शुक्रवार, 31 मार्च 2023

👉 आत्म निर्माण की ओर (भाग २)

किसी रोज सन्ध्या समय विश्लेषण करने में जब मालूम हो जाय कि आज दिन भर हमने किसी की निन्दा नहीं की, कोई हीन बात नहीं बोले, किसी का तिरस्कार नहीं किया, चुगली नहीं की, तो समझ लो कि उस दिन तुम्हारा आध्यात्मिक विकास का बीजारोपण हो गया। शब्दों पर अधिकार रखकर अब तुम आगे उन्नति कर सकोगे।

यदि तुम किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति की आलोचना, चुगली या तिरस्कार सुनो तो उस पर ध्यान मत दो, उसे मत मानो। वह निन्दक अपनी ही आत्महीनता का परिचय दे रहा है- उसमें स्वयं कितनी बुराइयाँ हैं उसे वह नहीं देखता और नहीं दूर करता। वह दूसरों के छिद्र देखता है- उसकी बात सुनकर उससे कहो, “मुझे आलोचना या चुगली मत सुनाओ। इससे तुम्हें या मुझे क्या लाभ ? मुझे यह बताओ कि उस व्यक्ति में अच्छे गुण क्या हैं, और वे अच्छे गुण तुम में हैं या नहीं ? तथा उसकी अपेक्षा तुम कितना अच्छा काम कर सकते हो यह सिद्ध करो।” तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर उसकी दुबारा चुगली करने की हिम्मत नहीं होगी।

तुम भी यदि चुगली या वार्ता सुनो, दूसरों की चर्चा सुनो तो उसे दूसरों को मत सुनाओ-इससे व्यर्थ बकवाद बढ़ता है, व्यर्थ के विचार फैलते हैं, जूठा खाकर उसे उगलना कोई अच्छी बात नहीं है- यह तो कुत्तों से भी बुरा काम है। उस बात को छोड़ दो विचार करो कि क्या वह व्यक्ति सत्य कह रहा है? क्या ऐसा कह देना आवश्यक है? यदि मैं यह बात अमुक व्यक्ति को कह दूँ तो इसका क्या नतीजा होगा? इससे किसको लाभ होगा और न कह देने से किसको हानि? इन बातों में प्रेम कितना है? घृणा कितनी है? इत्यादि बातों पर विचार कर लो तब कोई सुनी हुई बात अपनी ओठों पर से दूसरे के कान में डालो फिर इसका क्या परिणाम होता है- तुम्हें पश्चाताप न होगा और दोष नहीं लगेगा, गवाही नहीं देनी होगी।

यदि तुम्हें किसी व्यक्ति का व्यवहार संकीर्ण मालूम पड़े और तुम उसका तिरस्कार करना चाहो तो पहले विचार कर लो-तुममें उसका तिरस्कार करने की प्रेरणा क्यों हो रही है ? उसमें जो संकीर्णता और बुराई है, क्या वह हममें नहीं है? यदि हममें भी वही बात है तो पहले स्वयं आत्मशुद्धि की आवश्यकता है तभी दूसरे पर दोष लगाने का अधिकार होगा। जब तक तुममें वही बुराई है तब तक तुम दोनों बराबरी की श्रेणी में हो। यदि तुममें वह संकीर्णता और बुराई नहीं है तो तुम शुद्ध हो परन्तु उसका तिरस्कार करने से तुममें हीनता आ जायगी। उसको शुद्ध करो। फूल मिट्टी में पड़ कर उसे भी सुगंधित कर देता है। उसे मत कहो, “तुम निकृष्ट और नीच हो, दुष्ट बेईमान हो।” वरन् उसे इन शब्दों की कल्पना ही न होने दो। उससे महानता और ईमानदारी की बात करो।

“अमुक व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया”, “अमुक बात अब तक नहीं हुई”, “अमुक कार्य हो जाय तब हम दूसरा काम करें”, “ऐसा हो जाता हो हम भी ऐसा करते”, इत्यादि बातें आलसी व्यक्ति किया करते हैं। जो कुछ तुम्हें करना है उसके लिए दूसरी भूमिकाओं पर ठहरने की क्या आवश्यकता? भूतकाल की अपूर्णताओं पर कुढ़ते रहने की अपेक्षा वर्तमान को पूर्ण कर भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। भूतकाल की घटना तो मुर्दा हो गयी, उसकी कब्र खोदकर हड्डियाँ निकालने से क्या लाभ ? चेतन तत्व का आविष्कार करो जिससे तुम्हारा और संसार का निर्माण हो।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 24

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बुधवार, 29 मार्च 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 March 2023

◆ असफलताओं का दोष भाग्य, भगवान्, ग्रह दशा अथवा संबंधित लोगों को देकर मात्र मन को बहलाने की आत्म-प्रवंचना की जा सकती है, उसमें तथ्य तनिक भी नहीं है। संसार के प्रायः सभी सफल मनुष्य अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं। उन्होंने कठोर श्रम और तन्मय-मनोयोग का महत्त्व समझा है। यही दो विशेषताएँ जादू की छड़ी जैसा काम करती हैं और घोर अभाव की-घोर विपन्नताओं की परिस्थितियों के बीच भी प्रगति का रास्ता बनाती हैं।

◆ विपत्ति को टालने अथवा हलका करने का सबसे सस्ता और सबसे हलका नुसखा यह है कि कठिनाई को हलकी माना जाय और उसके हल हो जाने पर विश्वास रखा जाय। सही एवं भरपूर प्रयत्न करना ऐसी ही मनःस्थिति में संभव हो सकता है। जबकि लड़खड़ाता हुआ चिंतन तो और भी अधिक गहरे दलदल में फँसा देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ दी जाय तो फिर चारों ओर अंधकार  ही अंधकार दिखाई देगा और हलकी सी कठिनाई को पार करना भी पहाड़ उठाने जैसा भारी मालूम पड़ेगा।

◆ साहस सदा बाजी मारता है। अंदर का शौर्य बाह्य जीवन में पराक्रम और पुरुषार्थ बनकर प्रकट होता है। कठिनाइयों के साथ दो-दो हाथ करने की खिलाड़ी जैसी उमंग मनुष्य को खतरा उठाने और अपनी विशिष्टता प्रकट करने के लिए प्रेरित करती है। साहसी लोग बड़े-बड़े काम कर गुजरते हैं। बड़े कदम उठाने में पहल तो उन्हें ही करनी पड़ती है, पर पीछे कहीं न कहीं से सहयोग भी मिलता है और साधन भी जुटते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्म निर्माण की ओर (भाग 1)

छोटी छोटी साधारण बातें बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं-उनमें तत्वज्ञान और बड़े बड़े सत्य सिद्धान्त मिलते हैं। तुममें जितना ज्ञान है उसका उपयोग करते रहो जिससे वह नित्य नवीन बना चमकता रहेगा। केवल पुस्तकें पढ़ कर संसार की व्यावहारिक प्रथाओं में डूब जाने से ज्ञान होने से क्या लाभ जबकि अज्ञानियों के समान ही आचरण किया जाय। ज्ञानियों ने प्रथाओं की व्यवस्था मूर्खों के निर्देश के लिए ही हैं, ज्ञानी तो स्वतंत्र है और ज्ञान द्वारा विवेकबुद्धि से आचरण करने में समर्थ है यद्यपि मूर्ख लोग प्रथाबद्ध होकर ज्ञानी को धिक्कारते हैं कि उल्टा आचरण करते हो ? ज्ञानी जानता है कि तत्व सत्य क्या है अतः वह मुक्त है। अज्ञानी अभाव के कारण प्रथाओं और परम्परा को ही सत्य मान उसमें लिप्त बद्ध है। उसमें बुद्धि नहीं कि स्वतंत्र रूप से प्रथा और परम्परा से बाहर निकल कर कुछ सोच सके और कर सके। यदि तुम ज्ञानी होकर भी मूर्खों के बीच तथा और परम्परा के अनुसार आचरण करो तो तुममें और मूर्खों में क्या अन्तर रहा ?

