शुक्रवार, 14 सितंबर 2018
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 11)
👉 असमंजस की स्थिति और समाधान
🔷 इस असमंजस में एक और नई कठिनाई सामने है कि पुरातन की साक्षी को ध्यान में रखकर यदि जीवनचर्या और लोक व्यवहार को अध्यात्म तत्त्वज्ञान के स्तर पर विनिर्मित करने की बात सोची जाए तो यहाँ भी भारी विडम्बना सामने खड़ी होती है। प्रचलित अध्यात्म सिद्धान्तों और प्रचलनों में भी विकृतियों का, इतना अधिक अवांछनीयता का अनुपात घुस पड़ा है कि कसौटी पर कसते ही वह भी खोटे सिक्के की तरह अप्रामाणिक ही सिद्ध होते हैं।
🔶 लाखों सन्त-साधु लाखों भजनानन्दी, लाखों कर्मकाण्डी, पूजा व्यवसाई जिस स्थिति में रह रहे हैं, उनके स्तर को उलट-पुलट कर जाँचने से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ शेष बच नहीं रहा है। किसी जमाने में थोड़े-से सन्त न केवल भारत को वरन् समस्त विश्ववसुधा को हर दृष्टि से समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाए रखने में समर्थ हुए थे, पर अब तो उनकी संख्या हजारों-लाखों गुनी हो गई है। इतने पर भी विश्वकल्याण की, भारतभूमि की गरिमा को बनाए रखने की बात तो दूर स्वयं के व्यक्तित्व को भी इतना गया-गुजरा बना बैठे हैं कि सहज विश्वास नहीं होता कि इस प्रयोजन में भी कुछ उत्कृष्टता एवं विशिष्टता शेष रह गई है।
🔷 कुछ दिन पूर्व गाँधी, बुद्ध जैसी कुछ ही प्रतिभाएँ प्रकट हुई थीं और अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से संसार भर में आस्था, उत्साह और उल्लास की एक नई लहर चला सकने में समर्थ हुई थी; पर अब तो उनकी गणना आश्चर्यजनक गति से बढ़ जाने पर भी वातावरण को परिष्कृत करना तो दूर अपने आपको भी प्रामाणिक एवं प्रतिभावान बना पाना दीख नहीं पड़ता। इस निरीक्षण-परीक्षण से प्रतीत होता है कि जैसे लांछन भौतिकवाद पर लगाए जाते हैं, उससे भी अधिक प्रस्तुत अध्यात्मवाद पर लगाए जा सकते हैं। लगता है दोनों ही क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की विद्रूपता ने आधिपत्य जमा लिया है। धर्म के नाम पर जितनी विडम्बनाएँ चलती हैं, उन्हें देखते हुए उसे भी अपनाने योग्य मानने के लिए मन नहीं करता।
🔶 दोनों ही रास्ते अनुपयुक्त दीखने पर प्रश्न यह उठता है कि इनके अतिरिक्त कोई तीसरा विकल्प भी है क्या? आस्तिकता और नास्तिकता के, श्रेष्ठता और निकृष्टता के बीच क्या कोई मध्य मार्ग भी है। वहाँ भी न करने के अतिरिक्त कुछ सूझता नहीं। फिर क्या चुना जाए जबकि जीवन और मरण दोनों ही अनुपयुक्त अविश्वस्त दीखते हैं?
