शनिवार, 25 सितंबर 2021

👉 पीहर या ससुराल

तीज का त्यौहार आने वाला था। तुलसी जी की दोनों बहुओं के पीहर से तीज का सामान भर भर के उनके भाइयों द्वारा पहुंचा दिया गया था। छोटी बहू मीरा का यह शादी के बाद पहला त्यौहार था। चूँकि मीरा के माता पिता का बचपन में ही देहांत हो जाने के कारण, उसके चाचा चाची ने ही उसे पाला था इसलिए और हमेशा हॉस्टल में रहने के कारण उसे यह सब रीति-रिवाजों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। पढ़ने में होशियार मीरा को कॉलेज के तुरंत बाद जॉब मिल गई। आकाश और वो दोनों एक ही कंपनी में थे। जहां दोनों ने एक दूसरे को पसंद किया और घरवालों ने भी बिना किसी आपत्ति के दोनों की शादी करवा दी। आज जब मीरा ने देखा कि उसकी जेठानियों के पीहर से शगुन में ढ़ेर सारा सुहाग का सामान, साड़ियां, मेहंदी, मिठाईयां इत्यादि आया है तो उसे अपना कद बहुत छोटा लगने लगा। पीहर के नाम पर उसके चाचा चाची का घर तो था, परंतु उन्होंने मीरा के पिता के पैसों से बचपन में ही हॉस्टल में एडमिशन करवा कर अपनी जिम्मेदारी निभा ली थी और अब शादी करवा कर उसकी इतिश्री कर ली थी। आखिर उसका शगुन का सामान कौन लाएगा, ये सोच सोचकर मीरा की परेशानी बढ़ती जा रही थी। जेठानियों को हंसी ठहाका करते देख उसे लगता शायद दोनों मिलकर उसका ही मजाक उड़ा रही हैं। आज उसे पहली बार मां बाप की सबसे ज्यादा कमी खल रही थी।
 
अगले दिन मीरा की सास तुलसी जी ने उसे आवाज लगाते हुए कहा, "मीरा बहू, जल्दी से नीचे आ जाओ, देखो तुम्हारे पीहर से तीज का शगुन आया है।" यह सुनकर मीरा भागी भागी नीचे उतरकर आँगन में आई और बोली, "चाचा चाची आए हैं क्या मम्मी जी? कहां हैं? मुझे बताया भी नहीं कि वे लोग आने वाले हैं!"मीरा एक सांस में बोलती चली गई। उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसके चाचा चाची भी कभी आ सकते हैं। तभी तुलसी जी बोलींं, "अरे नहीं, तुम्हारे चाचा चाची नहीं आए बल्कि भाई और भाभियां सब कुछ लेकर आए हैं।"  मीरा चौंंककर बोली, "पर मम्मी जी मेरे तो कोई भाई नहीं हैं फिर...??"

"ड्रॉइंग रूम में जाकर देखो, वो लोग तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं"। तुलसी जी ने फिर आँखे चमकाते हुए कहा। मीरा कशमकश में उलझी धीरे धीरे कदम बढ़ाती हुई, ड्रॉइंग रूम में घुसी तो देखा उसके दोनों जेठ जेठानी वहां पर सारे सामान के साथ बैठे हुए थे। पीछे-पीछे तुलसी जी भी आ गईंं और बोलींं, "भई तुम्हारे पीहर वाले आए हैं, खातिरदारी नहीं करोगी क्या?" मीरा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो कभी सास को देखती तो कभी बाकी सभी लोगों को। उसके मासूम चेहरे को देख कर सबकी हंसी छूट पड़ी।
तुलसी जी बोलींं, "कल जब तुम्हारी जेठानियों के पीहर से शगुन आया था तो हम सबने ही तुम्हारी आंखों में वह नमी देख ली थी। जिसमें माता पिता के ना होने का गहरा दुःख समाया था। पीहर की महत्ता हम औरतों से ज्यादा कौन समझ सकता है भला! इसलिए हम सबने तभी तय कर लिया था कि आज हम सब एक नया रिश्ता कायम करेंगे और तुम्हें तुम्हारे पीहर का सुख जरूर देंगे। "मीरा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिन रिश्तोंं से उसे कल तक मजाक बनने का डर सता रहा था। उन्हीं रिश्तों ने आज उसे एक नई सोच अपनाकर उसका पीहर लौटा दिया था। मीरा की आंखों से खुशी और कृतज्ञता के आंसू बह रहे थे।।

समाज में एक नई सोच को जन्म देने वाले उसके ससुराल वालों ने मीरा का कद बहुत ऊंचा कर दिया था। साथ ही साथ अपनी बहू के ससुराल को ही अपना पीहर बनाकर समाज में उनका कद बहुत ऊंचा उठ चूका था।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६८)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि अपने सुविधापूर्ण जीवन के लिए इच्छा ने उन जीवों के शरीर संस्थानों में अन्तर किया और यह अन्तर स्पष्ट होते-होते एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता हुआ जीव विकसित होता गया। थोड़ी देर के लिये यह बात मान लें और मनुष्य शरीर को इस कसौटी पर कसें तो भी बात विकासवाद के विपरीत ही बैठेगी। मनुष्य कब से पक्षियों को देखकर आकाश में स्वतन्त्र उड़ने को लालायित है किन्तु उसके शरीर में कहीं कोई पंख उगा क्या, समुद्र में तैरते जहाज देखकर हर किसी का मन करने लगता है कि हम भी गोता लगायें और मछलियों की तरह कहीं से कहीं जाकर घूम आयें, पर वह डूबने से बच पायेगा क्या?