अपने ज्ञान को स्वाध्याय और छोटे छोटे व्यवहार द्वारा नित्य परिमार्जित करते रहो। यदि कहीं ज्ञान चर्चा होती हो और उसके कुछ शब्द सुनकर तुम्हें मालूम पड़े तो यह कहकर वहाँ से मत खिसक जाओ कि यह सब तो मैंने पढ़ लिया है मैं जानता हूँ। संभव है उसके अन्दर कोई नवीन बात निकल आवे जो तुम्हारे लिए उपयोगी हो, तुम्हारे जीवन में महान् परिवर्तन उपस्थित कर दे।

अपनी बात चीत में सदैव सतर्क रहो। किसी के विषय में आलोचना या निन्दा मत करो और अपने विषय में किसी प्रकार की हीनता मत प्रकट करो। संसार में सभी प्राणी-परमात्मा की कला द्वारा रचित उसकी प्रतिमूर्ति हैं दिव्य हैं, तुम भी उसकी प्रतिमूर्ति और दिव्य हो। आवश्यकता है केवल आत्म विकास की, जिससे तुम दूसरों का और अपना सत्य स्वरूप समझ सको।

रात को सोते समय अन्वेषण करो कि दिन भर की बातचीत में तुमने किसी से कैसी कैसी बातें की। निश्चय करो कि अगले दिन बातचीत में कोई असत्य, हीन बात न निकले। तुम्हारे शब्द ठोस, रचनात्मक, दिव्य, प्रसन्न और चेतन हों जिससे दूसरों पर ऐसा प्रभाव पड़े जैसे एक चुम्बक दूसरे लोहे को खींचता है, और बिजली द्वारा मुर्दा ‘बैटरी चार्ज’ हो जाती है। ऐसा ही तुम्हारे शब्दों का प्रभाव हो कि सुनने वाला निराश निरुत्साही व्यक्ति चेतन हो जाय और असत्य भाषी का दिल हिल जाय और दुबारा असत्य बोलने का साहस न रह जाय।

यदि तुम्हें इस प्रकार प्रयत्न करने में प्रथम दिन सफलता न मिले तो हताश होकर छोड़ मत दो, प्रयत्न करते रहो। बहाना मत करो कि इतनी बारीकी से व्यवहार हमसे नहीं होता, कहाँ तक किस किसके साथ हरेक शब्द का खयाल रखें। एक एक व्यक्ति के सुधार से दुनिया धीरे धीरे सुधर जायगी, जल्दी नहीं होता। संसार का विकास क्रम सूक्ष्म गति से हो रहा है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/August.23

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सोमवार, 27 मार्च 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 March 2023

◆ आज आस्तिकता भी विकृत हो गयी है। लोग मान बैठे  हैं कि थोड़ी सी चापलूसी करने या भेंट पूजा की छोटी-मोटी रिश्वत देकर ईश्वर को अपना पक्षपाती बनाया जा सकता है और फिर उससे अयोग्य होते हुए भी बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं तथा पापों के दण्ड से बचने की छूट पाई जा सकती है। यदि यह कल्पना सही हो तो फिर ईश्वर का मूल स्वरूप ही विकृत हो जाएगा। फिर उसे पक्षपाती, रिश्वतखोर, खुशामदपसंद और अन्धेरगर्दी फैलाने वाला कहा जाएगा।

◆ अनीतिपूर्वक बेईमानी अपनाकर यदि कोई धनी बनता है या उन्नतिशील कहलाता है तो वह सारी प्रगति धिक्कारे जाने योग्य है। कर्त्तव्य और औचित्य का पालन करते हुए भले ही कष्टसाध्य जीवन जीना पड़े, पर उस पथ से विचलित न होना ही मनुष्यता की रक्षा कहा जाएगा। उसी का नाम चारित्रिक शुचिता है।

◆ युग परिवर्तन का अर्थ है-व्यक्ति परिवर्तन और यह महान् प्रक्रिया अपने से आरंभ होकर दूसरों पर प्रतिध्वनित होती है। यह तथ्य हमें हजार बार मान लेना चाहिए और उसे कूट-कूट कर नस-नस में भर लेना चाहिए कि दुनिया को जिस उपकरण के माध्यम से पलटा जा सकता है, वह अपना परिष्कृत व्यक्तित्व ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 निराश मत करिये

जो व्यक्ति आज तुम्हारी ही तरह होशियार और चतुर नहीं है उसे न तो निरुत्साहित करो और न उसका मजाक बनाओ। जो आदमी इस समय गधा, आलसी या मूर्ख प्रतीत होता है। यदि वह उचित अवसर पावे तो एक दिन बहुत ही बुद्धिमान सिद्ध हो सकता है। किसी की भूलों के लिये उसे तिरस्कृत मत करो वरन् उसे उत्साह देकर सन्मार्ग पर प्रवृत्त करने की चेष्टा करो।

गोल्ड स्मिथ, मास्टर लोगों की हंसी मजाक का साधन था। लड़के उसे ‘लकड़ी का चम्मच’ कहकर चिढ़ाते थे। वह डाक्टरी पढ़ता था, पर बार-बार असफल हो जाता। वास्तव में उसकी रुचि साहित्य की ओर थी। इन असफलता के दिनों में वह एक पुस्तक लिखने लगा। डॉक्टर जानसन ने कृपापूर्वक उसकी प्रथम कृति विकार आफ वेक फील्ड एक प्रकाशक को बिकवा कर उसको ऋण मुक्त कराया। इस रचना ने गोल्डस्मिथ की कीर्ति संसार भर में फैला दी। सर वाल्टर स्काट का नाम मास्टरों ने ‘मूढ़’ रख छोड़ा था। उसी मूढ़ ने ऐसी अद्भुत पुस्तकों की रचना की है जो सैंकड़ों शिक्षकों को शिक्षा दे सकती हैं। वेलिंगटन की माता उसकी मूर्खता से दुखी रहती थी। ईटन के स्कूल में वह बड़ा आलसी और बुद्धिहीन विद्यार्थी समझा जाता था। सेना में भर्ती हुआ तो प्रतीत होता था कि यह इस कार्य में भी अयोग्य साबित होगा, किन्तु उसने आश्चर्यजनक सैनिक योग्यता संपादित की और 46 वर्ष की आयु में दुनिया के सबसे बड़े सेनापति को हरा दिया।

आरंभ में कोई व्यक्ति अयोग्य दिखाई पड़े तो यह न समझना चाहिये कि इसमें योग्यता है ही नहीं या भविष्य में भी प्राप्त न कर सकेगा। यदि उचित प्रोत्साहन मिले और उपयुक्त साधन वह प्राप्त कर ले तो हो सकता है, कि आज नासमझ कहलाने वाला आदमी कल सयानों के कान काटने लगे।

किसी की बुद्धि पर मत हंसो वरन् उसकी त्रुटियों को सुधारने का प्रयत्न करो। तुम्हारे द्वारा लाँछित अपमानित या निरुत्साहित होने पर किसी का दिल टूट सकता है, किन्तु उसे किसी प्रकार से यहाँ तक कि वाणी से भी प्रोत्साहित करते रहो तो मनुष्य देहधारी प्राणी के असाधारण उन्नति कर जाने की बहुत कुछ आशा की जा सकती है।

✍🏻 स्वेट मार्डन
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1941 पृष्ठ 29

