सोमवार, 26 अगस्त 2019

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ५५)

👉 प्रत्येक कर्म बनें भगवान की प्रार्थना

व्यावहारिक जीवन का पल हमारे स्थूल शरीर का तल है। वैचारिक प्रगाढ़ता हमें सूक्ष्म चेतना की अनुभूति देती है। भावनात्मक एकाग्रता में हम कारण शरीर में जीते हैं। यहाँ हम जितना अधिक स्थिर एकाग्र होते हैं, उतना ही अधिक भावनात्मक ऊर्जा इकट्ठा होती है। हमारी श्रद्धा की परम सघनता में यह स्थिति अपने सर्वोच्च बिन्दु पर होती है। कारण शरीर के इस सर्वोच्च शिखर अथवा अपने अस्तित्त्व की चेतना के इस महाकेन्द्र में हम परम कारण को यानि कि स्वयं प्रभु का स्पर्श पाते हैं। हमारी श्रद्धा की सघनता में हुआ भावनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हमें सर्वेश्वर की सर्वव्यापी चेतना से एकाकार कर देता है। इस स्थिति में हमारे जीवन में उन प्रभु का असीम ऊर्जा प्रवाह उमड़ता चला आता है। और फिर उनकी अनन्त शक्ति के संयोग से हमारे जीवन में सभी असम्भव सम्भव होने लगते हैं।

परन्तु विपत्ति के बादल छंटते ही हम पुनः अपने जीवन की क्षुद्रताओं में रस लेने लगते हैं। फिर से विषय- भोग हमें लुभाते हैं। लालसाओं की लोलुपता हमें ललचाती है। और हम अपनी भावचेतना के सर्वोच्च शिखर से पतित हो जाते हैं। प्रार्थना ने जो हमें उपलब्ध कराया था, वह फिर से खोने लगता है। हम सबके सामान्य जीवन का यही सच है। लेकिन सन्त या भक्त, जिनके भोगों की, लालसाओं की कोई चाहत नहीं है, वे हर पल प्रार्थना में जीते हैं उनकी भाव चेतना सदा उस स्थिति में होती है, जहाँ वह सर्वव्यापी परमेश्वर के सम्पर्क में रह सके। यही वजह है कि उनकी प्रार्थनाएँ कभी भी निष्फल नहीं होती हैं। प्रत्येक असम्भव उनके लिए हमेशा सदा सम्भव होता है। वे जिसके लिए भी अपने प्रभु से प्रार्थना करते हैं, उसी का परम कल्याण होता है।

यही कारण है कि प्रार्थनाशीलमनुष्य आध्यात्मिक चिकित्सक होकर इस संसार में जीवन जीते हैं। हमने परम पूज्य गुरुदेव को इसी रूप में देखा और उनकी कृपा को अनुभव किया है। उन्होंने अपने जीवन की हर श्वास को प्रभु प्रार्थना बना लिया था। एक दिन जब वह बैठे थे, उनके श्री चरणों के पास हम सब भी थे। चर्चा साधना की चली तो उन्होंने कहा कि बेटा सारा योग, जप, ध्यान एक तरफ और प्रार्थना एक तरफ। प्रार्थना इन सभी से बढ़- चढ़कर है। इतना कहकर उन्होंने अपनी अनुभूति बताते हुए कहा- मैंने तो अपने प्रत्येक कर्म को भगवान् की प्रार्थना बना लिया है। बेटा यदि कोई तुमसे मेरे जीवन का रहस्य जानना चाहे तो उसे बताना, हमारे गुरुजी का प्रत्येक कर्म, उनके शरीर द्वारा की जाने वाली भगवान् की प्रार्थना था। उनके मन का चिन्तन मन से उभरने वाले प्रभु प्रार्थना के स्वर थे। उनकी भावना का हर स्पन्दन भावों से प्रभु पुकार ही थे। हमारे गुरुदेव का जीवन प्रार्थनामय जीवन था। इसलिए वे अपने भगवान् के साथ सदा घुल- मिलकर जीते थे। मीरा के कृष्ण की तरह उनके भगवान् उनके साथ, उनके आस- पास ही रहते थे। वे अपने भगवान् का कहा मानते थे, और भगवान् हमेशा उनका कहा करते थे।