यह प्रश्न अब उन लोगों को भी विपरीत दिशा में सोचने और परमात्म-सत्ता के अस्तित्व में होने की बात मानने को विवश करते हैं जो कभी इस सिद्धान्त के समर्थक रहे हैं। राबर्ट ए मिल्लीकान का कथन है—विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में ही वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण करता है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है आम के बीज से इमली पैदा करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। इस तरह के बीज और ऊपर वर्णित विलक्षण रचनायें पैदा करने वाली सत्ता एकमात्र परमात्मा ही हो सकता है। वही अपने आप में एक परिपूर्ण सत्ता है और वही विभिन्न इच्छाओं, अनुभूतियों, गुण तथा धर्म वाली परिपूर्ण रचनायें सृजन करता है।

क्रमिक विकास को नहीं भारतीय दर्शन पूर्णता-पूर्णता की उत्पत्ति मानता है। श्रुति कहती है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते ।।

अर्थात्—पूर्ण परम ब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत—पूर्ण मानव की उत्पत्ति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने से पूर्ण ही शेष रहता है।

नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर होता है। दूर होते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ इसलिये अपने में स्वयं पूर्ण है यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुःखों से त्राण नहीं पाता तो इसका एकमात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रूप से हर किसी में विद्यमान रहती है।

क्षुद्रता की परिधि को तोड़कर पूर्णता प्राप्त कर लेना हर किस के लिये सम्भव है। मनुष्य की चेतन सत्ता में वह क्षमता मौजूद है, जिसके सहारे वह अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का उपयोग कर देवोपम जीवन जी सकता है। यह क्षमता उसने खो दी है। मात्र जीवन निर्वाह क्रम पूरा होते रहने भर का लाभ उस क्षमता से उठा सकना सम्भव होता है। यह उस प्रचण्ड क्षमता का एक स्वरूप अंश मात्र है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६८)

भक्ति और ज्ञान में विरोध कैसा?
    
महान भक्त एवं परम ज्ञानी ऋषि श्वेताक्ष के साधना जीवन की एक और भी विशेषता थी- उन्होंने ज्ञान और भक्ति में परस्पर अभेद का अनुभव किया था। वह कहते थे कि सभी विचारधाराएँ, विविध सरिताओं की भांति हैं, जो कहीं न कहीं परस्पर मिलती हैं। भले ही यह मिलन, सरिता का सरिता में हो अथवा फिर सरिता का सागर में। ज्ञान हो या भक्ति, इसके विविध पथों या मतों में परस्पर विरोध सम्भव नहीं। विरोध वही करते हैं जो अनुभव से रीते हैं, जो केवल तर्कों एवं विचारों तक सीमित हैं। यही वजह थी कि ऋषि श्वेताक्ष जब मुखर होते थे, तो सभी मतों एवं पथों का, ज्ञान एवं भक्ति की विविध धाराओं का स्वाभाविक संगम हो जाता था। उनका यह अनूठापन सभी को बहुत भाता था।
    
देवर्षि के वह परम प्रिय थे। उन्हें सर्वप्रथम मार्गदर्शन उन्हीं से मिला था। उन दिनों वह विन्ध्याचल में तप कर रहे थे। विन्ध्याचल के वनप्रान्त में एकाकी-निराहार रहकर भगवती की आराधना कर रहे इस बालक के प्रेम ने माँ को द्रवित कर दिया। उन्होंने ही देवर्षि से कहा- विन्ध्य के भीषण महाअरण्य में निराहार रहकर तप कर रहे इस पाँच साल के बालक को तुम्हारी आवश्यकता है। जगदम्बा के आदेश को शिरोधार्य करके वह उनसे मिले थे। इस प्रथम भेंट में देवर्षि को बीते युगों की याद ताजा हो आयी। जब वह कभी धु्रव-प्रह्लाद से मिले थे, श्वेताक्ष भी उन्हें उन्हीं का प्रतिरूप एवं समरूप मिले। देवर्षि के मार्गदर्शन ने उन्हें भावमय अन्तर्विवेक दिया। फिर क्या था श्वेताक्ष की प्रगाढ़ पुकार से जगन्माता ने उन्हें अपने आंचल की छांव में ले लिया। भगवान् दक्षिणामूर्ति महेश्वर के मुख से उन्हें शास्त्रों का अनुभव पूर्णज्ञान हुआ। आज वही श्वेताक्ष भक्ति की इस महासभा में थे और देवर्षि को निहारे जा रहे थे। सम्भवतः कुछ कहने को उत्सुक थे।
    