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शनिवार, 25 मार्च 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 March 2023

◆ हम अकेले चलें। सूर्य-चंद्र की तरह अकेले चलने में हमें तनिक भी संकोच न हो। अपनी आस्थाओं को दूसरों के कहे-सुने अनुसार नहीं, वरन् स्वतंत्र चिंतन के आधार पर विकसित करें। अंधी भेड़ों की तरह झुण्ड का अनुगमन करने की मनोवृत्ति छोड़ें। सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्धारित करें।

◆ सफलता के बारे में हमारा विश्वास अधूरा नहीं होना चाहिए। उसमें कहीं दरार या छिद्र नहीं होने चाहिए। सफलता के बारे में तिल मात्र भी संदेह हो तो समझना चाहिए कि प्रयत्न में शिथिलता है। शिथिलता होने से सफलता दूर चली जाएगी। जब तक किसी कार्य में हम अपनी समस्त शक्तियाँ लगा नहीं पाते, मन एकाग्र नहीं करते, तब तक वह कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। जितना कठिन कार्य है उसके लिए उतने ही दृढ़ विश्वास एवं निरन्तर प्रयत्न की आवश्यकता होती है।

◆ मनुष्य के पास बोलने की शक्ति है। यदि वह समय, परिस्थिति एवं श्रेष्ठता का ध्यान रखते हुए बोलता है तो वह वाणी के सहारे दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है, किन्तु वाणी की शक्ति को ध्यान में रखे बिना अनर्गल, व्यर्थ की बकवास और बिना सोच-विचार कर बोलना उसका दुरुपयोग है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अपने आपको पहचानिये।

दूसरों की बुराइयाँ सभी देखते हैं परन्तु अपनी ओर देखने का अभ्यास बहुत कम लोगों को होता है। सुप्रसिद्ध विचारक इमर्सन का कथन है- ‘बहुत कम लोग मृत्यु से पूर्व अपने आपको पहिचान पाते हैं’ बहुत कम व्यक्ति अपने जीवन में सभी शक्तियों को प्रकट करते हैं; बाकी तो उन्हें साथ लिए ही मर जाते हैं। हममें से अनेकों तो ईश्वर के सन्देश को संसार में दिये बिना ही यहाँ से चले जाते हैं’।

वस्तुतः तथ्य तो यह है कि हमारे अन्दर असंख्य गुप्त शक्तियाँ सोई पड़ी हैं परन्तु हमें उन योग्यताओं तथा क्षमताओं का पता ही नहीं और न ही उन्हें जानने का प्रयास करते हैं। यह ठीक है कि बाहर की अनेकों वस्तुएं जानकर हम ज्ञानवान् कहलाएँ, परन्तु यह भी कम आवश्यक नहीं कि हम अपने आपको पहचानना भी सीखें। जो अपनी और देखने का अभ्यास डालता है, वही महान् बनता है। ऐसा व्यक्ति कठिनाइयों तथा बाधाओं पर विजय पाकर सतत् उन्नति करता रहता है।

महापुरुषों का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे सतत् आत्म-निरीक्षण करते रहें तथा अपनी भूलों से सदैव शिक्षाएँ ग्रहण करते रहें। यदि आप भी महान् बनना चाहते हैं तो दूसरों को तुच्छ समझने की, उनमें छिद्रान्वेषण करने की दृष्टि का परित्याग कर दीजिए। दूसरों को तुच्छ समझने वाला मनुष्यत्व खो देता है। अन्यों की गलतियाँ खोजने की अपेक्षा अपनी त्रुटियाँ खोजिए और उन्हें दूर कीजिए। अपनी शक्तियों को पहचानिए और उनका सदुपयोग कीजिए।

ईश्वर ने अनेकों दिव्य शक्तियाँ देकर आपको संसार में भेजा है, उनका सदुपयोग कीजिए। पेट और प्रजनन जैसे क्षुद्र कार्यों में उन्हें व्यर्थ न होने दीजिए। आप जो भी कार्य कर रहे हैं उनसे हजारों गुना अधिक कार्य करने की सामर्थ्य आपके अन्दर है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि अपना महत्व समझे, शक्तियों को पहिचाने तथा समय का सदुपयोग करें। जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य है, उसे व्यर्थ न जाने दें।

जो कार्य करने की इच्छा रखते हैं, उसे आज से ही प्रारम्भ कर दीजिए। अपनी समस्त शक्तियाँ उसमें एकाकार। वह क्षण आपके जीवन का अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षण होगा जब आपको यह अनुभव होगा कि संसार को आपकी आवश्यकता है। आपके अन्दर एक और व्यक्तित्व समाहित है जो आपके बाहरी व्यक्तित्व से कहीं अधिक महान है। जिस क्षण व्यक्ति अपनी महानता की झलक पा लेता है; वह मानव से महामानवत्व की ओर अग्रसर हो जाता है।

हो सकता है कि किन्हीं कठिनाइयों या बाधाओं के कारण आपका व्यक्तित्व पूरी तरह से विकसित न हो सकता हो। परन्तु आपत्तियाँ आने पर घबराएं मत। जिस प्रकार से अग्नि में तप कर सोना निखर जाता है, और भी अधिक चमकने लगता है, उसी प्रकार बाधाएँ और कठिनाईयाँ मनुष्य को खरा कुन्दन बना देती है। कई पादप ऐसे होते हैं, जब तक उन्हें मसला न जाए सुगन्धि नहीं देते। उसी प्रकार कुछ व्यक्ति भी ऐसे होते हैं, जब तक वे विपत्तियों से आक्रान्त न किये जायें, उनकी योग्यताओं की सुगन्धि फैल ही नहीं पाती। अतएव आत्म-निरीक्षण के द्वारा अपनी योग्यताओं को पहचानिये। किसी भी प्रतिभा का अंकुर आपको अपने अन्दर दिखलाई पड़े उसको पुष्पित पल्लवित होने का अवसर दीजिये। कौन जाने एक दिन आप संसार के महान कलाकार बन जायें, विश्वप्रसिद्ध लेखक बन जायें, दार्शनिक या राजनीतिज्ञ बन जायें। चलिये और सतत् बढ़ते रहिए।

जो स्वयं को जान लेता है, वही साक्षात् परमेश्वर को जान सकता है। वही व्यक्ति ईश्वरीय प्रयोजनों को पूरा कर सकता है तथा उसके संदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1972 पृष्ठ 32 

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👉 नवरात्रि अनुष्ठान का विधि- विधान

🔴 नवरात्रि साधना को दो भागें में बाँटा जा सकता है : एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार- विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है। 

🔵 जप संख्या के बारे में विधान यह है कि ९ दिनों में २४ हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। कारण २४ हजार जप का लघु गायत्री अनुष्ठान होता है। प्रतिदिन २७ माला जप करने से ९ दिन में २४० मालायें अथवा २४०० मंत्र जप पूरा हो जाता है। माला में यों १०८ दाने होते हैं पर ८ अशुद्ध उच्चारण अथवा भूल- चूक का हिसाब छोड़ कर गणना १०० की ही की जाती है। इसलिये प्रतिदिन २७ माला का क्रम रखा जाता है। मोटा अनुपात घण्टे में ११- ११ माला का रहता है। इस प्रकार प्रायः २(१/२) घण्टे इस जप में लग जाते हैं। चूंकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से ४५ मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। अस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है। 