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 14
🔷 इस असमंजस में एक और नई कठिनाई सामने है कि पुरातन की साक्षी को ध्यान में रखकर यदि जीवनचर्या और लोक व्यवहार को अध्यात्म तत्त्वज्ञान के स्तर पर विनिर्मित करने की बात सोची जाए तो यहाँ भी भारी विडम्बना सामने खड़ी होती है। प्रचलित अध्यात्म सिद्धान्तों और प्रचलनों में भी विकृतियों का, इतना अधिक अवांछनीयता का अनुपात घुस पड़ा है कि कसौटी पर कसते ही वह भी खोटे सिक्के की तरह अप्रामाणिक ही सिद्ध होते हैं।
🔶 लाखों सन्त-साधु लाखों भजनानन्दी, लाखों कर्मकाण्डी, पूजा व्यवसाई जिस स्थिति में रह रहे हैं, उनके स्तर को उलट-पुलट कर जाँचने से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ शेष बच नहीं रहा है। किसी जमाने में थोड़े-से सन्त न केवल भारत को वरन् समस्त विश्ववसुधा को हर दृष्टि से समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाए रखने में समर्थ हुए थे, पर अब तो उनकी संख्या हजारों-लाखों गुनी हो गई है। इतने पर भी विश्वकल्याण की, भारतभूमि की गरिमा को बनाए रखने की बात तो दूर स्वयं के व्यक्तित्व को भी इतना गया-गुजरा बना बैठे हैं कि सहज विश्वास नहीं होता कि इस प्रयोजन में भी कुछ उत्कृष्टता एवं विशिष्टता शेष रह गई है।
🔷 कुछ दिन पूर्व गाँधी, बुद्ध जैसी कुछ ही प्रतिभाएँ प्रकट हुई थीं और अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से संसार भर में आस्था, उत्साह और उल्लास की एक नई लहर चला सकने में समर्थ हुई थी; पर अब तो उनकी गणना आश्चर्यजनक गति से बढ़ जाने पर भी वातावरण को परिष्कृत करना तो दूर अपने आपको भी प्रामाणिक एवं प्रतिभावान बना पाना दीख नहीं पड़ता। इस निरीक्षण-परीक्षण से प्रतीत होता है कि जैसे लांछन भौतिकवाद पर लगाए जाते हैं, उससे भी अधिक प्रस्तुत अध्यात्मवाद पर लगाए जा सकते हैं। लगता है दोनों ही क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की विद्रूपता ने आधिपत्य जमा लिया है। धर्म के नाम पर जितनी विडम्बनाएँ चलती हैं, उन्हें देखते हुए उसे भी अपनाने योग्य मानने के लिए मन नहीं करता।
🔶 दोनों ही रास्ते अनुपयुक्त दीखने पर प्रश्न यह उठता है कि इनके अतिरिक्त कोई तीसरा विकल्प भी है क्या? आस्तिकता और नास्तिकता के, श्रेष्ठता और निकृष्टता के बीच क्या कोई मध्य मार्ग भी है। वहाँ भी न करने के अतिरिक्त कुछ सूझता नहीं। फिर क्या चुना जाए जबकि जीवन और मरण दोनों ही अनुपयुक्त अविश्वस्त दीखते हैं?
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 14
👉 Living The Simple Life
🔷 How good it is to eat fruit tasty and ripe from the tree and vegetables fresh and crisp from the field. And how good it would be for the farming of the future to concentrate on the non-use of poisonous substances, such as sprays, so food would be fit to go from farm to table.
🔶 One morning for breakfast I had blueberries covered with dew, picking them from the bushes as I journeyed through the New England Mountains. I thought of my fellow human beings eating various kinds of processed and flavored foods, and I realized that if I could choose my breakfast from all the foods in the world I could not make a better choice than blueberries covered with dew.
🔷 In the spring and summer when the days are long, how good it is to get up with the sun and go to bed with the sun. In the fall and winter when the days are shorter you can enjoy some of the night. I am inclined to agree that there is a substance in the air, left there by the sun, which diminishes after the sun goes down and can be absorbed only while you sleep. Sleeping from nine to five is about right for me.
To be continued...
🔶 One morning for breakfast I had blueberries covered with dew, picking them from the bushes as I journeyed through the New England Mountains. I thought of my fellow human beings eating various kinds of processed and flavored foods, and I realized that if I could choose my breakfast from all the foods in the world I could not make a better choice than blueberries covered with dew.
🔷 In the spring and summer when the days are long, how good it is to get up with the sun and go to bed with the sun. In the fall and winter when the days are shorter you can enjoy some of the night. I am inclined to agree that there is a substance in the air, left there by the sun, which diminishes after the sun goes down and can be absorbed only while you sleep. Sleeping from nine to five is about right for me.
To be continued...