उनकी विचार उर्मियों ने देवर्षि के अन्तस को स्पर्श किया। उनकी चेतना किंचित बहिर्मुख हुई। अन्तरिक्ष को निहारती उनकी आँखों ने श्वेताक्ष की ओर देखा और वह थोड़े मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘कुछ कहना चाहते हो पुत्र?’’ उत्तर में श्वेताक्ष कुछ बोल न सके, बस विनम्र भाव से सप्तर्षिमण्डल के परमर्षियों की ओर देखते रहे। इन महिमामय महर्षियों ने उनकी भावमुद्रा परख ली। वह समझ गए कि श्वेताक्ष को अपनी बात कहने में संकोच हो रहा है, सम्भवतः यह उनकी विनम्रता के कारण था। ऐसे में ब्रह्मर्षि वसिष्ठ, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र सहित सभी सप्तर्षियों ने कहा- ‘‘पुत्र! देवर्षि नारद की ही भांति हम सभी को तुम प्रिय हो। अतः जो कहना चाहते हो, निःसंकोच कहो।’’
    
देवर्षि सहित सभी सप्तर्षियों व महर्षियों से आश्वस्ति पाकर श्वेताक्ष विनम्र स्वर में बोले- ‘‘आप सभी के समक्ष मैं बालक हूँ, मेरा अनुभव भी थोड़ा है। फिर भी जो भी अनुभव है, वह यही कहता है कि भक्ति और ज्ञान विलग नहीं रह सकते। वह अन्तःकरण में साथ ही साथ प्रकट होते हैं और इनका विकास भी साथ-साथ ही होता है।’’ श्वेताक्ष के इस कथन ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के ध्यान को आकर्षित किया। वह बोले- ‘‘पुत्र! तुम अपने कथन का विस्तार करो।’’ उत्तर में श्वेताक्ष ने कहा- ‘‘भगवन! हृदय में प्राथमिक आध्यात्मिक जिज्ञासा के साथ भाव एवं विवेक का उदय प्रायः एक साथ ही होता है। फिर साधक की साधना के अनुसार जब उसका चित्त शुद्ध होता है, तब उसी के अनुरूप भक्ति एवं ज्ञान भी परिपक्व होते जाते हैं।
    
जब तक चित्त अशुद्ध है, तब तक न तो यथार्थ ज्ञान का उदय होता है और न यथार्थ भक्ति का। ज्ञान के नाम पर केवल शब्द, विचार एवं तर्कों का केवल आडम्बर होता है और भाव के नाम पर केवल आवेग उभरते हैं। अनुभवहीनजन इन्हें ही ज्ञान एवं भक्ति मानकर सन्तोष कर लेते हैं। यही नहीं, वे अपनी अज्ञानता के कारण भक्ति एवं ज्ञान में भेद भी करते हैं। जबकि यथार्थ स्थिति में भेद तो विचार, तर्क एवं आवेगपूर्ण भावों में होता है। ऐसी स्थिति में इनमें परस्पर का सम्बन्ध होता भी नहीं।
    
परन्तु जब साधक अपनी साधना की डगर में चलते हुए चित्तशुद्धि की दिशा में बढ़ता है, तो उसमें स्वाभाविक ही शुद्ध भाव अंकुरित होते हैं और साथ ही उदय होती है समाधिजा प्रज्ञा। ये दोनों ही साधक को चित्तशुद्धि के प्रसाद के रूप में मिलती हैं। जैसे-जैसे चित्तशुद्धि परिपक्व एवं प्रगाढ़ होती है, वैसे-वैसे इनका विकास भी होता है- शिवज्ञान बनकर। जिस तरह शिव एवं शक्ति, भव एवं भवानी अभेद हैं, ठीक उसी तरह से भक्ति एवं ज्ञान में भी भेद नहीं है। क्योंकि दोनों ही एक साथ शुद्ध चित्त से प्रकट होते हैं।’’
    
ऋषि श्वेताक्ष की बातें सभी को प्रिय लगी। सभी को उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता का अनुभव हुआ। देवर्षि ने पुलकित होकर उन्हें गले से लगाया और सिर पर हाथ फेरा। श्वेताक्ष भी देवर्षि का यह स्नेह पाकर धन्य हो गए। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘पुत्र! तुम्हारे बारे में सुना तो बहुत था, परन्तु आज देखा भी। सचमुच ही तुम सब अवस्थाओं में, भेद में अभेद को अनुभव करते हो। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय में अभेद का एक जैसा अनुभव होने से ही ये बातें कही जा सकती हैं।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस कथन के उत्तर में श्वेताक्ष केवल इतना कह सके, ‘‘आपके आशीष से मैं अनुग्रहीत हुआ भगवन्!’’ इसके बाद उन्होंने चुप्पी साध ली। सम्भवतः उन्हें एक नये सूत्र सत्य की प्रतीक्षा थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२१

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