🔴 आजकल हर बात में नकलीपन की भरमार है। मालाएँ भी बाजार में नकली लकड़ी की बिकती हैं। अच्छा यह है कि उसमें छल- कपट न हो जिस चीज की है उसी की जानी और बताई जाय। कुछ के बदले में कुछ मिलने का भ्रम न रहे। तुलसी, चन्दन और रूद्राक्ष की मालाएँ अधिक पवित्र मानी गई हैं। इनमें से प्रायः चन्दन की ही आसानी से मिल सकती हैं। गायत्री तप मे तुलसी की माला को प्रधान माना गया है, पर वह अपने यहाँ बोई हुई सूखी लकड़ी की हो और अपने सामने बने तो ही कुछ विश्वास की बात हो सकती है। बाजार में अरहर की लकड़ी ही तुलसी के नाम पर हर दिन टनों की तादाद में बनती और बिकती देखी जाती है। हमें चन्दन की माला ही आसानी से मिल सकेगी यों उसमें भी लकड़ी पर चन्दन का सेन्ट चुपड़ का धोखे बाजी खूब चलती है। सावधानी बरतने पर सह समस्या आसानी से हल हो सकती है और असली चन्दन की माला मिल सकती है। 

🔵 एक दिन आरम्भिक प्रयोग के रूप में एक घण्टा जप करके यह देख लेना चाहिए कि अपनी जप गति कितनी है। साधारणतया एक घण्टे में दस से लेकर बारह माला तक की जप संख्या ठीक मानी जाती है। किन्हीं की मन्द हो तो बढ़ानी चाहिए और तेज हो तो घटानी चाहिए। फिर भी अन्तर तो रहेगा ही। सब की चाल एक जैसी नहीं हो सकती। अनुष्ठान में २७ मालाएँ प्रति दिन जपनी पड़ती है। देखा जाय किएक दिन आरम्भिक प्रयोग के रूप में एक घण्टा जप करके यह देख लेना चाहिए कि अपनी जप गति कितनी है। साधारणतया एक घण्टे में दस से लेकर बारह माला तक की जप संख्या ठीक मानी जाती है। किन्हीं की मन्द हो तो बढ़ानी चाहिए और तेज हो तो घटानी चाहिए। फिर भी अन्तर तो रहेगा ही। सब की चाल एक जैसी नहीं हो सकती। 

🔴 अनुष्ठान में २७ मालाएँ प्रति दिन जपनी पड़ती है। देखा जाय कि अपनी गति से इतना जप करने में कितना समय लगेगा। यह हिसाब लग जाने पर यह सोचना होगा कि प्रातः इतना समय मिलता है या नहीं। उसी अवधि में यह विधान पूरा हो सके प्रयत्न ऐसा ही करना चाहिए। पर यदि अन्य अनिवार्य कार्य करने हैं तो समय का विभाजन प्रातः और सायं दो बार में किया जा सकता है। उन दिनों प्रायः ६ बजे सूर्योदय होता है। दो घण्टा पूर्व अर्थातृ ४ बजे से जप आरम्भ किया जा सकता है सूर्योदय से तीन घण्टे बाद तक अर्थात् ९ बजे तक यह समाप्त हो जाना चाहिए। इन पाँच घण्टों के भीतर ही अपने जप में जो २ (१/२) -३ घण्टे लगेंगे वे पूरे हो जाने चाहिए। यदि प्रातः पर्याप्त समय न हो तो सायंकाल सूर्यास्त से १ घण्टा पहले से लेकर २ घण्टे बाद तक अर्थात् ५ से ८ तक के तीन घण्टों में सवेरे का शेष जप पूरा कर लेना चाहिए। प्रातः ९ बजे बाद और रात्रि को ८ के बाद की नवरात्रि तपश्चर्या निषिद्ध है। यों सामान्य साधना तो कभी भी हो सकती है और मौन मानसिक जप में तो समय, स्थान, संख्या, स्नान आदि का भी बन्धन नहीं है। उसे किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। यह अनुष्ठान के बारे में वैसा नहीं है। उसके लिए विशेष नियमों का कठोरता पूर्वक पालन करना पड़ता है।

👉 अपने चरित्र का निर्माण करो

जिसे तुम अच्छा मानते हो, यदि तुम उसे अपने आचरण में नहीं लाते तो यह तुम्हारी कायरता है। हो सकता है कि भय तुम्हें ऐसा नहीं करने देता हो, लेकिन इससे तुम्हारा न तो चरित्र ऊंचा उठेगा और न तुम्हें गौरव मिलेगा। मन में उठने वाले अच्छे विचारों को दबाकर तुम बार बार जो आत्म हत्या कर रहे हो आखिर उससे तुमने किस लाभ का अन्दाजा लगाया है?

शान्ति और तृप्ति, आचारवान व्यक्ति को ही प्राप्ति होती हैं। जो मन में है वही वाणी और कर्म में होने पर जैसी शान्ति मिलती है उसका एक अंश भी मन वाणी और कर्म में अन्तर रखने वाले व्यक्ति को प्राप्त नहीं होता। बल्कि ऐसा व्यक्ति घुट-घुट कर मरता है और दिन रात अशान्ति के ही चक्कर में पड़ा रहता है।

घुट-घुट कर लाख वर्ष जीने की अपेक्षा उस एक दिन का जीना अधिक श्रेयस्कर है जिसमें शान्ति है, तृप्ति है। परन्तु भय का भूत मनुष्य को न जिन्दा ही रहने देता है और न मरने ही देता है। भय की उत्पत्ति का कारण आशक्ति है, मोह है। शरीर का मोह, धन का मोह आदमी को कहीं का नहीं रहने देता, शरीर का चाहे जितना मोह करो उसे किसी न किसी दिन मिट्टी में मिलना ही है, अमर हो ही नहीं सकता तब फिर उसे आत्मोन्नति के साधन के लिए उपयोग में न लाकर जो लोग उसका भार ढोकर चलते रहना पसन्द करते हैं, पसन्द करते ही नहीं बल्कि चलते रहते हैं वे आत्मा को अन्धेरे की ओर ही गिराते हैं। धन और शरीर ये जीवन के लक्ष्य नहीं हैं, जीवन का लक्ष्य तो है आत्मा की उन्नति, आत्मा की प्राप्ति। इसलिए शरीर और धन का जो लोग इसके लिए उपयोग नहीं करते वे प्राप्त साधनों का दुरुपयोग न करके अपने भावी जीवन में किसी महान संकट के लिए निमन्त्रण देते हैं।

जीवन और अच्छे जीवन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए अपने आपकी खोज खबर रखता रहे। आत्म निरीक्षण करता रहे और फिर चतुर जर्राह की तरह जहाँ जहाँ आत्मोन्नति की बाधक शक्तियाँ और वृत्तियाँ काम कर रही हों। उनकी चीरफाड़ करता और उन्हें हटाता रहे। आत्म निरीक्षण और आत्म शुद्धि की वृत्ति को स्वभाव में बिना लाये कभी भी किसी व्यक्ति का चरित्र महान नहीं हुआ है। बल्कि चरित्र निर्माण के ये दोनों ही महान साधन हैं।

मानव स्वभावतः कमजोर नहीं है पर आस-पास का वातावरण उसे कमजोर बना देता है। सामाजिक परिस्थितियाँ-कायदे कानून मनुष्य को आगे बढ़ने से रोकते हैं और सामाजिक प्राणि होने के कारण मनुष्य समाज द्वारा परित्यक्त किये जाने के भय से आतंकित रहता है, इसलिए अन्दर गन्दगी बढ़ती रहती है। लेकिन जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान रहता है और अटूट श्रद्धा के साथ लक्ष्य पर पहुँचने की दृढ़ता को कायम रखता है उसे समाज के दुर्विधानों की बेड़ियां जकड़े नहीं रहती। वह इन्हें तोड़ता फोड़ता आगे बढ़ता है और स्वयं अपना ही उद्धार नहीं करता बल्कि समाज का भी पुनस्संस्कार कर डालता है। ऐसा व्यक्ति महान होता है।

