor, then it is certain that you are tied up in the bonds of slavery – you are searching for help of others for your progress. The communities, which are not united culturally, socially or nationally, are tortured by external attacks. Whatever it is, it is our own weakness of some kind or the other that is responsible for our misery. Therefore weakness is a sin. The Nature does not permit the weak and sinful to live with dignity and honour.

There is no dearth of resources in this world. Wealth and prosperity are available in plenty. One does not have to wander here and there to acquire material pleasures. But there is only one condition – Do you possess the requisite power to acquire and use them? If you are weak, then whatever wealth-resources you possess are also going to be snatched away. That is why Shruti says – ‘Balamupaswa’ – meaning ‘Worship Power’. Sins flourish in the absence of protective power. Therefore, if you are not powerful, then you are also responsible for the increase of sins even if you are a devotee of the Lord.

Whether you wish to benefit yourself or the society, power (Shakti – Balam) is essential. Therefore, first of all, acquire power. Then only will you be able to augment and protect your peace and prosperity and also help the needy.

~Samarth Guru Ramadas

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