यह कथन उनका है, जिन्हें हमने अपना प्रभु माना है। इस प्रार्थनामय जीवन के कारण ही उन्होंने असंख्य लोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा की। एक बार उनके पास एक युवक आया। उसकी चिन्ता यह थी कि उसके पिता को कैंसर हो गया था। ज्यों ही उसने अपनी समस्या गुरुदेव को बतायी, वह बोले, बस बेटा, इतनी सी बात तू माँ से प्रार्थना कर। मैं भी तेरे लिए प्रार्थना करूँगा। डाक्टरों के लिए कोई चीज असम्भव हो सकती है। पर जगन्माता के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और सचमुच ही उस युवक ने उनकी बात को गांठ बांध लिया। थोड़े दिनों बाद जब वह पुनः उनसे मिला तो उसने बताया कि सही में मां ने उसकी प्रार्थना सुनी ली। उसके पिता अब ठीक हैं। गुरुदेव कहते थे कि प्रार्थना करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अमुक काम असम्भव है। भला यह कैसे होगा? बल्कि यह सोचना चाहिए भगवान् प्रत्येक असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। प्रार्थना की इस प्रगाढ़ता एवं निरन्तरता में ध्यान के प्रयोगों की सफलता समायी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ७७

👉 ‘युगसेना’ का गठन

दुष्टता की दुष्प्रवृत्तियाँ कई बार इतनी भयावह होती है कि उनका उन्मूलन करने के लिये संघर्ष के बिना काम ही नहीं चल सकता। रूढ़िवादी, प्रतिक्रिया वादी, दुराग्रही मूढ़मति अहंकारी, उद्दण्ड निहित स्वार्थ ओर असामाजिक तत्व विचारशीलता और न्याय की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते। वे सुधार और सदुद्देश्य को अपनाना तो दूर और उलटे प्रगति के पथ पर पग-पग पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसी पशुता और पैशाचिकता से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से निपटने के लिये प्रतिरोध और संघर्ष अनिवार्य रूप से आवश्यक है। हिन्दू-समाज में अन्ध परम्पराओं का बोलबाला है। जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच, स्त्रियों पर अमानवीय प्रतिरोध, बेईमानी और गरीबी के लिये विवश करने वाला विवाहोन्माद मृत्यु-भोज, धर्म के नाम पर लोक-श्रद्धा का शोषण, आदि ऐसे अनेक कारण है जिनने देश की आर्थिक बर्बादी और तज्जनित असंख्य विकृतियों को जन्म दिया है।

बेईमानी, मिलावट, रिश्वत और भ्रष्टाचार का हर जगह बोलबाला है, सामूहिक प्रतिरोध के अभाव में गुण्डात्मक दिन-दिन प्रबल होता जा रहा है और अपराधों की प्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी पनप रही है। शासक और नेता जो करतूतें कर रहे है उनसे धरती पाँवों तले निकलती है। यह सब केवल प्रस्तावों और प्रवचनों से मिलने वाला नहीं है। जिनकी दाढ़ में खून लग गया है या जिनका अहंकार आसमान छूने लगा है वे सहज ही अपनी गतिविधियाँ बदलने वाले नहीं है। उन्हें संघर्षात्मक प्रक्रिया द्वारा इस बाते के लिये विवश किया जायेगा कि वे टेढ़ापन छोड़ें और सीधे रास्ते चलें। इसके लिये हमारे दिमाग में गाँधीजी के सत्याग्रह, मजदूरों के घिराव, चीनी कम्युनिस्टों की साँस्कृतिक क्रान्ति के कडुए मीठे अनुभवों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी समग्र योजना है जिससे अराजकता भी न फैले और अवाँछनीय तत्वों को बदलने के लिये विवश किया जा सके।

उसके लिए जहाँ स्थानीय, व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों के क्रम चलेंगे वहाँ स्वयं सेवकों की एक विशाल ‘युगसेना’ का गठन भी करना पड़ेगा जो बड़े से बड़ा त्याग बलिदान करके अनौचित्य से करारी टक्कर ले सकें। भावी महाभारत इसी प्रकार का होगा वह सेनाओं से नहीं -- महामानवों लोकसेवियों और युगनिर्माताओं द्वारा लड़ा जायेगा। सतयुग लाने से पूर्व ऐसा महाभारत अनिवार्य है। अवतारों की शृंखला-सृजन के साथ-साथ संघर्ष की योजना भी सदा साथ लाई है। युग-निर्माण की लाल मशाल का निष्कलंक अवतार अगल दिनों इसी भूमिका का सम्पादन करें तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ६१



http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.61

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