ज्ञान को आचरण में बदल कर मनुष्य महान बनता है। इस महानता का सबसे बड़ा गुण है अभयदान । इसलिए जो चरित्रवान होते हैं वे निर्भीक होते हैं। वे आत्मा को अजर अमर मानते हैं और दुःख सुख को मानसिक विकार। जिन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती वे ही इन विकारों में फँसे रहते हैं इसलिए सम्पन्न होने पर भी सुखी नहीं रहते। लेकिन जिन्होंने विकारों के तत्व को समझ लिया है और जिन्हें आत्मा की पूर्णता का परिचय मिल गया है। ऐसे आत्माराम पुरुष सिर्फ अपने को ही नहीं तारते बल्कि वे संसार के तरण तारण हो जाते हैं।

चरित्र, मानव-आत्मा को पूर्ण विकसित करता है इसलिए आरंभ में भले ही किन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़े परन्तु अन्त में वे कठिनाइयाँ ही जीवन को उज्ज्वल करने वाली दिखने लगती हैं। इन कठिनाइयों को पार कर मानव तपःपूत हो जाता है। आत्मा निखर उठती है। तब अभाव नाम के किसी भी तत्व का उसके लिए कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। इसलिए चरित्र की ही उपासना करनी चाहिए और चरित्रवान बनने का ही संकल्प । इस अकेले को लिया तो सब कुछ पा लिया समझो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1948 सितम्बर पृष्ठ 3 

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1948/September.3

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गुरुवार, 23 मार्च 2023

👉 हम तुच्छ नहीं, गौरवास्पद जीवन जियें

हाड़-माँस का पुतला दुर्बलकाय मानव प्राणी शारीरिक दृष्टि से तुच्छ और नगण्य है। मामूली जीव-जन्तु, पशु-पक्षी जिस तरह का निसर्ग जीवन जीते हैं उसी तरह जिन्दगी की लाश नर-पशु भी ढोते रहते हैं। इस तरह की जिन्दगी जीने से किसी का जीवनोद्देश्य पूरा नहीं होता।

‘विचार’ ही वह शक्ति है जिसने मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक सुख-सुविधाएं उपार्जित करने में समर्थ बनाया। विचार का यह प्रथम चमत्कार है। इससे अगला चमत्कार तब प्रारम्भ होता है जब वह विचारणा की महान् शक्ति, जीवन का उद्देश्य, स्वरूप और उपयोग करने की सही जानकारी प्राप्त करने में प्रवृत्त होता है। इसी मार्ग एवं प्रयास का नाम तत्व-ज्ञान, दर्शन एवं अध्यात्म है। विचार-शक्ति का मूल्य और महत्व जिसे विदित हो गया वह अपनी इस ईश्वर प्रदत्त दिव्य विभूति को परम लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयुक्त करता है। फलस्वरूप उसका सारा जीवन क्रम ही बदल जाता है, उसका प्रत्येक क्रिया-कलाप उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से ओत-प्रोत बनता चला जाता है।

यही मानव जीवन का गौरव तथा आनन्द है। विचारशीलता का अवलम्बन लेकर जीने में ही मनुष्य जन्म की सार्थकता है। रोटी के लिये मरते-खपते रहना मनुष्य का नहीं तुच्छ जीवन-जन्तुओं का कार्य है। अच्छा हो हम अपनी-अपनी विचार शक्ति और जिन्दगी का मूल्य समझें और वह गतिविधियाँ अपनायें जो अपने स्तर और गौरव के उपयुक्त हैं।

✍🏻 ~ सन्त वास्वानी
📖 अखण्ड ज्योति 1968 फरवरी पृष्ठ 1

✍🏻 ~ सन्त वास्वानी
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मंगलवार, 21 मार्च 2023

👉 नवरात्रि अनुष्ठान का विधि विधान

🔷 नवरात्रि साधना को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार−विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।

🔶 जप संख्या के बारे में विधान यह है कि 9 दिनों में 24 हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। चूँकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से 45 मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। वस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है।

🔷 आज कल हर बात में नकलीपन की भरमार है मालाएँ भी बाजार में नकली लकड़ी की बिकती हैं अच्छा यह कि उस में छल कपट न हो जिस चीज की है उसी की जानी और बताई जाय। कुछ के बदले में कुछ मिलने का भ्रम न रहे। तुलसी, चन्दन और रुद्राक्ष की मालाएँ अधिक पवित्र मानी गई हैं। इनमें से प्रायः चन्दन की ही आसानी से असली मिल सकती है। गायत्री तप में तुलसी की माला को प्रधान माना गया है, पर वह अपने यहाँ बोई हुई सूखी लकड़ी की हो और अपने सामने बने तो ही कुछ विश्वास की बात हो सकती है। बाजार में अरहर की लकड़ी ही तुलसी के नाम पर हर दिन टनों की तादाद में बनती और बिकती देखी जाती है। हमें चन्दन की माला ही आसानी से मिल सकेगी यों उससे भी सस्ती लकड़ी पर चन्दन का सेन्ट चुपड़ कर धोखे बाजी खूब चलती है। सावधानी बरतने पर यह समस्या आसानी से हल हो सकती है और असली चन्दन की माला मिल सकती है।

🔶 एक दिन आरम्भिक प्रयोग के रूप में एक घण्टा जप करके यह देख लेना चाहिए कि अपनी जप गति कितनी है। साधारण तथा एक घण्टे में दस से लेकर बारह माला तक की जप संख्या ठीक मानी जाती है। किन्हीं की मन्द हो तो बढ़ानी चाहिए और तेज हो तो घटानी चाहिए। फिर भी अन्तर तो रहेगा ही। सब की चाल एक जैसी नहीं हो सकती। अनुष्ठान में 27 मालाएँ प्रति दिन जपनी पड़ती हैं। देखा जाय कि अपनी गति से इतना जप करने में कितना समय लगेगा। यह हिसाब लग जाने पर यह सोचना होगा कि प्रातः इतना समय मिलता है या नहीं। उसी अवधि में यह विधान पूरा हो सके प्रयत्न ऐसा ही करना चाहिए। पर यदि अन्य अनिवार्य कार्य करने हैं, तो समय का विभाजन प्रातः और सायं दो बार में किया जा सकता है। उन दिनों प्रायः 6 बजे सूर्योदय होता है। दो घण्टा पूर्व अर्थात् 4 बजे से जप आरम्भ किया जा सकता है सूर्योदय से तीन घण्टे बाद तक अर्थात् 9 बजे तक यह समाप्त हो जाना चाहिएं। इन पाँच घण्टों के भीतर ही अपने जप में जो 2॥−3 घण्टे लगेंगे वे पूरे हो जाने चाहिए। यदि प्रातः पर्याप्त समय न हो तो सायंकाल सूर्यास्त से 1 घण्टा पहले से लेकर 2 घण्टे बाद तक अर्थात् 5 से 8 तक के तीन घण्टों में सबेरे का शेष जप पूरा कर लेना चाहिए। प्रातः 9 बजे के बाद और रात्रि को 8 के बाद की नवरात्रि तपश्चर्या निषिद्ध है। यों सामान्य साधना तो कभी भी हो सकती है और मौन मानसिक जप में तो समय, स्थान, संख्या, स्नान आदि का भी बन्धन नहीं है। उसे किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। पर अनुष्ठान के बारे में वैसा नहीं है। उसके लिए विशेष नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना पड़ता है।