👉 मन को उद्विग्न न कीजिए (भाग 4)
🔷 अपने जीवन में सहिष्णुता का अभ्यास करें। कोई तीखे वचन भी कहे, तो भी अपने आपको सम्भालें, क्रोध को, उत्तेजना को शान्ति से शीतल कर दें। वासना की आँधियों को शान्ति से निकल जाने दें। यदि चरित्र में कोई व्यसन−मद्यपान सिगरेट अपव्यय की आदत−आ गई है तो उसे त्यागने में सहिष्णुता प्रदर्शित करें।
🔶 यह संसार कष्ट, अभाव, दुःख, खतरों, चोट, पीड़ा और रोग से मिल कर बना है। हममें से प्रत्येक को इन कड़वी चीजों का हिस्सा मिलना है। कायर डर कर इनसे भाग निकलते हैं, जबकि सहिष्णु साहस से इन पर विजय प्राप्त करते हैं। आप निश्चय ही सहिष्णु हैं। वीरता से कष्टों और अभावों से लड़ सकते हैं। मन में ऐसी धारणा शक्ति बढ़ाइए कि आप आसानी से अस्त व्यस्त न हो सकें। मानसिक सन्तुलन बना रहे।
🔷 जब आप मन में ठण्डक और चित्त को शान्त रखते हैं, तो विवेक सर्वोत्कृष्ट रूप में कार्य करता है। हमें नए नए उपयोगी विचार प्राप्त हो जाते हैं। जो जरा जरासी बात में उखड़ता या लड़ता झगड़ता रहता है, क्रोधित होकर मन को उत्तेजित करता है, वह एक प्रकार के पागलपन में पड़ा रहता है। ऐसे उत्तेजक स्वभाव पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
🔶 सन्तोष वृत्ति मन को सन्तुलित रखने में सहायक दैवी वृत्ति है। लोभ के कारण प्रायः मन का सन्तुलन अस्थिर रहता है। लोभ हृदय में सुलगने वाली एक ऐसी अग्नि है जो मनुष्य का क्षय कर डालती है। लोभ को मारने की दवाई सन्तोषवृत्ति है। लोभ की अग्नि से दग्ध व्यक्ति संतोष गंगा में स्नान कर शीतलता का अनुभव करता है। मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय हैं—शान्ति, सन्तोष, सत्संग और विचार। इनमें संतोष सबसे शक्तिशाली दैवी सम्पदा है। यदि किसी प्रकार सन्तोष वृत्ति को धारण करलें तो शान्ति, सत्संग और विचार स्वयं आ सकते हैं।
🔶 मन बड़ा चंचल होता है। एक इच्छा पूर्ण हुई तो दूसरी पर कूदता है, फिर तीसरी को पकड़ता है। यह चंचलता−अस्थिरता कम्पन संयम और संतोष से काबू में आ जाते हैं। राजयोग के अंतर्गत संतोष एक महत्वपूर्ण नियम है। सुकरात ने इसका वर्णन बड़े ऊंचे रूप में किया है। संतोष से मन की शान्ति एवं संतुलन स्थिर रहता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 13
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.13
🔶 यह संसार कष्ट, अभाव, दुःख, खतरों, चोट, पीड़ा और रोग से मिल कर बना है। हममें से प्रत्येक को इन कड़वी चीजों का हिस्सा मिलना है। कायर डर कर इनसे भाग निकलते हैं, जबकि सहिष्णु साहस से इन पर विजय प्राप्त करते हैं। आप निश्चय ही सहिष्णु हैं। वीरता से कष्टों और अभावों से लड़ सकते हैं। मन में ऐसी धारणा शक्ति बढ़ाइए कि आप आसानी से अस्त व्यस्त न हो सकें। मानसिक सन्तुलन बना रहे।
🔷 जब आप मन में ठण्डक और चित्त को शान्त रखते हैं, तो विवेक सर्वोत्कृष्ट रूप में कार्य करता है। हमें नए नए उपयोगी विचार प्राप्त हो जाते हैं। जो जरा जरासी बात में उखड़ता या लड़ता झगड़ता रहता है, क्रोधित होकर मन को उत्तेजित करता है, वह एक प्रकार के पागलपन में पड़ा रहता है। ऐसे उत्तेजक स्वभाव पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
🔶 सन्तोष वृत्ति मन को सन्तुलित रखने में सहायक दैवी वृत्ति है। लोभ के कारण प्रायः मन का सन्तुलन अस्थिर रहता है। लोभ हृदय में सुलगने वाली एक ऐसी अग्नि है जो मनुष्य का क्षय कर डालती है। लोभ को मारने की दवाई सन्तोषवृत्ति है। लोभ की अग्नि से दग्ध व्यक्ति संतोष गंगा में स्नान कर शीतलता का अनुभव करता है। मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय हैं—शान्ति, सन्तोष, सत्संग और विचार। इनमें संतोष सबसे शक्तिशाली दैवी सम्पदा है। यदि किसी प्रकार सन्तोष वृत्ति को धारण करलें तो शान्ति, सत्संग और विचार स्वयं आ सकते हैं।
🔶 मन बड़ा चंचल होता है। एक इच्छा पूर्ण हुई तो दूसरी पर कूदता है, फिर तीसरी को पकड़ता है। यह चंचलता−अस्थिरता कम्पन संयम और संतोष से काबू में आ जाते हैं। राजयोग के अंतर्गत संतोष एक महत्वपूर्ण नियम है। सुकरात ने इसका वर्णन बड़े ऊंचे रूप में किया है। संतोष से मन की शान्ति एवं संतुलन स्थिर रहता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 13
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1955/February/v1.13
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