बुधवार, 7 अगस्त 2024

👉 मानसिक आरोग्य का आधार

शरीर रोगी होने से देह दुख पाती है; मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण नरक की आग में झुलसता रहता है। कई व्यक्ति देह से तो निरोग दीखते हैं पर भीतर ही भीतर इतने अशान्त और उद्विग्न रहते हैं कि उनका कष्ट रोगग्रस्तों से भी कहीं अधिक दिखाई पड़ता है। ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जो लोग जलते रहते हैं उन्हें आग से जलने पर छाले पड़े हुए रोगी की अपेक्षा अधिक अशान्ति और उद्विग्नता रहती है। घाटा, अपमान, भय, आशंका, चिन्ता, शोक, असफलता, निराशा आदि कारणों से खिन्न बने हुए मन में इतनी गहरी व्यथा होती है कि उससे छूटने के लिए कई तो आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं और कइयों से उसी उद्वेग में ऐसे कुकृत्य बन पड़ते हैं जिनके लिए उन्हें जीवन भर पश्चात्ताप करना पड़ता है। ओछी तबियत के कुछ आदमी हर किसी को बुरा समझने, हर किसी में बुराई ढूँढ़ने के आदी होते हैं, उन्हें बुराई के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी-दीख नहीं पड़ता। ऐसे लोगों को यह दुनिया काली डरावनी रात की तरह और हर आदमी प्रेत-पिशाच की तरह भयंकर आकृति धारण किये चलता-फिरता नजर आता है। इस प्रकार की मनोभूमि के लोगों की दयनीय दशा का अनुमान लगाने में भी व्यथा होती है।

क्रूर, निर्दयी, अहंकारी, उद्दंड, दस्यु, तस्कर, ढीठ, अशिष्ट, गुंडा प्रकृति के लोगों के शिर पर एक प्रकार का शैतान हर घड़ी चढ़ा रहता है। नशे में मदहोश उन्मत्त की तरह उनकी वाणी, क्रिया एवं चेष्टाएँ होती हैं। कुछ भी आततायीपन वे कर गुजर सकते हैं। तिल को ताड़ समझ सकते हैं, खटका मात्र सुनकर क्रुद्ध विषधर सर्प की तरह वे किसी पर भी हमला कर सकते हैं। ऐसी पैशाचिक मनोभूमि के लोगों के भीतर श्मशान जैसी प्रतिहिंसा और दर्प की आग जलती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 जीवन ईश्वर का स्वरूप एवं वरदान

जीवन ईश्वर है या ईश्वर जीवन, इस प्रश्न पर ताओ धर्म के दार्शनिक बहुत समय तक विचार करते रहे और अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जीवन मनुष्य के लिए ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है। इसकी गरिमा इतनी बड़ी है जितनी इस संसार में अन्य किसी सत्ता की नहीं। इसलिए उसे ईश्वर के समतुल्य माना जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
ईश्वर की झाँकी जीवन सत्ता की संरचना और संभावना को देखकर की जा सकती है। यदि उसकी ठीक तरह उपासना की जा सके तो वे सभी वरदान उपलब्ध हो सकते हैं जो ईश्वर के अनुग्रह से किसी को कभी मिल सके हैं। यह प्रत्यक्ष देवता है। हमारे इतना समीप है कि मिलन से उत्पन्न असीम आनन्द की अनुभूति अहर्निशि की जा सके।

जीवन का उद्देश्य है, अपने अन्तराल में छिपे दिव्य का, अद्भुत का, सुन्दर का, दर्शन कराना। उस ईश्वरीय जीवन के साथ जोड़ देना जो इस ब्रह्माण्ड की आत्मा है। पूर्ण है और वह सब है जिसमें मानवी कल्पना से भी कहीं अधिक सौन्दर्य का- सुखद का- सागर लहराता है।

ईश्वर को समझना हो तो जीवन को समझो। ईश्वर को पाना हो तो जीवन को प्राप्त करो। हम जीवन रहित जिन्दगी जीते हैं। इससे आगे बढ़ें, गहरे घुसें, निर्मल करें और उस महान अवतरण को प्रतिबिम्बित करें जो प्रेम के रूप में आत्म सत्ता के अन्तराल में आलोक की एक किस्म जैसा विद्यमान है। आत्मा को दिव्य से ओत-प्रोत करने की साधना से ही वह सब प्राप्त हो सकता है, जिसे जीवन का लक्ष्य और वरदान कहा गया है।

सन्त टी. एल. वास्वानी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1978 पृष्ठ 1

👉 भगवान प्रेम स्वरूप हैं। (भाग 1)

🔹 कुछ लोगों की धारणा है कि भगवान ही दंड दिया करते हैं परन्तु वास्तव में भगवान किसी को दंड नहीं देते। मनुष्य स्वयं ही कर्मवश अपने आपको दंड देता है। जब कभी यह कोई बुरा कार्य अपनी इन्द्रियों के वशीभूत होकर बिना विचारे किया करता है तब उसे उसका फल मिला करता है। यदि कार्य बुरा होता है तो फल भी दंड रूप में मिलता है और यदि कर्म अच्छा होता है तो फल यश रूप में प्राप्त होता है।

🔸 भगवान प्रेम स्वरूप है। सारा संसार उन प्रभु की रचित माया ही है। जब भगवान प्रेम स्वरूप हैं तब दंड कैसे दे सकते हैं? भगवान कदापि दंड नहीं देते। विश्व-कल्याण के लिए विश्व का शासन कुछ सनातन नियमों द्वारा होता है जिन्हें हम धर्म का रूप देते हैं तथा धर्म के नाम से पुकारते हैं। धर्म किसे कहते हैं?-”जो धारण करे” यानी जिसके धारण करने से किसी वस्तु का अस्तित्व बना रहे वही धर्म है।

🔹 अग्नि का धर्म प्रकाश व उष्णता देना है। परन्तु यदि वह प्रकाश व उष्णता नहीं दे तो वह तो राख अथवा कोयले का ढेर मात्र ही रह सकता है क्योंकि वह अपने को छोड़ चुकी है। ठीक यही दशा मानव की है। वह भी धर्म रजु द्वारा बंधा रहता है। जब कभी वह अपना धर्म त्यागता है उसे अवश्य ही हानि उठानी पड़ती है और वह दंड विधान बन कर उसे आगाह करती है। मनुष्य मार्ग की मानवता का आधार धर्म ही है। जब जानबूझकर अथवा असावधानी वश सनातन नियमों का उल्लंघन किया जाता है। तब अवश्य ही दंड का भागी बनना पड़ता है। भगवान को व्यर्थ ही दोषी ठहराना अनुचित है।

> 👉 अध्यात्म के सूत्र | Adhyatam Ke Sutra | Dr Chinmay Pandya* 

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🔸 भगवान कल्याणमय हैं तथा उनके नियम भी कल्याणमय हैं। जब उन नियमों का उचित प्रकार पालन नहीं किया जाता तब ही दंड चेतावनी के रूप में मिला करते हैं परन्तु मूर्खता व अज्ञानवश मनुष्य इतने पर भी नहीं संभलता और एक के बाद दूसरा नियम भी खंडित करता जाता है।

*.....क्रमशः जारी
*परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी* 

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 Aug 2024

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