🔷 उपासना की विधि सामान्य नियमों के अनुरूप ही है। आत्म शुद्धि और देव पूजन के बाद जप आरम्भ हो जाता है। आरम्भ में सोहम और अन्त में खेचरी मुद्रा का नियम इसमें भी निवाहना पड़ता है। अन्तर इतना ही पड़ता है कि नित्य आधा घण्टा जप करना पड़ता था, वह अब बढ़ कर प्रायः ढाई−तीन घण्टे हो जाता है। जप के साथ सविता देवता के प्रकाश का अपने में प्रवेश होते पूर्ववत् अनुभव किया जायगा। सूर्य अर्घ्य आदि अन्य सब बातें उसी प्रकार चलती हैं, जैसी दैनिक साधना में। हर दिन जो आधा घण्टा जप करना पड़ता था वह अलग से नहीं करना होता वरन् नहीं 27 मालाओं में सम्मिलित हो जाता है।

🔶 अगरबत्ती के स्थान पर यदि इन दिनों जप के तीन घण्टे घृतदीप जलाया जा सके तो अधिक उत्तम है। धृत का शुद्ध होना आवश्यक है। मिलावट के प्रचलित अन्धेर में यदि शुद्धता पर पूर्ण विश्वास हो तो ही बाहर से लिया जाय अन्यथा दूध लेकर अपने घर पर भी निकालना चाहिए। तीन घण्टे नित्य नौ दिन दीपक जले तो उसमें प्रायः दो ढाई सौ ग्राम घी लग जाता है। इतने घी का प्रबंध बने तो दीपक की बात सोचनी चाहिए अन्यथा अगरबत्ती, धूपबत्ती आदि से काम चलाना चाहिए। इनमें भी शुद्धता का ध्यान रखा जाय। सम्भव हो तो यह वस्तुएँ भी घर पर बना ली जाएं।

🔷 नवरात्रि अनुष्ठान नर−नारी कर सकते हैं। इसमें समय, स्थान एवं संख्या की नियमितता रखी जाती है इसलिए उस सतर्कता और अनुशासन के कारण शक्ति भी अधिक उत्पन्न होती है। किसी भी कार्य में ढील−पोल शिथिलता अनियमितता और अस्त−व्यस्तता बरती जाय उसी में उसी अनुपात से सफलता संदिग्ध होती चली जायगी। उपासना के सम्बन्ध में भी यह तथ्य काम करता है। उदास मन से ज्यों−त्यों− जब, तब वह बेगार भुगत दी जाय तो उसके सत्परिणाम भी स्वल्प ही होंगे, पर यदि उसमें चुस्ती, फुर्ती की व्यवस्था और तत्परता बरती जायगी तो लाभ कई गुना दिखाई पड़ेगा। अनुष्ठान में सामान्य जप की प्रक्रिया को अधिक कठोर और अधिक क्रमबद्ध कर दिया जाता है अस्तु उसकी सुखद प्रतिक्रिया भी अत्यधिक होती है।

🔶 प्रयत्न यह होना चाहिए कि पूरे नौ दिन यह विशेष जप संख्या ठीक प्रकार कार्यान्वित होती रहे। उसमें व्यवधान कम से कम पड़े। फिर भी कुछ आकस्मिक एवं अनिवार्य कारण ऐसे आ सकते हैं जिसमें व्यवस्था बिगड़ जाय और उपासना अधूरी छोड़नी पड़े। ऐसी दशा में यह किया जाना चाहिए कि बीच में जितने दिन बन्द रखना पड़े उसकी पूर्ति आगे चलकर कर ली जाय इस व्यवधान की क्षति पूर्ति के लिए एक दिन उपासना अधिक की जाय जैसे चार दिन अनुष्ठान चलाने के बाद किसी आकस्मिक कार्यवश बाहर जाना पड़ा। तब शेष पाँच दिन उस कार्य से वापस लौटने पर पूरे करने चाहिए। इसमें एक दिन व्यवधान का अधिक बढ़ा देना चाहिए अर्थात् पाँच दिन की अपेक्षा छह दिन में उस अनुष्ठान को पूर्ण माना जाय। स्त्रियों का मासिक धर्म यदि बीच में आ जाय तो चार दिन या शुद्ध न होने पर अधिक दिन तक रोका जाय और उसकी पूर्ति शुद्ध होने के बाद करनी जाय। एक दिन अधिक करना इस दशा में भी आवश्यक है।

🔷 अनुष्ठान में पालन करने के लिए दो नियम अनिवार्य हैं। शेष तीन ऐसे हैं जो यथा स्थिति एवं यथा सम्भव किये जा सकते हैं। इन पाँचों नियमों का पालन करना पंच तप कहलाता है, इनके पालन से अनुष्ठान की शक्ति असाधारण रूप से बढ़ जाती है।

🔶 इन दो दिन ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। शरीर और मन में अनुष्ठान के कारण जो विशेष उभार आते हैं उनके कारण कामुकता की प्रवृत्ति उभरती है। इसे रोका न जाय तो दूध में उफान आने पर उसके पात्र से बाहर निकल जाने के कारण घाटा ही पड़ेगा। अस्तु मनःस्थिति इस सम्बन्ध में मजबूत बना लेनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि रात्रि को विपरीत लिंग के साथ न सोया जाय। दिनचर्या में ऐसी व्यस्तता और ऐसी परिस्थिति रखी जाय जिससे न शारीरिक और न मानसिक कामुकता उभरने का अवसर आये। यदि मनोविकार उभरें भी तो हठपूर्वक उनका दमन करना चाहिए और वैसी परिस्थिति नहीं आने दी जाय। यदि वह नियम न सधा, ब्रह्मचर्य अखंडित हुआ तो वह अनुष्ठान ही अधूरा माना जाय। करना हो तो फिर नये सिरे से किया जाय। यहाँ यह स्पष्ट है कि स्वप्नदोष पर अपना कुछ नियन्त्रण न होने से उसका कोई दोष नहीं माना जाता। उसके प्रायश्चित्य में दस माला अधिक जप कर लेना चाहिए।

🔷 दूसरा अनिवार्य नियम है उपवास। जिनके लिए सम्भव हो वे नौ दिन फल, दूध पर रहें। ऐसे उपवासों में पेट पर दबाव घट जाने से प्रायः दस्त साफ नहीं हो पाता और पेट भारी रहने लगता है इसके लिए एनीमा अथवा त्रिफला−ईसबगोल की भूसी−कैस्टोफीन जैसे कोई हलके विरेचन लिए जा सकते हैं।

🔶 महंगाई अथवा दूसरे कारणों से जिनके लिए वह सम्भव न हो वे शाकाहार−छाछ आदि पर रह सकते हैं। अच्छा तो यही हैं कि एक बार भोजन और बीच−बीच में कुछ पेय पदार्थ ले लिए जायँ, पर वैसा न बन पड़े तो दो बार भी शाकाहार, दही आदि लिया जा सकता है।

🔷 जिनसे इतना भी न बन पड़े वे अन्नाहार पर भी रह सकते हैं, पर नमक और शकर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन उन्हें भी करना चाहिए। भोजन में अनेक वस्तुएँ न लेकर दो ही वस्तुएँ ली जाएं। जैसे−रोटी, दाल। रोटी−शाक, चावल−दाल, दलिया, दही आदि। खाद्य−पदार्थों की संख्या थाली में दो से अधिक नहीं दिखाई पड़नी चाहिए। यह अन्नाहार एक बार अथवा स्थिति के अनुरूप दो बार भी लिया जा सकता है। पेय पदार्थ कई बार लेने की छूट है। पर वे भी नमक, शक्कर रहित होने चाहिएं।

🔶 जिनसे उपवास और ब्रह्मचर्य न बन पड़े वे अपनी जप संख्या नवरात्रि में बढ़ा सकते हैं इसका भी अतिरिक्त लाभ है, पर इन दो अनिवार्य नियमों का पालन न कर सकने के कारण उसे अनुष्ठान की संज्ञा न दी जा सकेगी और अनुशासन साधना जितने सत्परिणाम की अपेक्षा भी नहीं रहेगी। फिर भी जितना कुछ विशेष साधन−नियम पालन इस नवरात्रि पर्व पर बन पड़े उत्तम ही है।

