गुरुवार, 30 मई 2019

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 4)

अथर्वण विद्या की चमत्कारी क्षमता

हालांकि वर्ष १९८८ में यह दिव्य ग्रन्थ एक परिजन के हाथों ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के शोधकर्मियों को प्राप्त हुआ था। तब इसको आधार बनाकर ‘वेदों में मानव जीवन का स्वरूप एवं उसकी आध्यात्मिक चिकित्सा के रहस्य’ के शीर्षक से एक शोध कार्य भी कराया गया था। पर इन दिनों शोध कार्य भी संस्थान में नहीं है। परन्तु जो कार्य कराया गया था, उसके आधार पर बड़ी ही प्रामाणित रीति से कहा जा सकता है कि वेद मानव जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा के आदि स्रोत हैं। इनमें केवल देह की पीड़ा को दूर करने की विधियाँ भर नहीं है। बल्कि मानसिक रोगों की निवृत्ति, दरिद्रता निवारण, ब्रह्मवर्चस व स्मरण शक्ति के वर्धन, घर- परिवार की सुख- शान्ति एवं सामाजिक यश, सम्मान में अभिवृद्धि के अनेकों प्रयोग शामिल हैं।

एक लघु आलेख में इन सभी के प्रयोग के विस्तार की व्याख्या तो सम्भव नहीं है। परन्तु एक सामान्य प्रयोग की चर्चा तो की ही जा सकती है। यह चर्चा ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १५५ वें सूक्त के बारे में है। यदि कोई व्यक्ति धनलक्ष्मी से विहीन होकर जीवन यापन कर रहा हो, तो वह इस सूक्त के समस्त पाँचों मंत्रों का नित्य प्रातःकाल स्नान करने के पश्चात् १०१ बार जप करे। इस जप से पहले एवं बाद में गायत्री महामंत्र की एक- एक माला का जप आवश्यक है। वेद में प्रयोग अनेकों एवं विधियाँ असंख्य हैं। महाकाव्य एवं पुराणकाल में इन विधियों एवं प्रयोगों का उल्लेख महाकाव्यों एवं पुराणों में हुआ। वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में जीवन की अनगिनत समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न प्रयोगों की सांकेतिक या विस्तार से चर्चा की गयी है।

आध्यात्मिक चिकित्सा के ये प्रसंग ऐतरेय ब्राह्मण, तैत्तिरीयब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण तथा षडङ्क्षवश ब्राह्मण में भी पर्याप्त मिलते हैं। देवीभागवत पुराण, अग्रिपुराण, नारदादिपुराणों में तो इनकी भरमार है। इस सन्दर्भ में सूत्र ग्रन्थ भी पीछे नहीं हैं। यहाँ भी आध्यात्मिक चिकित्सा से सम्बन्धित अनेकों प्रयोग विधियाँ मिलती हैं। कल्प सूत्र, श्रोतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र एवं शुल्बसूत्र में इस विषय पर इतनी प्रचुर सामग्री है, जिसके आधार पर एक शोधग्रन्थ तैयार किया जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 8

👉 उपासना को समग्र रूप में अपनायें- समुचित लाभ उठायें (अन्तिम भाग)

सामान्यतया हर प्रज्ञा परिजन को युग सन्धि की बेला में अपनी उपासना को नैष्ठिक, नियमित एवं समग्र बना लेना चाहिए। तीन माला का जप, गुरुवार को जिस स्तर का बन पड़े उपवास, ब्रह्मचर्य, महीने में एक बार अग्निहोत्र का न्यूनतम साधना क्रम तो चलाना ही चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने भावना क्षेत्र को उत्कृष्टताओं के समुच्चय परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। भावना, विचारणा और क्रिया- प्रक्रिया में जितनी अधिक उत्कृष्टता आदर्शवादिता का समावेश सम्भव हो सके, उसके लिए उपाय खोजने और प्रयत्न करने में सतत संलग्न रहना चाहिए। भजन कृत्य और तादात्म्य की उभय पक्षीय प्रक्रिया उपासना को समग्र बनाती है और अपना प्रत्यक्ष प्रतिफल हाथों हाथ प्रस्तुत करती है।

युग सन्धि के अगले दिन सृजन और विनाश की सम्भावनाओं से भरे पड़े हैं। ऐसी परिस्थितियों में उपासना विधान की अपनी महत्ता है। नैष्ठिक साधना एवं प्रज्ञा पुरश्चरण इसी निमित्त आरम्भ किए गए प्रारम्भिक उपचार हैं। लेकिन यहीं तक सीमित होकर किसी को नहीं रहना है। जो भी उपासना के माध्यम से आत्मशक्ति अभिवर्द्धन की बात सोचते हैं, उन्हें अपने निजी जीवन का कायाकल्प तो करना ही है। अपने परिकर क्षेत्र को भी उसी रंग में रंगना है। इससे व्यक्तित्व में और निखार आएगा, वह पुण्य लाभ तो मिलेगा ही, जो महाकाल की योजना में भागीदार बनने से किसी को भी मिल सकता है।

इस कार्य के लिए यदि कल्प साधना में सम्मिलित होकर प्रारम्भिक स्थिति जान ली जाय एवं उसमें जो परिशोधन संभावित हो उसे मार्गदर्शकों द्वारा जानकर प्रायश्चित विधान द्वारा अपने अन्तः को परिष्कृत कर लिया जाय तो यह और भी अच्छा है। साधना से ही वह स्थिति बनती है कि मनुष्य परमात्म सत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। बिना साधना के, तप- तितिक्षा के उपासना सम्भव नहीं। साधना कड़ा संयम, आहार की तितिक्षा अपनाकर ही सम्भव है। जो इस प्रारम्भिक सोपान को पूरा कर लेता है। उसके लिए साधना मार्ग में आगे और फिर कोई अवरोध आड़े नहीं आता। साधना उपासना के बाद आराधना पुण्य परमार्थ की बात आती है। ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न साधक बिना परमार्थ के रह नहीं सकता। लोक कल्याण, आराधना, परमार्थ परायणता ये सभी उपासना के उत्तरार्द्ध माने जा सकते हैं। जिसने स्वयं को अनुशासन के शिकंजे में कस लिया, दैवी प्रयोजन में सहभागी बनने योग्य स्वयं को बना लिया वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। ऐसे व्यक्ति ही व्यक्तित्व सम्पन्न बनते, लोक सम्मान व दैवी अनुग्रह पाते हैं।

उपासना अपने समग्र रूप में ही सही कही जा सकती है। साधना, तप, आराधना उसके आवश्यक अंग माने जा सकते हैं। आत्मिक प्रगति का यह अवलम्बन मनुष्य को परमात्म सत्ता के साथ जोड़ देता है, समकक्ष बना देता है। यह कथन सत्य है। परन्तु शर्त मात्र यही है कि उसे सही रूप में अपनाया गया हो, चिन्ह पूजा की लकीर भर न पीटी गयी हो।

..... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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