🔷 तीन सामान्य नियम हैं 
[1] कोमल शैया का त्याग 
[2] अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना 
[3] हिंसा द्रव्यों का त्याग। इन नौ दिनों में भूमि या तख्त पर सोना तप तितीक्षा के कष्ट साध्य जीवन की एक प्रक्रिया है। इसका बन पड़ना कुछ विशेष कठिन नहीं है। चारपाई या पलंग छोड़कर जमीन पर या तख्त पर बिस्तर लगाकर सो जाना थोड़ा असुविधाजनक भले ही लगे, पर सोने का प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो जाता है।

🔶 कपड़े धोना, हजामत बनाना, तेल मालिश, जूता, पालिश, जैसे छोटे−बड़े अनेक शारीरिक कार्यों के लिए दूसरों की सेवा लेनी पड़ती है। अच्छा हो कि यह सब कार्य भी जितने सम्भव हों अपने हाथ किये जायं। बाजार का बना कोई खाद्य पदार्थ न लिया जाय। अन्नाहार पर रहना है तो वह अपने हाथ का अथवा पत्नी, माता जैसे सीधे शरीर सम्बन्धियों के हाथ का ही बना लेना चाहिए नौकर की सहायता इसमें जितनी कम ली जाय उतना उत्तम है। रिक्शे, ताँगे की अपेक्षा यदि साइकिल, स्कूटर, बस, रेल आदि की सवारी से काम चल सके तो अच्छा है। कपड़े अपने हाथ से धोना− हजामत अपने हाथ बनाना कुछ बहुत कठिन नहीं है। प्रयत्न यही होना चाहिए कि जहाँ तक हो सके अपनी शरीर सेवा अपने हाथों ही सम्पन्न की जाय।

🔷 तीसरा नियम है हिंसा द्रव्यों का त्याग। इन दिनों 99 प्रतिशत चमड़ा पशुओं की हत्या करके ही प्राप्त किया जाता हैं। वे पशु माँस के लिए ही नहीं चमड़े की दृष्टि से भी मारे जाते हैं। माँस और चमड़े का उपयोग देखने में भिन्न लगता है, पर परिणाम की दृष्टि से दोनों ही हिंसा के आधार हैं। इसमें हत्या करने वाले की तरह उपयोग करने वाले को भी पाप लगता है। अस्तु चमड़े के जूते सदा के लिए छोड़ सकें तो उत्तम है अन्यथा अनुष्ठान, काल में तो उनका परित्याग करके रबड़, प्लास्टिक कपड़े आदि के जूते चप्पलों से काम चलाना चाहिए।

🔶 माँस, अण्डा जैसे हिंसा द्रव्यों का इन दिनों निरोध ही रहता है। आज−कल एलोपैथी दवाएँ भी ऐसी अनेक है जिनमें जीवित प्राणियों का सत मिलाया जाता है। इनसे बचना चाहिए। रेशम, कस्तूरी, मृगचर्म आदि प्रायः पूजा प्रयोजनों में उपयोग किया जाता है, ये पदार्थ हिंसा से प्राप्त होने के कारण अग्राह्य ही माने जाने चाहिए। शहद यदि वैज्ञानिक विधि से निकाला गया है तो ठीक अन्यथा अण्डे बच्चे निचोड़ डालने और छत्ता तोड़ फेंकने की पुरानी पद्धति से प्राप्त किया गया शहद भी त्याग समझा जाना चाहिए।

🔷 न केवल जप उपासना के लिए ही समय की पाबन्दी रहे वरन् इन दिनों पूरी दिनचर्या ही नियमबद्ध रहे। सोने, खाने नहाने आदि सभी कृत्यों में यथासम्भव अधिक से अधिक समय निर्धारण और उसका पक्का पालन करना आवश्यक समझा जाय। अनुशासित शरीर और मन की अपनी विशेषता होती है और उससे शक्ति उत्पादन से लेकर सफलता की दिशा में द्रुत गति से बढ़ने का लाभ मिलता है। अनुष्ठानों की सफलता में भी यही तथ्य काम करता है।

🔶 अनुष्ठान के दिनों में मनोविकारों और चरित्र दोषों पर कठोर दृष्टि रखी जाय और अवाँछनीय उभारों को निरस्त करने के लिए अधिकाधिक प्रयत्नशील रहा जाय। असत्य भाषण, क्रोध, छल, कटुवचन अशिष्ट आचरण, चोरी, चालाकी, जैसे अवाँछनीय आचरणों से बचा जाना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष, कामुकता, प्रतिशोध जैसी दुर्भावनाओं से मन को जितना बचाया जा सके उतना अच्छा है। जिनसे बन पड़े वे अवकाश लेकर ऐसे वातावरण में रह सकते हैं जहाँ इस प्रकार की अवाँछनीयताओं का असर ही न आय। जिनके लिए ऐसा सम्भव नहीं, वे सामान्य जीवन यापन करते हुए अधिक से अधिक सदाचरण अपनाने के लिए सचेष्ट बने रहें।

🔷 नौ दिन की साधना पूरी हो जाने पर दसवें दिन अनुष्ठान की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिए इन दिनों 
(1) हवन 
(2) ब्रह्मदान 
(3) कन्याभोज के तीन उपचार पूरे करने चाहिएं।

🔶 संक्षिप्त गायत्री हवन पद्धति की प्रक्रिया बहुत ही सरल है। उन मन्त्रों को एवं विधानों को बताने वाली पुस्तिका गायत्री तपोभूमि मथुरा से मिलती है। पुराने उपासकों में से अधिकाँश उस कृत्य से परिचित हैं। अपनी जानकारी न हो तो किसी पुराने गायत्री उपासक की सहायता से 240 आहुतियों का हवन किया जा सकता है। जहाँ वैसे साधन न हों वहाँ घी और शकर मिलाकर गायत्री मन्त्र से उसकी आहुतियाँ दी जा सकती हैं। मिट्टी की छोटी चबूतरी बना कर पतली समिधाओं में अग्नि उच्चारण कर सकने वाले घर के अन्य लोगों को भी सम्मिलित किया जा सकता है। यदि चार व्यक्ति मिल कर हवन करें तो मिलकर 60 बार आहुति देने से ही 240 आहुतियाँ हो जायेंगी। जितने आहुति देने वाले हों उसी हिसाब से यह निर्धारण करना चाहिए। 240 से कम आहुतियाँ नहीं होनी चाहिएं, अधिक हो जाए तो ठीक है। जिनके लिए इतना भी सम्भव न हो वे शाँति−कुँज को लिख देंगे तो उनकी 240 आहुतियाँ यहाँ की यज्ञशाला में विधिवत् कर दी जायेंगी।

🔷 गायत्री आद्य शक्ति−मातृ शक्ति है। उसका प्रतिनिधित्व कन्या करती है। अस्तु अन्तिम दिन कम से कम एक और अधिक जितनी सुविधा हो कन्याओं को भोजन कराना चाहिए।

🔶 ब्रह्मदान में सत्साहित्य का वितरण आता है। जन−मानस का परिष्कार करने वाला सस्ता प्रचार साहित्य युग−निर्माण योजना मथुरा और शांति−कुंज हरिद्वार से मिलता है अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ पैसा इसे मँगाने और विचारशील लोगों में उसे वितरण करने का प्रयत्न करना चाहिए। लागत से कम मूल्य में बेचना भी वितरण के समान ही श्रेष्ठ है।

🔷 दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन−प्रेरक पोस्टरों का चिपकाया जाना जैसे प्रेरणाप्रद कृत्य ब्रह्मदान की संज्ञा में ही गिने जाते हैं।

🔶 अनुष्ठान करने वाले इसकी सूचना हरिद्वार भेज देंगे तो उनकी साधना का संरक्षण एवं परिमार्जन भी वहाँ से किया जाता रहेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1976 पृष्ठ 60

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/February/v1.60


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सोमवार, 20 मार्च 2023

👉 सेवा करना इनसे सीखो

क्या तुम सच्चे सेवक बनना चाहते हो? सच्ची समाज सेवा करने की इच्छा मन में है? तो आओ, आज हम कुछ ऐसे सच्चे सेवकों का परिचय आपसे करायें, जो हमारे लिए मार्ग दर्शक हो सकते है। संध्या समय पश्चिम आकाश में अस्त होने वाले सूर्य को देखो। बारह बारह घंटों तक पृथ्वी को प्रकाश देने के पश्चात् भी वह निश्चित होकर विश्राम लेने जाना नहीं चाहते हैं। मैं चला जाऊँगा फिर सृष्टि को प्रकाश कौन देगा? उसे अन्धकार से कौन उभारेगा? इस चिन्ता में देखो उनका मुख मंडल म्लान हो गया है। सच्चे सेवक की सेवा की भूख कभी शांत नहीं होती।

चन्द्र के पास स्वयं का प्रकाश नहीं है। फिर भी वह दूसरे का तेज उधार लेकर अपने को आलोकित करता है। सच्चे सेवक को साधन का अभाव कभी नहीं खटकता।

हमारी शक्ति बहुत थोड़ी है, इसलिए हमसे क्या सेवा हो सकेगी। क्या तुम ऐसा सोचते हो? नहीं, नहीं, ऐसा कभी मत सोचो। आकाश के तारों की ओर देखो। ब्रह्माण्ड की तुलना में कितने अल्प हैं, फिर भी यथाशक्ति सेवा करने- भूमण्डल को प्रकाशित करने - लाखों की संख्या में प्रकट होते है और अमावस्या की अँधेरी रात में अनेकों का पथ -प्रदर्शन करते हैं।

थक कर, ऊब कर सेवा क्षेत्र का त्याग करने का विचार कर रहे हो? तुम्हारे सामने बहने वाली इस सरिता को देखो। उद्गम से सागर तक संगम होने तक कभी मार्ग में वह रुकती है? ‘सतत कार्यशीलता’ यही उसका मूल मंत्र है। मार्ग में आने वाले विघ्नों से वह डरती नहीं तो तुम क्यों साधारण संकटों एवं अवरोधों से घबराते हो? वह नदी कभी ऊँच-नीच का भाव जानती ही नहीं। मनुष्य मात्र ही नहीं, पशु-पक्षी या वनस्पति सबकी निरपेक्ष सेवा करना ही वह अपना धर्म समझती है। सेवक के लिए कौन ऊँच और कौन नीच?

इन अज्ञानी लोगों की क्या सेवा करें? इनका सुधरना असम्भव है ऐसा मत सोचो। देखो कीचड़ में यह कैसा सुन्दर कमल खिला है? तुम भी अज्ञान के कीचड़ में कमल के समान खिलकर कीचड़ की सुरभि पैदा करो, सच्चे सेवक की यही कसौटी है।

✍🏻 ~स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति 1969 अप्रैल पृष्ठ 1

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शनिवार, 18 मार्च 2023

👉 शिष्ट और शालीन बनें

शिक्षित, सम्पन्न और सम्मानित होने के बावजूद भी कई बार व्यक्ति के सम्बन्ध में गलत धारणाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और यह समझा जाने लगता है कि योग्य होते हुए भी अमुक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कमियाँ हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षित और सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति के आचरण से, उसके व्यवहार से कहीं न कहीं ऐसी फूहड़ता टपकती है जो उसे सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी अशिष्ट कहलवाने लगती है। विश्व स्तर पर एक बड़ी संख्या में लोग सम्पन्न और शिक्षित भले ही हों, किन्तु उनके व्यवहार में यदि शिष्टता और शालीनता नहीं है, तो उनका लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी विभूतियों की चर्चा सुनकर लोग भले ही प्रभावित हो जायें, परन्तु उनके सम्पर्क में आने पर अशिष्ट आचरण की छाप उस प्रभाव को धूमिल कर देती है।
  
इसलिए शिक्षा, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा की दृष्टि से कोई व्यक्ति ऊँचा हो और उसे हर्ष के अवसर पर हर्ष, शोक के अवसर पर शोक की बातें करना न आये, तो लोग उसका मुँह देखा सम्मान भले ही करें, परन्तु मन में उसके प्रति कोई अच्छी धारणाएँ नहीं रख सकेंगे। शिष्टाचार और लोक-व्यवहार का यही अर्थ कि हमें समयानुकूल आचरण तथा बड़े छोटों से उचित बर्ताव करना आये। यह गुण किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए सम्पर्क और पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन तथा क्रियात्मक अभ्यास ही किया जाना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसर पर, कैसे व्यक्ति से, कैसा व्यवहार करना चाहिए? कहाँ, किस प्रकार उठना-बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना-रुकना चाहिए। यदि खुशी के अवसर पर शोक और शोक के समय हर्ष की बातें की जाएँ, या बच्चों के सामने दर्शन और वैराग्य तथा वृद्धजनों की उपस्थिति में बालोचित या युवजनोचित्त शरारतें, हास्य विनोद भरी बातें की जायें अथवा गर्मी में चुस्त, गर्म, भडक़ीले वस्त्र और शीत ऋतु में हल्के कपड़े पहने जायें, तो देखने सुनने वालों के मन में आदर नहीं, उपेक्षा और तिरस्कार की भावनाएँ ही आयेंगी।
  
कोई भी क्षेत्र क्यों न हों? हम घर में हों या बाहर कार्यालय में। दुकान पर और मित्रों-परिचितों के बीच हों अथवा अजनबियों के बीच।  हर पल व्यवहार करते समय शिष्टाचार ही जीवन का वह दर्पण है जिसमें हमारे व्यक्तित्व का स्वरूप दिखाई देता है। इसके द्वारा मनुष्य का समाज से प्रथम परिचय होता है। यह न हो तो व्यक्ति समाज में रहते हुए भी समाज से कटा-कटा सा रहेगा और किसी प्रकार आधा-अधुरा जीवन जीने के लिए बाध्य होगा। जीवन साधना के साधक व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों को यह शोभा नहीं देता। उसे जीवन में पूर्णता लानी ही चाहिए। अस्तु, शिष्टाचार को भी जीवन में समुचित स्थान देना ही चाहिए।
 
शिष्टता मनुष्य के मानसिक विकास का भी परिचायक है। कहा जा चुका है कि कोई व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो, किन्तु उसे शिष्टï और शालीन व्यवहार न करना आये, तो उसे अप्रतिष्ठा ही मिलेगी, क्योंकि पुस्तकीय ज्ञान अर्जित कर लेने से तो ही बौद्धिक विकास नहीं हो जाता। अलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी होती हैं और पुस्तकों में ज्ञान संचित रहती हैं। इससे आलमारी ज्ञानी और विद्वान तो नहीं कही जाती। वह पुस्तकीय ज्ञान केवल मस्तिष्क में आया मस्तिष्क की तुलना आलमारी से ही की जायेगी। उस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से विकसित है। मानसिक विकास अनिवार्य रूप से आचरण में भी प्रतिफलित होता है। व्यवहार की शिष्टïता और आचरण में शालीनता ही मानसिक विकास की परिचायक है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...